रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
सोलहवीं सदी के महान सूफी मलिक मुहम्मद जायसी (1476-1542) की सुविख्यात काव्यकृति ‘पद्मावत’ की रचना अलाउद्दीन खिलजी (1250-1316) के चित्तौड़-विजय (1303) के 237 वर्ष बाद 1540 में हुई थी- ‘सन नौ से सैंतालिस अहै/कथा आरंभ बैन कबि कहै//’
‘पद्मावत’ की कथा दो भागों- पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध में विभाजित है. पूर्वार्द्ध को प्रमुख माननेवालों ने इसे सूफी ग्रंथ और उत्तरार्द्ध को महत्व देनेवालों ने इसे इतिहास-आधारित मानकर ‘इतिहास की पोथी’ समझ लिया. विजयदेव नारायण साही ने पूर्वार्द्ध को ‘यूटोपिया, अलोक’ या ‘सुविधा के लिए सिंहल लोक’ कहा है, जबकि कथा के उत्तरार्द्ध में कवि ने पूर्वार्द्ध के लोक से भिन्न एक ‘इतिहास-लोक’ निर्मित किया है. इस महाकाव्य में पद्मावती के अनेक चित्र हैं.
सारी मुश्किलें उसे स्थिर और ऐतिहासिक पात्र समझने से हुई है, वह ‘कथा का एक स्थिर पात्र या एकार्थी प्रतीक’ न होकर ‘ऊर्जा का एक विलक्षण संपुंज’ है. साही ने कहा है कि ‘पद्मावती जिंदगी का दर्शन नहीं, जिंदगी है. वह जायसी का तसव्वुफ नहीं, जायसी की कविता है.’
अलाउद्दीन खिलजी 1296 में सत्तासीन हुआ था. 28 जनवरी 1303 को उसने चित्तौड़ विजय के लिए प्रस्थान किया और 25 अगस्त 1303 को चित्तौड़गढ़ पर कब्जा किया. अलाउद्दीन खिलजी के साथ दुर्ग में फारसी-हिंदी कवि अमीर खुसरो ने भी प्रवेश किया था. खुसरो आठ सुल्तानों का शासन देख चुके थे.
उन्हें दिल्ली सल्तनत का आश्रय मिला था. चित्तौड़ के किले के टूटने और जौहर का उल्लेख जायसी ने ‘पद्मावत’ के अंत में इस दोहे से किया है- ‘जौहर भई इस्तिरी, पुरुख भये संग्राम/पात साहि गढ़ चूरा चितउर भा इसलाम.’ फारसी में जौहर का पहला उल्लेख 1301 में रणथंभौर का है, जहां स्त्रियां चिता पर जा बैठी थीं. जौहर के कारण ही रानी पद्मावती को देवी का दर्जा प्राप्त है और अब उन्हें कई लोग ‘राष्ट्रमाता’ के रूप में भी देख रहे हैं.
‘पद्मावत’ के पहले पद्मिनी या पद्मावती का कोई ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है. अमीर खुसरो के ‘तारीख-ए-अलाई’ या ‘खजायनुल फतूह’, जियाउद्दीन बरनी के ‘तारीख-ए-फीरोजशाही’ और अब्दुल्ला मलिक इसामी के ‘फतूहसलातीन’ में चित्तौड़-विजय का उल्लेख है, पर न तो पद्मिनी रानी का कोई जिक्र है और न आक्रमण के पीछे किसी रानी को प्राप्त करने की चाह है.
मोहम्मद हबीब तथा खालिक अहमद निजामी ने ‘दिल्ली सल्तनत’ में यह लिखा है कि अलाउद्दीन खिलजी के समकालीन किसी भी इतिहासकार ने चित्तौड़-विजय के समय पद्मिनी के विषय में कुछ भी नहीं लिखा है. ‘पद्मावत’ में राजा रत्नसेन के शव के साथ नागमती और पद्मावती के सती होने का उल्लेख है. महाकालेश्वर प्रसाद ने ‘जायसी कालीन भारत: 1450-1550’ (2017) में जायसी के जौहर-प्रसंग को ठीक ही ‘खजायनुल फतूह’ से लिया माना है, क्योंकि उसके पहले सती होने या जौहर-प्रसंग का कोई साक्ष्य नहीं मिलता. जायसी ने इतिहास से केवल रत्न सिंह का नाम लिया. शेष सब कुछ उनकी कल्पना की देन है.
इतिहास से कलाकृतियां जन्म लेती हैं, पर कलाकृति से इतिहास के जन्म लेने का बड़ा उदाहरण है ‘पद्मावत’. साही ने लिखा है ‘इतिहास ने कलाकृतियों को इतनी बार जन्म दिया कि यह मानने में विद्वानों को हिचक होती है कि सचमुच एक काव्य-कृति ऐसी है, जिसने अक्षरश: इतिहास को जन्म दिया. संसार के साहित्य में, कम ही सही, ऐसी कृतियां अवश्य हुई हैं, जिन्होंने इस प्रकार इतिहास का, विशेषत: जातीय इतिहास का निर्माण किया.’
जायसी के यहां पद्मिनी और पद्मावती एक नहीं है. ‘पद्मावत’ में राजा गंधर्वसेन की 16 हजार पद्मिनी रानियों का उल्लेख है, जिनमें चंपावती पटरानी थी. पद्मावती गंधर्वसेन और चंपावती की कन्या है. अबुल फजल के ‘आईन-ए-अकबरी’, अकबर के समकालीन इतिहासकार हज्जीउद्वीर के इतिहास ग्रंथ, मुहम्मद कासिम फरिश्ता के ‘तारीख-ए-फरिश्ता’ से लेकर बाद की कृतियों और इतिहास ग्रंथ ‘पद्मावत’ के बाद के हैं. जायसी के पूर्व पद्मावती और अलाउद्दीन की लोक कथा का कोई आधार नहीं है. लाेककथा के रूप में माता प्रसाद गुप्त ने गोरा-बादल की कथा जायसी-पूर्व मानी है, पर इसका आधार उन्होंने नहीं दिया है.
पद्मावती और गोरा-बादल की कथा कवि-कल्पित है. ‘राजस्थान के इतिहास-लेखन के पितामह’ कर्नल जेम्स टॉड (1782-1835) ने ‘एनल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान’ में चित्तौड़ पर अलाउद्दीन के आक्रमण का मुख्य उद्देश्य पद्मावती की प्राप्ति माना. उन्होंने जिन भाटों के आधार पर यह कथा प्राप्त की, उन भाटों ने पद्मिनी की कथा ‘पद्मावत’ से ली. राम्या श्रीनिवासन ने अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘दि मेनी लाइव्स ऑफ ए राजपूत क्वीन: हीरोइक पास्ट्स इन इंडियन हिस्ट्री 1500-1900’ (2007) में विस्तार से अपने अनुसार पद्मावती के नैरेटिव को बदलते जाने की चर्चा की है. उन्होंने पुस्तक के चार अध्यायों में पद्मिनी-कथा की रचना, उसके प्रचार-प्रसार, अर्थ श्रेणियों और श्रोता-पाठक की बात कही है.
प्रश्न रचना की पुनर्रचना का है, छवि-निर्मिति का है. साहित्य, इतिहास और फिल्म एक-दूसरे में घुलते-मिलते रहते हैं. लोक की रचना और उसके द्वारा की गयी पुनर्रचना के कई रूप हैं और निस्संदेह कई मकसद भी.