।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
हमारे देश में और हमारे समय में दो काल-चेतना एक साथ नदी के दो पाटों की तरह समानांतर, बिना एक दूसरे से मिले, प्रवाहित है. एक के अनुसार यह चैत मास है, दूसरी के अनुसार अप्रैल. वस्तुत: हमारे पास न अप्रैल रह गया है, और न चैत ही. कैलेंडर अप्रैल बताता है, पंचांग चैत मास. कैलेंडर के मुकाबले पंचांग इतना पिछड. गया है कि अब जनेऊ-शादी के निमंत्रण पत्रों में भी भारतीय सौर या चंद्र मास की तिथियां गायब हैं. सारी शानो-शौकत अब अप्रैल के पास है और सारी बदहाली चैत के हिस्से चली गयी. नया वित्त-वर्ष अप्रैल की पहली तारीख से शुरू होता है. पहली अप्रैल यानी मूर्ख दिवस. जिस संस्कृति में हम जी रहे हैं और जिसे अंगीकार कर रहे हैं, उसमें दूसरों को मूर्ख बनानेवाला ही जी पाता है. जो अपना खून-पसीना एक कर दूसरों को जीवन देता है, वह पिछडा है. नया वर्ष उसका भी चैत मास से शुरू होता है, मगर उसे मनाना अब सांप्रदायिकता के दायरे में आ जाता है. भारत ही नहीं, भारतीय संस्कृति से प्रभावित तमाम देशों में सांस्कृतिक मर्यादा को प्रतिष्ठापित करनेवाले भगवान राम भी अब सांप्रदायिक नजरिये से देखे जाने लगे हैं. मौजूदा अधम लोकतंत्र ने हमें इतना गिरा दिया है कि हम ‘रामायण’ यानी राम के मार्ग पर चलने योग्य नहीं रह गये हैं. उस मर्यादा पुरुषोत्तम ने भी इसी चैत मास में जन्म लिया था. कितना महत्वपूर्ण है चैत मास हमारे लिए, मगर यह कितना उपेक्षित है इन दिनों!
अप्रैल राजधानियों के ‘नागरिकों’ का महीना है. पूरी तरह वह भी नहीं, क्योंकि जिन देशों में अप्रैल वसंत का परिचायक है, वहां की सभ्यता में इसको साहित्य-संगीत-कला के मास के रूप में मनाया जाता है, बिल्कुल हमारे अतीत की तरह. वसंत यानी उल्लास, यौवन की उमंग. बहार यानी बाहर निकलने या बिना किसी ननु नच के, अपने अंतर्भावों को बाहर निकालने का मौसम. जीवन में कुछ कर गुजरने का जुनून पैदा करनेवाला मौसम. नाचने-गाने और हर चिंता को गुलाल की तरह उड.ा देने का मौसम. इसीलिए गीता में भगवान स्वयं को ऋतुओं में वसंत घोषित करते हैं- ‘ऋतूनां कुसुमाकर:’.
चैत वसंत ऋतु का उत्तर पक्ष है. इसके बाद ग्रीष्म आ धमकेगा. प्रकृति को पालनकत्र्री मां के बजाय दासी समझने की हमारी हिमाकत ने पर्यावरण को भी हिला दिया है. इसीलिए चैत मास में, जब खेतों में खड.ी फसलें खलिहान जाने को तैयार हैं, सावन-भादो की तरह बादल गरज रहे हैं, बरस रहे हैं. बिगड.ैल मनुष्यों के अत्याचारों से त्रस्त प्रकृति चैत मास में चैती गाने के बजाय कजरी गाने लगी है. ये बादल खेतों की पकी फसलें उजाड. देंगे और किसान खुद अनाज के लिए तरस जायेंगे. अनाज के एक दाने के समक्ष विश्व की कोई आर्थिक मुद्रा तुच्छ है. चैत मास उन ग्रामीण किसानों का मास है, जो हमारे अन्नदाता हैं. यदि वे अपना पेट काट कर सुविधाभोगी समाज को अनाज देना बंद कर दें, तो सारे मॉल, हब, मीडिया एक दिन में धूल चाटने लगें. ये सारा ताम-झाम, ऐशो-आराम, बौद्धिक विलासिता हम इसलिए कर पा रहे हैं कि हमारे हिस्से की कठोर तपस्या कोई और कर रहा है.
वैसे तो होली की शाम में फाग गानेवाले लोकगायक अपने गायन का समापन चैती से करते हैं, मगर फाग का खुमार बुढ.वामंगल तक रहता है, जो पिछले मंगलवार को संपन्न हुआ. इसके बाद तो खांटी चैती का गायन होता है. इस चैती की मारक क्षमता इतनी है कि इसे शास्त्रीय राग-रागिनियों में सम्मिलित कर लिया गया. बनारस के लोगों को गुलाम भारत के दिनों की वह चैत की शाम कभी नहीं भूलेगी, जब वहां के टाउनहाल में चैती गायन चल रहा था. उसी दिन बनारस के मोती सरदार को पुलिस ने गोली मार दी थी. उसकी प्रेमिका ने जब गाना शुरू किया:
एही ठैयां मोतिया हेराइल हो रामा, चैत महिनवा..
..तो उसकी पीडा साधारणीकृत होकर सार्वजनिक हो चुकी थी. वैसे भी बडा दर्द है चैती गीतों में. इन्हें वही गा सकता है, जिसने प्रेम किया हो, विरह में तिल-तिल जला हो. चैती विरही मानस की रागात्मक अभिव्यक्ति है. शास्त्रीय संगीत में भी चैती के पंख तभी खुलते हैं, जब साज में सारंगी हो. करुणा का एकल तंत्रवाद्य है सारंगी. वेला इसकी गहराई को छू नहीं सकती. खडी बोली के कवियों ने भी लोकभाषाओं से प्रेरणा लेकर चैती गीत लिखे हैं. एक ऐसा ही गीत याद आता है:
सांसों के गजरे कुम्हलाए, आप न आये।
यह अमराई कौन अगोरे, अब तो हुए हैं भार टिकोरे,
अंग-अंग महुआ गदराए, आप न आये।।
परदेस बसे प्रेमी के लिए ‘तुम’ की जगह ‘आप’ के प्रयोग में प्रेमिका का आक्रोश किस खूबसूरती से अभिव्यंजित होता है, जरा गौर कीजिए.
हम जिस अमेरिका के चरण-रज को सिर पर रख कर कृतार्थ होते हैं, वहां चैत मास नहीं है, मगर अप्रैल को ‘राष्ट्रीय कविता मास’ के रूप में मनाने की परंपरा है. पूरे मास विभिन्न प्रकार के समारोह आयोजित होते हैं, जिनमें सरकारी, गैर-सरकारी, स्वैच्छिक संस्थाओं के अलावा शैक्षिक संस्थाएं, प्रकाशक, कला संस्थान और प्रायोजक बढ.-चढ. कर भाग लेते हैं. इनमें कवियों, शिक्षकों और पुस्तक विक्रेताओं की सक्रिय भागीदारी होती है. इस मास के दौरान अमेरिकी कवियों की उपलब्धियों को रेखांकित किया जाता है, नागरिकों को कविता का रस लेने के लिए उन्हें कवि और कविता के सान्निध्य में लाया जाता है. स्कूल के पाठ्यक्रमों में कविता को प्रमुख स्थान दिया जाता है. मीडिया को कविता की ओर विशेष रूप से आकृष्ट किया जाता है. काव्य संग्रहों के प्रकाशन, वितरण और विक्रय पर जोर दिया जाता है और कवि को हर दृष्टि से समाज में सम्मानपूर्ण जीवन जीने में सहयोग दिया जाता है.
इस दृष्टि से जरा हम अपने गिरेबान में झांक कर देखें. भौगोलिक और भौतिक दृष्टि से अमेरिका हमसे बहुत बड.ा है, मगर वहां के राष्ट्रपति भवन में नियमित रूप से कविगोष्ठी आयोजित की जाती है. हमारे राष्ट्रपति भवन में राजेंद्र बाबू के समय ऐसी गोष्ठियां होती थीं. यूजीसी की नजर में कवियों को शिक्षा संस्थानों तक पहुंचा कर छात्र-छात्रओं को अपने समय के कवियों से जोड.ने का कोई महतत्व ही नहीं है. प्रसार भारती बनने के बाद आकाशवाणी और दूरदर्शन पंसारी की दूकान हो गये हैं. वहां कवियों की परवरिश का कोई औचित्य ही नहीं है. प्राइवेट चैनल वाले चुटकुलों को ही कविता मनवाने पर आमादा हैं. भारत सरकार भाषा-साहित्य के प्रति वही उदासीन सौतेला रवैया अपनाये हुए हैं, जैसे आजादी से पहले ब्रिटिश हुकूमत अपनाये हुए थी.