36.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Trending Tags:

Advertisement

वह समाज, जहां कैद है बचपन

अरविंद दास पत्रकार एवं लेखक पिछले दशकों में बिहार और उत्तर प्रदेश के छोटे शहरों-कस्बों से बॉलीवुड पहुंची प्रतिभाओं ने हिंदी सिनेमा में एक नया और अलहदा रंग भरा है. हिंदी क्षेत्र में आर्थिक विपन्नता भले हो, सांस्कृतिक रूप से यह इलाका समृद्ध रहा है, जिसकी छाप फिल्मकारों के निर्माण-निर्देशन, गीत-संगीत के प्रति इनकी सूझ-बूझ […]

अरविंद दास
पत्रकार एवं लेखक
पिछले दशकों में बिहार और उत्तर प्रदेश के छोटे शहरों-कस्बों से बॉलीवुड पहुंची प्रतिभाओं ने हिंदी सिनेमा में एक नया और अलहदा रंग भरा है. हिंदी क्षेत्र में आर्थिक विपन्नता भले हो, सांस्कृतिक रूप से यह इलाका समृद्ध रहा है, जिसकी छाप फिल्मकारों के निर्माण-निर्देशन, गीत-संगीत के प्रति इनकी सूझ-बूझ में दिखती है.
निर्माता-निर्देशक ब्रह्मानंद एस सिंह की इस महीने रिलीज होनेवाली ‘झलकी’ ऐसी ही एक फीचर फिल्म है, जिसकी सोशल मीडिया पर खूब चर्चा हो रही है. विभिन्न फिल्म समारोहों में भी इस फिल्म ने लोगों का ध्यान खींचा है.
बिहार के पूर्णिया में पले-बढ़े ब्रह्मानंद सिंह एक ख्यात डाॅक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता-निर्देशक हैं. संगीतकार आरडी बर्मन और जगजीत सिंह के ऊपर बनायी डाक्यूमेंट्री- ‘पंचम अनमिक्स्ड: मुझे चलते जाना है’ और ‘कागज की कश्ती’ को राष्ट्रीय पुरस्कार समेत कई सम्मानों से नवाजा गया है. इन आत्मकथात्मक वृतांतों में फिल्मकार की विषय वस्तु की गहरी समझ और तरल संवदेनशीलता दिखायी पड़ती है.
दरअसल, सिंह ने अपनी फिल्म निर्माण की शुरुआत वर्ष 1997 में ध्रुपद की सिद्ध गायिका असगरी बाई के ऊपर बनायी वृत्तचित्र से ही की थी. उल्लेखनीय है कि सहरसा-पूर्णिया इलाके में संगीत की समृद्ध परंपरा रही है, जो एक विरासत के रूप में ब्रह्मानंद सिंह की फिल्मों में दिखायी देती है.
‘झलकी’ फिल्म में भी ब्रह्मानंद सिंह का लोक और संगीत के प्रति प्रेम दिखायी पड़ता है, जबकि यह फिल्म भारतीय समाज में घृणित बाल मजदूरी और तस्करी की समस्या को हमारे सामने लेकर आती है. कालीन बुनाई उद्योग की पृष्ठभूमि में इस फिल्म का कथानक बुना गया है.
फिल्म में बिहार और उत्तर प्रदेश में प्रचलित इस लोकगीत का निर्देशक ने बखूबी इस्तेमाल किया है- बढ़ई-बढ़ई खूंटा चीर/ खूंटा में मोर दाल है/ का खायीं का पीं/ का ले परदेस जायीं… असल में इस फिल्म का कथा का सूत्र भी यही है- ‘एक बार एगो खजन चिरइया एगो दाना लिये फुर्र से चलल जात रहल’. चिड़िया की यात्रा, उसका संघर्ष और जिजीविषा इस फिल्म में बाबू और उसकी बहन झलकी के संघर्ष के रूप में मिलता है.
नौ वर्ष की झलकी अपने सात वर्षीय भाई बाबू की खोज में निकल पड़ती है, जो बाल मजदूरी के शोषण और उत्पीड़न की अंधेरी खोह में फंसा पड़ा है. अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संगठन (आइएलओ) के मुताबिक दुनियाभर में करीब 15 करोड़ बच्चे बतौर बाल मजूदर काम कर रहे हैं, वहीं साल 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में एक करोड़ से ज्यादा बच्चे बाल मजदूरी में झोंक दिये गये हैं.
डॉक्यूमेंट्री फिल्मों को एक बड़ा दर्शक वर्ग नहीं मिल पाता, न कहीं इनकी व्यापक चर्चा ही होती है. डॉक्यूमेंट्री फिल्मों से फीचर फिल्मों की अपनी यात्रा के संबंध में ब्रह्मानंद सिंह कहते हैं: ‘सिनेमा एक सशक्त माध्यम है. इसकी पहुंच बहुत दूर तक है, जो डॉक्यूमेंट्री के साथ संभव नहीं.
इस तरह की फिल्म बनाने का उद्देश्य समाज के लिए कुछ योगदान करना है, सिर्फ अवॉर्ड लेना या वाहवाही लूटना मकसद नहीं है.’ बाल मजदूरी और तस्करी हमारे समाज का एक ऐसा सच है, जिसे लेकर जागरूकता फैलाने की जरूरत है. नोबेल पुरस्कार से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता कैलाश सत्यार्थी के ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की छाप इस फिल्म पर दिखायी देती है.
फिल्म के आखिर में सत्यार्थी गरीबी, अशिक्षा का बाल मजदूरी और तस्करी के साथ संबंधों की व्याख्या करते हैं. चर्चित अभिनेता बोमन ईरानी का चरित्र सत्यार्थी से प्रेरित है, साथ ही गोविंद नामदेव, दिव्या दत्ता, संजय सूरी जैसे मंझे अभिनेता भी इस फिल्म का हिस्सा हैं.
फिल्मकार ब्रह्मानंद सिंह ‘सिनेमा फॉर चेंज’ की बात करते हैं. सही भी है, सिनेमा सामाजिक बदलाव का एक सशक्त माध्यम बनकर उभरे, इससे बेहतर और बात क्या हो सकती है.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें