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अब बढ़ जायेगी विरोधी दलों की चिंता

!!मनीषा प्रियम , राजनीतिक विश्लेषक!! उत्तर प्रदेश में मंडल के उत्तरकाल की राजनीति का कमल अब खिल गया है. इस बड़े राज्य में सन 1966-67 में ही कांग्रेस-विरोध की राजनीति शुरू हो गयी थी, जिसमें जनसंघ और समाजवादियों की बराबर की भागीदारी थी. इसके बाद भी जनता पार्टी और जनता दल में यह भागीदारी बरकरार […]

!!मनीषा प्रियम , राजनीतिक विश्लेषक!!

उत्तर प्रदेश में मंडल के उत्तरकाल की राजनीति का कमल अब खिल गया है. इस बड़े राज्य में सन 1966-67 में ही कांग्रेस-विरोध की राजनीति शुरू हो गयी थी, जिसमें जनसंघ और समाजवादियों की बराबर की भागीदारी थी. इसके बाद भी जनता पार्टी और जनता दल में यह भागीदारी बरकरार रही. वीपी सिंह के मंडल के फरमान के बाद ही वहां कमंडल और कमल की राजनीति एक अलग ध्रुव पर शुरू हुई. लगभग 27 वर्ष के बाद अंतत: जनसंघ ने समाजवादियों का, मंडल का, और दलित राजनीति का एक साथ ही सफाया कर दिया. जहां की मंडल की राजनीति में समाजवादियों और कांशीराम दोनों का हिस्सा रहा, वहीं जनसंघ अपनेआप को राम जन्मभूमि और हिंदुत्व की राजनीति बरकरार रही. नतीजा यह हुआ कि बीते 25 वर्षों में उत्तर प्रदेश में सत्ता की भागीदारी मुलायम और मायावती के बीच ही रही. लेकिन, अब भाजपा ने 403 सीटों में 300 से ज्यादा सीटों पर जीत दर्ज कर इतिहास ही रच दिया है.

भारत की राष्ट्रीय राजनीति के लिए, उत्तर प्रदेश की राजनीति के लिए और विभिन्न राज्यों की राजनीति के लिए क्या मतलब निकालें इस जनादेश का? जहां तक यूपी की राजनीति का सवाल है, सबसे प्रमुख संदेश यह है कि समाजवादी और बहुजन समाजवादी दोनों ही किन्हीं चयनित जातियों के पक्षधर रहे. जबकि भाजपा ने विकास और भ्रष्टाचार को खत्म करने की बात की. मोदी जी ने अपनी चुनावी रैली में एक भ्रष्ट अधिकारी का नाम लेते हुए, जिसने सपा और बसपा दोनों को फायदा पहुंचाया था, बसपा पर बहनजी संपत्ति पार्टी का आरोप ही जड़ दिया.

जहां तक अखिलेश का सवाल है, भाजपा की उन पर पिछले पांच वर्षों के कार्यकाल में कोई सरकारी भ्रष्टाचार का मामला तो नहीं आया, लेकिन वह विकास के नाम पर ऐसा कुछ भी नहीं कर पाये हैं, जिससे उन्हें नीतीश कुमार का दर्जा दे दिया जाये. इसका नतीजा यह है कि उत्तर प्रदेश की सड़कें, बिजली की कमी और स्कूलों की दुर्दशा बिहार की तुलना में कहीं ज्यादा बदतर है. आखिर जनता इन तथ्यों से अनभिज्ञ नहीं है. आम जनमत यह था कि उत्तर प्रदेश को विकास की आवश्यकता है. नरेंद्र मोदी ने एक रैली में कहा था कि उत्तर प्रदेश में विकासवाद के बनवास को खत्म किया जाये. नतीजा यह हुआ कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही विकास ही प्रचार का आधार बना. बुंदेलखंड में भी भारतीय जनता पार्टी ने अपनी अच्छी पैठ बनायी. और जो इलाके मुलायम के गढ़ माने जाते हैं, वहां भी भाजपा की बहुत बढ़त मिली और पूर्वांचल तो मंदिर लहर में ओतप्रोत ही था. यही सब भाजपा की जीत के आधार बने.

कुल मिला कर, उत्तर प्रदेश की जिस राजनीति को अभी तक क्षेत्रीय दायरों में बंटा हुआ देखा जाता था, इस चुनाव में उन सभी क्षेत्रों को विकास के नजरिये से ही देखा गया. विकास के साथ भाजपा ने बखूबी इसे हिंदुत्व का भी अमलीजामा पहनाया. कहीं तो यह कहा कि बिजली के आवंटन में भी धर्म के आधार पर पक्षपात किया जाता है, वहीं श्मशान और कब्रिस्तान में सरकारी पक्षपात का ब्योरा दिया गया. यानी कि धर्म के आधार पर छींटाकसी और राजनीतिक बोल-बयानी का तरीका इस पूरे चुनाव में बना रहा. इन सब तथ्यों के आधार पर देखें, तो भाजपा का पक्ष मजबूत होता चला गया और वह जीत हासिल करने में ऐतिहासिक रूप से कामयाब हो पायी.

अब राज्यों की इस वर्तमान राजनीतिक स्थिति का राष्ट्रीय राजनीति पर जो असर पड़ता है, वह यह है कि क्षेत्रीय दल अब अपना पांव जमाने में कठिनाई महसूस करेंगे. अपने लिए राजनीतिक काम के लिए धन इकट्ठा करना भी उन्हें मुश्किल होगा और मतदाता भी अब सक्षम विकास के लिए राष्ट्रीय दलों के साथ ही जायेंगे. ऐसे में भाजपा की कोई राष्ट्रीय विरोधी दल ही नजर नहीं आता है. कुल मिला कर अब विरोधी दलों की चिंता का विषय यह है कि वे विरोध करें, तो कैसे करें. कांग्रेस डगमगा सी गयी है और क्षेत्रीय दलों का एकजुट होकर भाजपा को टक्कर दे सकना अब संभव नहीं दिखता है. ऐसे में आनेवाले दिनों में भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि नरेंद्र मोदी अपने वायदों पर कितने खरे उतरते हैं और सर्वजन हिताय की संकल्पना कैसे फलीभूत होती है.

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