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वर्ष 2016 : विवादों के कारण चर्चा में रहा HRD मंत्रालय, शिक्षा के क्षेत्र में बड़े बदलाव का इंतजार

नयी दिल्ली : आर्थिक मोर्चे पर नरेंद्र मोदी सरकार को कई कामयाबी हासिल हुई. केंद्र सरकार ने लंबे समय से अटके जीएसटी बिल को पारित किया. कई अन्य बिल लाये गये जिनसे देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलने की संभावना है लेकिन साल 2016 में शिक्षा के क्षेत्र में सरकार कोई बड़ा आमूलचूल परिवर्तन नहीं […]

नयी दिल्ली : आर्थिक मोर्चे पर नरेंद्र मोदी सरकार को कई कामयाबी हासिल हुई. केंद्र सरकार ने लंबे समय से अटके जीएसटी बिल को पारित किया. कई अन्य बिल लाये गये जिनसे देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलने की संभावना है लेकिन साल 2016 में शिक्षा के क्षेत्र में सरकार कोई बड़ा आमूलचूल परिवर्तन नहीं कर पायी. मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने कई ऐसे फैसले लिये जिससे विवाद उत्पन्न हो गया.

दुनिया के परिदृश्य में भारत में जिस रफ्तार से आर्थिक प्रगति हो रही है, उस अनुपात में शिक्षा के मामले में देश में अपेक्षित प्रगति देश की आजादी के 70 वर्ष बाद भी हासिल नहीं की जा सकी हैं. इस तथ्य के बीच मानव संसाधन विकास मंत्रालय से स्मृति ईरानी को हटाया जाना, करीब 30 वर्ष बाद नई शिक्षा नीति की दिशा में पहल और 10वीं बोर्ड परीक्षा को 2017-18 सत्र से अनिवार्य बनाने दिशा में कदम साल की बडी घटनाएं रही.

हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या से जुडे घटनाक्रम, जेएनयू छात्र संघ के तत्कालीन अध्यक्ष कन्हैया कुमार से जुडे घटनाक्रम एवं कुछ संस्थाओं से जुडे मामले में विवादों में रही स्मृति ईरानी का मंत्रालय मंत्रिमंडल फेरबदल में बदल दिया गया और उन्हें कपडा मंत्रालय का दायित्व सौंपा गया. केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के कार्यकाल में ही 30 वर्ष बाद नई शिक्षा नीति तैयार करने की पहल को आगे बढाया गया था. इस संबंध में सुब्रमण्यम समिति ने मंत्रालय को अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी.

30 वर्ष बनी थी शिक्षा नीति लेकिन नहीं हो पायी सार्वजनिक

इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने के बारे में विवाद उत्पन्न हुआ. सरकार ने एक प्रबुद्ध शिक्षाविद के नेतृत्व में एक समिति गठित करने की बात कही है और इस बारे में कुछ नामों पर चर्चा कर रही है. समिति में अन्य क्षेत्रों के विशेषज्ञ भी लिये जा सकते हैं. नई शिक्षा नीति को लेकर सभी पक्षों और अंशधारकों से सुझाव प्राप्त हुए हैं और इनका मूल्यांकन किया जा रहा है. मानव संसाधन विकास मंत्रालय शिक्षा का अधिकार अधिनियम में संशोधन पर काम कर रहा है और इस बारे में एक प्रस्ताव को विधि मंत्रालय ने मंजूरी प्रदान कर दी है और अब इसे कैबिनेट के समक्ष रखा जायेगा. सीबीएसई बोर्ड की बैठक में दसवीं बोर्ड परीक्षा को अनिवार्य बनाने के प्रस्ताव को भी मंजूरी दे दी गई. मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा ने ‘ से कहा, ‘‘ 2017-18 शैक्षणिक सत्र से सभी छात्रों के लिए बोर्ड परीक्षा अनिवार्य बनाने का मार्ग प्रशस्त हो गया है. ‘

दुनिया भर में छात्र कैसे सीखते हैं.यह एक बडा विषय है. शिक्षक ब्लैकबोर्ड पर चॉक से लिखते हैं, लेकिन इसके बावजूद कक्षाओं में स्थान के साथ अंतर दिखता है. कुछ जगह नन्हे छात्र बाहर कामचलाउ बेंचों पर बैठते हैं, तो कहीं जमीन पर पद्मासन की मुद्रा में और कुछ ऐसे स्थान हैं जहां लैपटॉप के सामने बच्चे पढते हैं. दुनिया के शीर्ष 100 उच्च शैक्षणिक संस्थाओं में भारत के शीर्ष कालेजों एवं विश्वविद्यालयों का स्थान नहीं होने का मुद्दा कई वर्षों से चिंता के विषयों में शामिल रहा है. सरकार ने इसे प्राथमिकता का विषय बताया है.

इस दिशा में उच्च शिक्षण संस्थाओं की देशी रैंकिंग पेश करने की भी पहल की गई है. एसोसिएटेड चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्टरी (एसोचैम) की ताजा रिपोर्ट में देश की शिक्षा व्यवस्था में प्रभावशाली बदलाव करने का आह्वान किया गया है. रिपोर्ट में कहा गया कि भारत ने भले ही बडी तेजी से तरक्की की हो, लेकिन शिक्षा के मानकों के बीच का बडा अंतर जल्द नहीं पाटा जा सकता, क्योंकि विकसित देशों ने शिक्षा पर किए जा रहे खर्च की रफ्तार में कोई कमी नहीं की है.

दूसरे देशों के मुकाबले शिक्षा के क्षेत्र में खर्च कम

रिपोर्ट में कहा गया कि भारत शिक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का महज 3.83 फीसदी हिस्सा खर्च करता है और इतनी सी रकम विकसित देशों की बराबरी करने के लिए पर्याप्त नहीं है. रिपोर्ट में दावा किया गया है कि यदि हमने अपनी शिक्षा व्यवस्था में प्रभावशाली बदलाव नहीं किए तो विकसित देशों की बराबरी करने में छह पीढियां या 126 साल लग जाएंगे। अमेरिका शिक्षा पर अपनी जीडीपी का 5.22 फीसदी, जर्मनी 4.95 फीसदी और ब्रिटेन 5.72 फीसदी खर्च करता है.इ स वर्ष के शिक्षा बजट को जिन दो शब्दों ने परिभाषित किया, वे शब्द हैं – ‘स्किल और रिसर्च’. चालू वर्ष के बजट में दस सरकारी और दस निजी शिक्षण संस्थानों को विश्व स्तरीय बनाये जाने, हायर एजुकेशन फाइनेंसिंग एजेंसी गठित करने और नये नवोदय विद्यालय स्थापित करने का प्रस्ताव भी किया गया है.

स्कूलों में शिक्षकों की कमी और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा इस साल भी बडी चुनौती बनी रही. शिक्षकों की प्राथमिक जिम्मेवारी है बच्चों को पढाना. लेकिन, स्कूलों के प्रबंधन और कई तरह के गैर-शैक्षणिक कार्यो में भी शिक्षकों को लगाना एक परिपाटी बन गयी है. यह समस्या सरकारी स्कूलों में सरकारी कामकाज तक सीमित है बल्कि निजी और अर्द्ध-सरकारी विद्यालयों में बडे पैमाने पर दूसरे रुपों में भी विद्यमान हैं. निजी स्कूलों शिक्षकों को पढाने के अलावा बच्चों को घर तक छोडने जाना, नामांकन के लिए अभिभावकों से मिलना और उनके सवालों के उत्तर देने के कार्य करने होते हैं जबकि सरकारी स्कूलों में आज भी जनगणना, चुनाव, पोलियो ड्राप पिलाने, पोशाक एवं छात्रवृति वितरण जैसे कार्यो में लगाना जा रहा है.

अब भी 61 लाख बच्चे शिक्षा से दूर

केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने इस साल भी निर्देश जारी कर संबद्ध विद्यालयों को कहा है कि वे शिक्षकों पर ऐसे कार्यों का बोझ नहीं डालें, जो शिक्षा से जुड़े हुए नहीं हैं. देश में 61 लाख ऐसे बच्चे हैं जो स्कूली शिक्षा के दायरे से बाहर हैं खासतौर पर बालिका शिक्षा की स्थिति चिंताजनक है. सैम्पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम बेसलाइन सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार 15 से 17 साल की लगभग 16 प्रतिशत लडकियां स्कूल बीच में ही छोड़ देती हैं.

शिक्षा को लेकर सरकार के प्रयासों और अभियानों से शिक्षा की स्थिति में सुधार आया है. खासतौर पर सर्व शिक्षा अभियान के माध्यम से स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या बढी है. शिक्षा के अधिकार का कानून लागू करने के बाद प्राथमिक शिक्षा के लिए होने वाले नामांकनों में वृद्धि दर्ज की गयी है. इसके अलावा स्कूल नहीं जाने वाले बच्चों की संख्या में भी लगातार गिरावट आ रही है.

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