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सूचना आयोग के 60 फीसदी आदेशों में तथ्य नहीं दिए जाते: अध्ययन

नयी दिल्ली : केंद्रीय सूचना आयोग के आयुक्तों द्वारा दिए जाने वाले 60 फीसदी से अधिक आदेशों में संबंधित मामलों के बारे में महत्वपूर्ण तथ्यों को रिकॉर्ड नहीं किया जाता जो उच्चतम न्यायालय के आदेशों का उल्लंघन है. एक अध्ययन में यह बात की गई है. सीआईसी और बिहार, असम एवं राजस्थान के राज्य सूचना […]

नयी दिल्ली : केंद्रीय सूचना आयोग के आयुक्तों द्वारा दिए जाने वाले 60 फीसदी से अधिक आदेशों में संबंधित मामलों के बारे में महत्वपूर्ण तथ्यों को रिकॉर्ड नहीं किया जाता जो उच्चतम न्यायालय के आदेशों का उल्लंघन है. एक अध्ययन में यह बात की गई है. सीआईसी और बिहार, असम एवं राजस्थान के राज्य सूचना आयोगों के 2,000 आदेशों का अध्ययन करने से पता चलता है कि 60 फीसदी से अधिक आदेशों में महत्वपूर्ण तथ्यों को रिकॉर्ड करने के संदर्भ में खामियां हैं.

पारदर्शिता की पैरोकार समूहों ‘रिसर्च, एसेसमेंट एंड एनालिसिस ग्रुप’ (राग) और ‘सतर्क नागरिक संगठन’ (एसएनएस) की ओर से यह अध्ययन किया गया है. अध्ययन में कहा गया है, ‘‘सूचना आयुक्तों की ओर से कारण बताते हुए आदेश पारित नहीं करना कई वजहों से समस्या का मामला है. पहली बात यह है कि सूचना मांगने वाला, सार्वजनिक प्राधिकार और संबंधित लोगों के पास निर्णयों के औचित्य का पता करने का रास्ता नहीं रह जाता.
” इसमें आगे कहा गया, ‘‘दूसरी बात यह कि सूचना आयुक्तों के आदेशों को अक्सर अदालतों में चुनौती दी जाती है. वैधानिकता, निष्पक्षता और तार्किकता की परख उस वक्त काफी मुश्किल हो जाती है जब आदेश में कारण नहीं होते है और इनमें जरुरी सूचना का अभाव होता है.” सूचना के अधिकार कानून के अमल में आने के 11 वर्ष पूरा होने के मौके पर ‘नेशनल कैम्पेन फॉर पीपुल्स राइट टू इंनफॉरमेशन’ की ओर से आयोजित एक बैठक में इन तथ्यों पर पर चर्चा हुई.
मामलों के लंबित होने के संदर्भ में इस अध्ययन में यह भी कहा गया है कि अगर आज कोई अपील या शिकायत की जाए तो असम राज्य सूचना आयोग को इस पर सुनवाई में कम से कम 30 वर्ष लग जायेंगे। जनवरी, 2014 में प्रतीक्षा की अवधि दो साल थी.

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