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युवा भारत का दर्शन!

-हरिवंश- श्री रणछोड़ प्रसाद स्मृति व्याख्यान के तहत हम यहां एकत्र हैं. उनके बारे में पढ़ा-जाना, तो मन में एक सवाल उठा. ‘आज की युवा पीढ़ी में रणछोड़ प्रसाद होने की संभावना?’ पहले उनके बारे में जान लें. संक्षेप में. खगड़िया के सहौली गांव में 1911 में वह जन्मे. गांव के स्कूल से पढ़े. पटना […]

-हरिवंश-

श्री रणछोड़ प्रसाद स्मृति व्याख्यान के तहत हम यहां एकत्र हैं. उनके बारे में पढ़ा-जाना, तो मन में एक सवाल उठा. ‘आज की युवा पीढ़ी में रणछोड़ प्रसाद होने की संभावना?’ पहले उनके बारे में जान लें. संक्षेप में. खगड़िया के सहौली गांव में 1911 में वह जन्मे. गांव के स्कूल से पढ़े. पटना कॉलेज गये. इतिहास के विद्यार्थी रहे. अर्थशास्त्र, संस्कृत और दर्शनशास्त्र में भी रुचि रही. 1933 में एमए किया. पहला स्थान पाकर. 1937 में मुंगेर में डिप्टी कलक्टर बने. वहां स्वामी सहजानंद की रहनुमाई में किसान आंदोलन चल रहा था. श्री प्रसाद दक्षिण मुंगेर के बड़े हिस्से में घूमे. सघन यात्रा.

तब आना-जाना बड़ा कठिन था. फिर भूमि-कर नीति में संशोधन का मार्ग प्रशस्त किया. शांतिपूर्ण तरीके से स्थिति संभाली. कुछ समय बाद वह संथाल-परगना और सिंहभूम में फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट बने. इन इलाकों को समझने के लिए उन्होंने संथाली और ‘हो’भाषा सीखी. 1943-44 में रांची नगर निगम को बेहतर बनाया. 1950 में गृह मंत्रालय दिल्ली गये. 1953 में बिहार सरकार के विकास सचिव बने. उद्योग, पशुपालन, कृषि और मूल उद्योगों के विकास के लिए काम किया. कृषि कॉलेज बनवाये. वेटनरी और कृषि अनुसंधान केंद्र खुले. औद्योगिक, वित्त और लघु उद्योग निगम की स्थापना हुई. उसी दौर में बोकारो में स्टील फैक्टरी, रांची में हेवी इंजीनियरिंग कारपोरेशन (एचइसी), बरौनी में ऑयल रिफाइनरी और सिंदरी में फर्टिलाइजर कारखाने स्थापित हुए. तत्कालीन बिहार के इस बहुआयामी विकास का श्रेय उन्हें भी है.

1958 में फिर वह दिल्ली गये. उन्हें लालबहादुर शास्त्री के साथ भी काम करने का मौका मिला. 1966 में वापस बिहार आये. विकास आयुक्त का काम संभाला. उन दिनों सूखे की स्थिति गंभीर थी. केंद्र सरकार, जेपी व अन्य संस्थाओं से मिल कर उन्होंने उल्लेखनीय काम किया. 1969 में सेवानिवृत्त हुए, पर अनेक महत्वपूर्ण सरकारी संस्थाओं की जिम्मेदारी उन्हें मिली. 1981 तक वह सरकारी संस्थाओं से जुड़े रहे. सही शिक्षा वह जरूरी मानते थे. नैतिक मूल्यों के आग्रही, बढ़ते भ्रष्टाचार से चिंतित, राजनीति में गलत तत्वों के प्रवेश से चिंतित, सादगी, ईमानदारी और पूरी निष्ठा से काम करनेवालों में वह मिसाल बने.

संक्षेप में यह उनका जीवन है. अनेक खूबियों-उपलब्धियों से भरा. संथाली और हो भाषा सीखनेवाले अफसर, ताकि आदिवासियों को सही ढंग से समझ और जान सकें. आज कितने नौकरशाहों में यह परंपरा शेष रह गयी है? अंग्रेजों के समय में जार्ज ग्रियर्सन व अन्य आइसीएस अफसरों ने स्थानीय भाषाएं सीखीं. देशज भाषाओं में अमर ग्रंथों की रचना की. स्थानीय रीति-रिवाज को समझा. बिहार में अनेक संस्थाओं की नींव डालनेवाले श्री प्रसाद इंस्टीट्यूशन बिल्डर (संस्थाओं के निर्माता) रहे. अंतत: दुनिया में वही समाज, देश कामयाब होते हैं, जहां संस्थाएं बहुत मजबूत, ताकतवर और श्रेष्ठ होती हैं. पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने शिक्षाविदों की एक कांफ्रेंस में कहा कि दुनिया की 200 सर्वश्रेष्ठ शैक्षणिक संस्थाओं में से भारत में एक भी संस्था नहीं है. आज अमेरिका की ताकत वहां की संस्थाएं हैं.

चीन भी ऐसे सेंटर आफ एक्सीलेंस (सर्वश्रेष्ठ संस्थाएं) बना रहा है. आज के 50-60 साल पहले बिहार में संस्थाओं की नींव डालने का यह काम, जिन लोगों ने किया, उनमें रणछोड़ बाबू अग्रणी रहे. जीवन में सफल होने के बाद भी सादगी, ईमानदारी और शुचिता के वह आग्रही रहे. आज समाज में चरित्र गढ़ने की बात कहीं सुनायी देती है? सही शिक्षा पर कहीं जोर है? 50-60 वर्षों पहले, जब हालात इतने बिगड़े नहीं थे, तब कम लोग बढ़ते भ्रष्टाचार और राजनीति में गलत तत्वों के प्रवेश से चिंतित थे. श्री प्रसाद उन लोगों में से थे. नरसिंह राव के कार्यकाल में आतंकवादी विस्फोट के बाद एक जांच समिति बनी. तत्कालीन गृह सचिव एनएन बोरा के नेतृत्व में. उस समिति ने पुष्ट कर दिया कि भारत कैसे अनैतिक नेताओं, अपराधियों, भ्रष्ट पैसेवालों की गिरफ्त में फंस गया है.

श्री प्रसाद ने फिसलते भारत के बारे में यह चिंता दो-ढाई दशक पहले की थी. क्या आज गांव से निकल कर कोई छात्र (अपवाद छोड़ दें) ऐसा सजग बन सकता है? आज की युवा पीढ़ी में रणछोड़ प्रसाद होने की क्या संभावना है? यह बात कहते हुए मुझे एक प्रसंग याद आ रहा है. गांधी-लोहिया संवाद के अंश. लोहिया जी अनेक निजी बातें गांधी जी को बता रहे थे. गांधी जी की पहल पर. सिगरेट पीने की भी बात उठी. गांधी जी ने खूबसूरती से एक -एक चीज कही. कहा, लोहिया तुम बहुत प्रतिभाशाली हो, पर क्या फर्क पड़ता है. दुनिया में तुम से भी बहुत प्रतिभाशाली हैं… ऐसी अनेक चीजें कहने के बाद उन्होंने कहा, फर्क सिर्फ एक चीज से पड़ता है. चरित्र से. तुम कहते क्या हो और जीते कैसे हो, इससे यानी कथनी-करनी, साधन-साध्य के तौर-तरीके से.

रणछोड़ प्रसाद जैसे लोग उसी आबोहवा-माहौल की उपज थे. अब्राहम लिंकन का एक बड़ा मशहूर पत्र है. उस स्कूल टीचर के नाम, जहां उनका बेटा पढ़ता था. अद्भुत पत्र है. हर घर में पढ़े-रखे जाने योग्य. उसके दो-तीन संदेश याद हैं. पहला, स्कूल के अध्यापक से यह आग्रह कि हमारे बच्चे को प्रकृति से जुड़ कर जीने का मर्म समझायें. रात में वह आकाश देखे. तारे देखे. समुद्र और पहाड़ देखे. जंगल को जाने. नदी की लहरों का स्वर सुने-समझे. आत्मा का संगीत और आवाज समझे. यह आग्रह भी कि उसका कन्विक्शन (विचारों के प्रति दृढ़ता) इतना मजबूत हो कि दुनिया एक तरफ रहे, तो वह अकेले अपनी टेक पर खड़ा रहे.

अंत में यह अनुरोध कि आप वह शिक्षा दें कि नौकरी के बाजार में सबसे अधिक धन (वेतन वगैरह) देनेवालों के यहां वह अपना दिमाग तो गिरवी रखे, पर अपनी आत्मा (सोल) नहीं. गांधी युग में अनेक चरित्र गिना सकता हूं, जिन्होंने ऐसा जीवन जिया. अपढ़ होकर भी. रणछोड़ बाबू उसी दौर के व्यक्ति थे. आज के युवा नौकरशाहों में एक भी रणछोड़ प्रसाद दिखा दीजिए या ऐसे लोगों के होने की संभावना आंक लीजिए. चिराग ले कर ढूंढ़ना पड़ेगा, तब भी शायद ऐसे लोग न मिलें?

क्यों यह संकट है?

यह मास प्रोडक्शन का दौर है. जीवन में एक्सीलेंस की भूख नहीं रही. भोग, आराम, सुख ही जीवन के आदर्श बन गये हैं. प्रोफेसर श्रीश चौधरी, आइआइटी चेन्नई में प्रोफेसर हैं. अत्यंत दृष्टिवान और चिंतक. उनका एक हाल का व्याख्यान पढ़ा था. उससे कुछ चीजें उद्धृत करना चाहूंगा- ‘हर साल हम 39 लाख कारें बना रहे हैं. 92 करोड़ 90 लाख मोबाइल फोन हैंडसेट. हर साल दो लाख एमबीए, 55 हजार बीटेक. ये सब एक जैसे कपड़े पहनते हैं.

एक जैसे काम करते हैं. सामान्य लाइफस्टाइल. सामान्य लक्ष्य. सामान्य क्रियेटीविटी. सामान्य आइपॉड. वे भी कोलावेरी-डी के गाने गाते हैं. उनका सोना-जगना एक समय होता है. रात में दो बजे या उसके बाद सोना. सुबह आठ बजे के बाद बिस्तर छोड़ना. रविवार को 12 बजे दिन में. उन्होंने सिर्फ वर्चुअल सनराइज (अवास्तविक सूर्योदय) ही देखा है. उनका सोशल नेटवर्क, चैटिंग साइट्स तक ही सिमटा है. वे बहुत कमा रहे हैं. बहुत खुश हैं. एक दिन में हजारों रुपये खर्च देते हैं. कभी-कभी इससे भी अधिक.’

मैं जोड़ना चाहता हूं कि थोक में हमारे होनेवाले एमबीए-बीटेक (हर वर्ष पास करनेवाले इंजीनियरिंग-मैनेजमेंट छात्र) के बारे में मिकेंजी जैसी संस्था की राय है कि वे अनइंप्लायबुल (नौकरी न पाने योग्य) होते हैं. यानी अयोग्य. हमारे कॉलेजों-विश्वविद्यालयों के छात्रों को छोड़ दीजिए, पीएचडी करनेवाले शुद्ध लिख नहीं पाते.

दिल्ली में मेरे एक मित्र ने कहा, यह इएमआइ पीढ़ी है. इएमआइ (इक्वेटेड मंथली इंस्टालमेंट) यानी उधार पर जीनेवाली. क्रेडिट कार्ड की पीढ़ी. ऋणम् कृत्वा घितृम् पिबेत्. कुछ वर्ष पहले ब्रिटिश पार्लियामेंट ने दिवालिया होनेवाले ब्रिटिश नौजवानों के अध्ययन के लिए एक समिति बनायी, उसने क्रेडिट कार्ड पर बारीकी से अध्ययन किया. पाया, युवकों के उधार लेने, बेतहाशा खर्च करने और विलासिता में रह कर कंगाल हो जाने के ब्योरे. भारत के संदर्भ में पलाश मल्होत्रा ने एक सुंदर किताब लिखी है. युवकों के जीवन और उनके दर्शन से जुड़ी. पुस्तक का नाम है, द बटरफ्लाइ जेनरेशन. अपने यहां की नयी पीढ़ी को भी जान लें, इसे पढ़ कर. फिर मैं प्रो श्रीश चौधरी का कथन उद्धृत करना चाहूंगा.

‘हमें इस बात की चिंता नहीं कि पिछले 60 सालों में हम एक राजाजी, एक सीवी रमन, एक चंद्रशेखर, बोस या टैगोर या सुब्रह्मण्यम भारती या एक रामानुजम या एक सरोजनी नायडू या एक ध्यानचंद, एक जमशेदजी टाटा, एक घनश्याम दास बिड़ला नहीं पैदा कर रहे. महात्मा गांधी, तो हजारों वर्षों में एक पैदा होता है. हम औसत रह कर खुश हैं. हम पैसा गिन कर खुश हैं. हम एनआरआइ गिन कर खुश हैं. किसी तरह हमारा लड़का अमेरिका चला जाये या किसी तरह अपनी लड़की का विवाह अमेरिका में रहनेवाले लड़के से कर दें, यही हमारा सपना है. यदि यूक्लिड के कुछ थ्योरम या बीजगणित के कुछ समीकरणों से यह सब कुछ हासिल करना संभव होता, तो अलग बात होती. पर यहां बात इससे कहीं आगे है. हम छोटे सपने देखते हैं. खिलौनों के प्रति लालसा बड़ी है. हमे हमेशा नये फोन चाहिए, जहां आप फोन करनेवालों को देख सकें. वेतन से मोटरसाइकिलों और कारों के लिए अच्छा-खासा इएमआइ चला जाता है. हम पैदल नहीं चलना चाहते.

कुछ मील तो चल भी नहीं सकते. हमारे पैर लेवीज के लिए बने हैं. हमारे हाथों को नोकिया का हैंडसेट चाहिए. 25 वर्ष की उम्र से पहले ही कार चाहते हैं. 26 तक फ्लैट भी. हम एक दूसरे की देखा-देखी करके एक बिना मस्तिष्कवाले रोबोटिक देश में तब्दील होते जा रहे हैं. हम तकनीकी बदलाव में बहते जा रहे हैं. थ्री-जी एरा में टू-जी फोन रखने में हमें शर्म आती है. कितनी शर्म आती है, जब आप आइपॉड पर अपना इ-मेल नहीं देख पाते और आप अपने मोबाइल फोन पर टेलीविजन नहीं देख पाते आदि. हम सभी को डिजाइनर्स और डिजायर्स (इच्छाएं) भगाये लेते जा रहे हैं.

हमारी अपनी कोई जिंदगी ही नहीं है. इ-मेल से अलग हमारी अपनी पहचान नहीं है. हमारे जीवन से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. यहां तक कि मौत से भी. केवल कुछ लोगों को छोड़ कर जो आपसे प्यार करते हैं (मजबूरी में). उनमें से कुछ ही होते हैं, जो ट्विटर और फेसबुक से अलग आपके जीवन के कुछ पलों को शेयर करते हैं. जो चीज आपके पास नहीं है, उसके बारे में हम कुछ नहीं जानते. हमें वे हिंदी, तेलुगू या तमिल कविताएं नहीं आतीं, जो कोर्स की पढ़ाई से अलग हैं.’

‘मुझे दिल्ली के स्कूल के दिनों का एक चुटकुला याद आता है. एक बार एक स्कूल टीचर ने क्लास में पूछा, क्या आप लोगों में से कोई तमसो मा ज्योर्तिगमय (संस्कृत की एक पंक्ति) का अर्थ बता सकता है? पूरे क्लास में शांति छा गयी. टीचर ने दोबारा पूछा. इस बार एक हाथ उठा. टीचर खुश हुए कि चलो एक छात्र तो इसका अर्थ जानता है. उन्होंने छात्र को बुलाया और कहा कि बताओ क्या अर्थ है. छात्र बोला- मम्मी आप सो सकती हैं. मैं ज्योति को देखने जा रहा हूं.’

ऐसे कई चुटकुले हैं, जिनसे स्थिति का पता चलता है. इसके पीछे छिपे संदेश बहुत साफ हैं. क्या यह दिल्ली या मुंबई या चेन्नई या देश के किसी भी इलाके के स्कूलों के लिए सच नहीं है? इस चुटकुले में एक संदेश है. यह युवा पीढ़ी लिव-इन रिलेशनशिप (बिना शादी साथ रहने) में यकीन करती है. यानी संबंध तो बने, पर उसकी एकाउंटबिलीटी नहीं हो. इंडिया टुडे (10.02.2013) देखें. इसमें आमुख कथा है, प्रेम पर. अरबन इंडिया रिडिफाइंस रिलेशनशिप (युवा भारत ने संबंधों को पुनर्परिभाषित किया). अब शारीरिक संबंध में कोई प्रेम या भावनात्मक लगाव की जरूरत नहीं. प्रेम में कोई कमिटमेंट नहीं. पार्टी में मिले. हर तरह का रिश्ता कायम किया और फिर अपनी-अपनी दुनिया में. यानी पुरुष और औरत के बीच अब प्यार नहीं होता.

यह नयी पीढ़ी कहती है, हम इमोशनल बैगेज (भावनात्मक बोझ) नहीं ढोना चाहते. दरअसल, यह पीढ़ी न पारंपरिक है, न पूरी तरह पश्चिमी. यह आइपैड, फेसबुक, ट्वीटर, स्मार्टफोन और ऐप्स के दौर की उपज है. इंटरनेट के माध्यम से ही बिस्तर पर संबंध बनते हैं. कोस्टा और बारिस्ता काफी हाउसों में संबंध तय होते हैं. बनते हैं और मिटते हैं. पल-पल. यह तत्काल भोग और सुख में डूबनेवाली पीढ़ी है.

अगर मनुष्य और मनुष्य के बीच रिश्ते में संवेदना न हो, संवाद न हो, सुख-दुख का बोध नहीं, ममत्व और करुणा न हो, तो फिर इंसान और जानवर में फर्क क्या है? कभी गांधी ने मनुष्य बनाम मशीन का सवाल उठाया था. क्या हम आज रोबोट से संचालित डिजायर और डिजाइनर्स (इच्छा और फैशन) से प्रेरित कौम तो नहीं? कुछ वर्ष पहले की घटना याद है. शायद 2002-04 के बीच की. एनरान जैसी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी अचानक कंगाल हो गयी. इस अमेरिकी कंपनी का टर्नओवर कई देशों के जीडीपी के बराबर था.

अमेरिकन टेलीकॉम कंपनी भी. इन कंपनियों में दुनिया के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों (सेंटर आफ एक्सीलेंस) से निकले लोग काम कर रहे थे. मसलन हार्वर्ड बिजनेस स्कूल, स्टैंडफोर्ड वगैरह. जहां दाखिला मिलना, स्वर्ग पाने जैसा है, यह मान्यता है. इस पर टाइम की एक महिला पत्रकार ने बहुत शोध किया. इस काम के लिए उन्हें मशहूर पुलित्जर अवार्ड भी मिला. इस अध्ययन से पता चला कि इन कंपनियों के शीर्ष पदों पर बैठे लोगों में मूल्य बोध नहीं था. एथिक्स और वैल्यूज (मूल्य और निष्ठा) रहित पीढ़ी कहां जायेगी? संवेदना, करुणा, प्रेम और ममत्व से रहित समाज कैसा होगा? सिर्फ तिजारत और बाजार हमें संचालित करें, तो क्या माहौल होगा? इस रिपोर्ट के बाद अमेरिका में महसूस किया गया कि दुनिया की इन संस्थाओं में साहित्य की पढ़ाई हो, मूल्यों की पढ़ाई हो, कविता की पढ़ाई हो. कई जगहों पर गांधी, अरविंद और गीता भी पाठ्यक्रम में शामिल किये गये.

भारत में ही देखें. गुलाम भारत में डीडी कोसांबी, राहुल सांकृत्यायन, जेसी कुमारप्पा, मूछोंवाली मां गिजूभाई और छीता पटेल वगैरह जैसे लोग हुए. विलक्षण इंसान. मनुष्य होने की गरिमा को परिभाषित करनेवाले. मनुष्यता को श्रेष्ठत्व देनेवाले. भारत की उस पीढ़ी ने भी मनुष्य होने की गरिमा को पुनर्परिभाषित किया. आज की नयी पीढ़ी भी मानवीय रिश्तों को नया रूप दे रही है. एक में संवेदना थी, करुणा थी, संबंधों-रिश्तों का संसार बड़ा समृद्ध था. दूसरी ओर हम आज एक रिश्ताविहीन, संवेदनहीन, बाजार की दुनिया गढ़ रहे हैं, जहां सिर्फ कीमत का मोल है. क्रय करने की ताकत का महत्व है.

डीडी कोसांबी घुमंतू थे. घोर गांव के. घर से निकले. बुद्ध दर्शन के सबसे बड़े विद्वान हुए. बेजोड़ इतिहासकार, दार्शनिक. हार्वर्ड में पढ़ाया. कई भाषाओं के जानकार बने. बाबा आंबेडकर को बौद्ध दर्शन से दरस-परस करानेवाले. इसी तरह राहुल सांकृत्यायन थे. विलक्षण व्यक्ति. कई देश गये. उनकी भाषा, संस्कृति और बौद्ध धर्म का अध्ययन किया और महापंडित कहलाये. जेसी कुमरप्पा पश्चिम में पढ़े अर्थशास्त्री, पर गांधीवाद के सिद्धांत के अनूठे प्रर्वतक. गांधीवादी शिक्षा के क्षेत्र में विलक्षण प्रयोग करनेवाले. आदर्श के पीछे जीवन झोंक देनेवाले. बिना मूछोंवाली मां गिजूभाई, शिक्षा के क्षेत्र में अनूठे प्रयोगों के प्रवर्त्तक, मौलिक चिंतक. छीताभाई पटेल अपढ़ किसान थे. उनका चरित्र पढ़ें, तो आप अंदर से हिल जायेंगे. विशुद्ध गांधीवादी. मनुष्य की गरिमा और ऊंचाई के मापदंड तय करनेवाले.

आज कहां ऐसे चरित्र दिखायी दे रहे हैं? हम बहुत आगे बढ़ गये. हमारा बहुत विकास हो गया, पर हमारे बीच से ऐसे लोग क्यों नहीं निकल रहे? इसी तरह नौकरशाही में रणछोड़ प्रसाद जी जैसे लोग क्यों नहीं हो रहे? राबर्ट फ्रास्ट अंग्रेजी के चर्चित कवि हुए, जिनकी बड़ी मशहूर कविता थी, वुड्स आर लवली, डार्क एंड डीप. बट आइ हैव प्रोमिज्ड, माइल्स टू गो बीफोर आइ स्लीप, माइल्स टू गो बीफोर आइ स्लीप (जंगल सुंदर और घनेरे हैं, अंधकार से भरे और दूर तक फैले. पर मेरी प्रतिज्ञा है, सोने से पहले मीलों चलना, सोने से पहले मीलों चलना). पंडित नेहरू के न रहने पर यह कविता उनके टेबुल पर मिली थी.

उसी राबर्ट फ्रास्ट की एक और कविता है, जिसका हिंदी आशय है- जब जीवन शुरू किया, तो दो रास्ते थे. एक रास्ता, जिस पर सब चल रहे थे. यानी बना-बनाया रास्ता या राह. दूसरा कोई मार्ग नहीं था. जंगल थे. पहाड़ थे. रेतीली-पथरीली जमीन. ऊबड़-खाबड़ धरती. मैंने जीवन में इसी नयी राह चलना शुरू किया और चल कर नयी राह बनायी. इस प्रयास ने ही सब कुछ बदल दिया. एक नयी उपलब्धि. एक बड़ा फ र्क और एक बड़ी कामयाबी. आज की पीढ़ी में इस अनजान राह पर चलने के लिए कितने लोग तैयार हैं?

(गांधी संग्रहालय, पटना में 12.02.13 को आयोजित व्याख्यान के अंश)

दिनांक – 17.02.13

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