-हरिवंश-
इसमें अत्यंत पिछड़ी जातियों के लोग भी हैं. यानी मध्यम वर्ग, निम्न मध्यम वर्ग और नितांत पिछड़ों को मिला कर, उनके बीच एका स्थापित कर जनता पार्टी के आधार को पुख्ता करने की कोशिश हो रही है. लेकिन गांवों में, जहां इन जातियों के बीच आर्थिक व सामाजिक मुद्दों पर लंबे अरसे से टकराव होते रहें हैं, क्या वहां जनता पार्टी-लोक दल (अ) के शीर्ष नेताओं के एका का सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा? इस मुद्दे पर बिहार को नजदीक से निरखने-परखनेवाले समाजविज्ञानी अलग ढंग से सोचते हैं. उनका मानना है कि सामाजिक अंतर्विरोधी के कारण बिहार में मध्यम वर्ग और नितांत के बीच एक नामुमकिन है. मध्य वर्ग, जब तक अपने आर्थिक हितों की चौकासी का लोभ नहीं छोड़ता, नितांत पिछड़ों से उसका तालमेल बैठना कठिन है. सामाजिक विषमता व वर्ग भेद के मुद्दे अलग हैं. बिहार में मध्य वर्ग की हालत भी बहुत अच्छी नहीं हैं, इस कारण वह आर्थिक लाभों के अवसरों को पिछड़ों के पक्ष में खोने के लिए तैयार नहीं है. इस कारण पिछड़ों की एक अलग पार्टी हमेशा यहां अस्तित्व में रहेगी, जो आंतरिक दबावों और परिस्थितियों के कारण घोर सत्ता और व्यवस्था विरोधी होगी.
फिलहाल कर्पूरी ठाकुर के गुजर जाने से एक बड़ा शून्य पैदा हुआ है, लेकिन सामाजिक विज्ञानी मानते हैं कि कोई-न-कोई दल-नेता उनकी जगह लेगा. पिछड़ों के वोट इस संक्रमण अवधि में भले ही जनता पार्टी-लोक दल (अ) की झोली में भर जायें, लेकिन दीर्घकाल में यह एका सामाजिक अंतर्विरोधी के कारण कारगर नहीं रह सकता.
मध्य बिहार के कुछ इलाकों में, जिस तरह आइपीएफ का विकास व फैलाव हुआ है, उससे इस धारणा की पुष्टि होती है कि नितांत पिछड़ों का एक अलग दल तेजी से उभर रहा है. हाल में दिल्ली में हुए आइपीएफ के सम्मेलन में इसे नया राजनीतिक रूप देने संबंधी प्रस्ताव भी पास हुए हैं. कर्पूरी ठाकुर के सहयोगी भी मानते हैं कि आइपीएफ एक मजबूत ताकत के रूप में उभर रहा है. भाजपा और लोक दल (ब) के बीच संबंध, कर्पूरी ठाकुर और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं के बीच व्यक्तिगत संबंध कारण था, लेकिन लोक दल (ब) के कार्यकर्ताओं-समर्थकों का सीधा संबंध आइपीएफ से है, बल्कि कुछ क्षेत्रों में दोनों के जनाधार भी समान हैं.
कर्पूरी जी का आइपीएफ से बढ़िया रिश्ता भी था. लोक दल (ब) के मुखर विधायक नीतीश कुमार यह स्वीकार करते हैं कि मसौढ़ी और नालंदा के चंडी विधानसभा क्षेत्र में आइपीएफ के प्रत्याशियों ने पिछले विधानसभा चुनावों में लोक दल (ब) के प्रत्याशियों को चोट पहुंचायी. 30 विधानसभा क्षेत्रों में आइपीएफ को अच्छा समर्थन मिला. इंडियन पीपुल्स फ्रंट के कार्यकर्ता और नेता आश्वस्त हैं कि कर्पूरी ठाकुर का मूल आधार विरासत में उन्हें ही मिलेगा, क्योंकि पिछड़ों की आकांक्षा के रूप में आइपीएफ ने अपनी अलग पहचान बनायी है. पिछड़ों से संबंधित मुद्दे भी आइपीएफ के लोग निरंतर उठाते रहे हैं, इस कारण भावनात्मक स्तर पर पिछड़े इस दल से जुड़ रहे हैं.
इस व्यापक दौरे के प्रथम चरण में लोक दल के गढ़ बेतिया, मोतिहारी, गोपालगंज, मीरगंज और सीवान में ये नेता साथ-साथ गये. वहां दोनों दलों के कार्यकर्ताओं ने बड़े उछाह से इनका स्वागत किया. 4 फरवरी से पुन: लोक दल के ही गढ़ कटिहार, पूर्णिया, मधेपुरा, सहरसा, दरभंगा और मधुबनी में दोनों दलों के इन वरिष्ठ नेताओं ने दौरा किया. इस तरह इन नेताओं ने कुल 12 जिलों का दौरा किया. इसके बाद एकता का मार्ग प्रशस्त हुआ, इसलिए इस बात का प्रश्न ही नहीं है कि जगह-जगह दोनों को कार्यकर्ताओं में संघर्ष होंगे.
इसका प्रभाव लोक दल पर भी पड़ता रहा है. लोक दल में पहली लड़ाई विधानसभा उपाध्यक्ष के पद को ले कर हुई. इसमें जातिगत आधार पर मनमुटाव हुआ. यादव खेमे की दलील थी कि लोक दल में काफी यादव विधायक हैं, इसलिए उपाध्यक्ष इसी खेमे से चुना जाना चाहिए. लोक दल के दोनों धड़ों के विभाजन में यह प्रमुख कारण था. विभाजन के बाद लोक दल (अ) का मजबूत संगठन बिहार में विकसित नहीं हुआ. न ही कर्पूरी ठाकुर के टक्कर का कोई नेता इनके खेमे में था. इस कारण राज्य स्तर पर अपनी विशिष्ट पहचान बनाये रखना इनके लिए कठिन था. साथ ही जनवरी से ही चंद्रशेखर और अजीत सिंह की साथ-साथ यात्रा से विधायकों पर कार्यकर्ताओं का दबाव बढ़ा. इस नये एका के पक्षधरों ने यह भी तर्क दिया कि इससे सामाजिक तनाव कम हुआ है. लेकिन शीर्ष पर मिलन के बावजूद राज्य में, जनता और लोक दल (अ) के बीच अभी विश्वास का संकट यथावत बना हुआ है. राज्यसभा और विधान परिषद के लिए हुए हाल के चुनावों में टिकट वितरण के सवाल पर यह बात सामने आयी.
दोनों दलों के निर्णय के बावजूद लोक दल (अ) के डॉ. सत्यानंद शर्मा ने विधान परिषद के लिए विक्षुब्ध उम्मीदवार के रूप में अपना नामांकन दाखिल कर दिया. श्री शर्मा लड़ाकू युवा नेता हैं. आपातकाल में उन्हें पुलिस ने कठोर यातनाएं दी थीं. उन्होंने कहा कि इस टिकट बंटवारे से लोक दल (अ) के कार्यकर्ता क्षुब्ध हैं. विलय की प्रक्रिया में ही लोक दल (अ) को सम्मान नहीं मिला, तो आगे क्या उम्मीद की जा सकती है. टिकट वितरण के सवाल पर पहले यह तय हुआ कि राज्यसभा की सीट जनता पार्टी को दी जाये और विधान परिषद की सीट लोक दल (अ) को. लोक दल (अ) से परिषद के लिए जो नाम सामने आये, उनमें डॉ. सत्यानंद शर्मा, उपेंद्रनाथ वर्मा, श्रीनारायण यादव और जयप्रकाश यसदव के नाम थे. आपस में किसी एक नाम पर मतैक्य नहीं था. लोक दल (अ) के पांच विधायक रामविलास पासवान के साथ हैं. उनके भाई पारस पासवान और समधी पुनीत राय भी विधायक हैं. अंदरूनी सूत्रों के अनुसार लोक दल (अ) या अब जनता पार्टी में भी डॉ. महावीर प्रसाद यादव, मंशीलाल राय और रामविलास पासवान के अलग-अलग तीन धड़े हैं. लोक दल (अ) के ही एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि टिकट वितरण का मसला, मुंशीलाल राय, डॉ. महावीर प्रसाद और जनता पार्टी के रघुनाथ झा और हुकुमदेव नारायण यादव ने मिल कर तय कर लिया.
डॉ. सत्यानंद शर्मा ने जब अपना नामांकन विधान परिषद के लिए दाखिल कर दिया, तो दल के अंदरूनी मतभेद उभर आये. अंतत: उन्हें अजीत सिंह और रामविलास पासवान ने मना लिया. इस एका के बारे में डॉ. शर्मा का कहना है कि जब तक कार्यकर्ताओं के स्तर पर मन नहीं मिलेगा, ऊपरी एकता का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, जनता पार्टी और लोक दल (अ) की पहली संयुक्त बैठक 25 मार्च को पटना में हुई, इसके बाद लोक दल (अ) के विधायकों की अजीत सिंह के साथ अलग बैठक हुई. विश्वसनीय सूत्रों से प्राप्त सूचनाओं के अनुसार इस बैठक में विधायकों ने जनता पार्टी से हुए एका के संबंध में तरह-तरह की आशंकाएं प्रकट की. लोक दल (अ) के कुछ विधायक नाराज थे. काफी मान-मनौव्वल के बाद वे संयुक्त बैठक के लिए तैयार हुए. लोक दल (अ) के साथ एक और मजबूरी थी. जल्द ही लोक दल (अ) और लोक दल (ब) के झगड़े का निर्णय चुनाव आयोग करनेवाला है. चुनाव आयोग ने फिलहाल इसे विभाजन करार दिया है, लेकिन महीने भर के अंदर ही निर्णय आने की उम्मीद है. आशंका है कि चुनाव आयोग लोक दल (ब) को ही असली लोक दल करार दे. ऐसी स्थिति में लोक दल (अ) एक क्षेत्रीय दल बन जाता. शीर्ष पर किसी बड़े नेता के अभाव और असुरक्षा के कारण लोक दल (अ) को भी जनता पार्टी के साथ एका में लाभ दिखाई दिया.
लेकिन लोक दल (अ) के लोग दल में समुचित प्रतिनिधित्व की मांग कर रहे हैं. उनका तर्क है कि उत्तर भारत में इस दल का जो जनाधार है, उसके अनुसार ही हमें उचित प्रतिनिधित्व मिले. मुंशीलाल राय का कहना है कि ‘1967 में डॉ. राममनोहर लोहिया, बाद में जेपी, चौधरी चरण सिंह और कर्पूरी ठाकुर ने जिन मुद्दों को ले कर आंदोलन चलाये, उन्हें नयी जनता पार्टी अगर महत्व देगी, तो यह एका प्रभावी होगा. हालांकि 77 की घटना अभी लोग भूले नहीं हैं. जिन लोगों ने आरक्षण के खिलाफ आंदोलन चलाये, नारे लगाये, एनके कारण ही पार्टी टूटी. इस बार मंडल आयोग को, डॉ. लोहिया की सप्तक्रांति और जेपी की संपूर्ण क्रांति को नयी पार्टी यथेष्ट महत्व दे, तो यह एका स्थायी होगा. अगर बुनियादी मुद्दों पर संघर्ष नहीं होंगे, तो यह पार्टी वैकल्पिक पार्टी के रूप में नहीं उभर सकती और मात्र चुनावी पार्टी बन कर रह जायेगी. इससे एकता को खतरा पहुंचेगा.’
वस्तुत: इस एका के प्रति पुराने अनुभवों के कारण लोक दल (अ) और जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं में दुविधा और आशंका है. इस आशंका को निरस्त करने की कोशिश खुद चंद्रशेखर कर रहे हैं. अजीत सिंह को कार्यवाहक अध्यक्ष बनाये जाने का जो लोग विरोध अनुभव की कमी के आधार पर कर रहे हैं, उन्हें वह तर्क देते हैं कि 51 वर्ष की उम्र में मैं अविभाजित जनता पार्टी का अध्यक्ष बना. अजीत सिंह 49 वर्ष की उम्र में अध्यक्ष बने हैं, तो क्या नहीं दल का नेतृत्व कर सकते हैं. लोक दल के ही एक विधायक का कहना है कि चंद्रशेखर ने अजीत सिंह को अध्यक्ष बना कर पार्टी का चरित्र ही बदल दिया है. अब यह दल जुझारू और पिछड़ों का प्रतिनिधित्व करनेवाला दल बन गया है. रामविलास पासवान की दलील है कि लोक दल पिछड़ों की पार्टी है और इसकी मुख्य समर्थक जातियां हैं, यादव, कुरमी, कोईरी और पिछड़ी जातियां, यह मूलत: संसोपा का जनाधार है. इस जनाधार से कुरमी, नक्सलवादियों से संघर्ष के कारण कांग्रेस समर्थक हो गये हैं, बाकी यथावत लोक दल के साथ हैं. अत्यंत पिछड़ों में पासवान हमेशा से कांग्रेस विरोधी में रहे हैं. जनता पार्टी पिछड़ों के लिए संघर्ष करेगी और उनकी आकांक्षाओं की प्रतीक बनेगी, तो स्वाभाविक है कि इन लोगों का समर्थन जनता पार्टी को प्राप्त होगा.
लेकिन यह समर्थन तब तक अधूरा और आंशिक रहेगा, जब तक लोक दल (ब) का विलय इन नयी पार्टी के साथ नहीं होता. नीतीश कुमार का कहना है कि एका विरोधी दलों के बड़े एका को रोकने के लिए ही हुआ है. एकता का मार्ग इससे प्रशस्त नहीं, बल्कि अवरूद्ध हुआ है. राज्य स्तर पर लोक दल और (अ) लोक दल (ब) के दोनों धड़ों में जो विवाद पिछले वर्ष हुआ, उससे वृहद एकता पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है. अभी भी लोक दल (अ) और लोक दल (ब) के बीच विश्वास का संकट बना हुआ है. खास कर हुकुमदेव नारायण यादव, रामविलास पासवान और मुंशीलाल राय से लोक दल (ब) के कुछ विधायक काफी खफा हैं. जब तक यह दूरी कम नहीं होती, कटुता और एक -दूसरे के प्रति आशंका बढ़ती ही रहेगी.
राज्यसभा और विधान परिषद के चुनावों के समय यह तय किया था कि हर विपक्षी दल के प्रमुख नेता के यहां एक -एक दिन प्रीतिभोज का आयोजन और कटुता के कारण आपस में ये लोग मिले तक नहीं. लोक दल (अ) के एक सज्जन का कहना है कि अभी इसी स्तर पर यह संशय और अवश्विास है, तो आगे पता नहीं क्या होगा? इसके अतिरिक्त जनता पार्टी, लोक दल (अ) के कार्यकर्ताओं में भी पद के लिए संघर्ष छिड़नेवाला है. ब्लॉक स्तर से ले कर ऊपर तक दोनों दलों के हर प्रमुख पद के लिए अलग-अलग दावेदार हैं. अगर लोक दल (ब) भी पार्टी में मिल गया, तो एक पद के लिए तीन-तीन दावेदार सामने आ जायेंगे. व्यावहारिक स्तर पर इस आपसी संकट से निबटने के लिए जब तक कारगर रणनीति नहीं बनती, तब तक यह एका फलदायी साबित नहीं होगा. अगर यह एकता नहीं होती, तो चुनावी लाभ इस नये दल को नहीं मिलेगा. पिछले विधानसभा चुनावों में लोक दल और जनता पार्टी ने आपस में लड़ कर ही 60 सीटें पर चुनाव हार गये थे.
जनता पार्टी के वरिष्ठ लोगों को विश्वास है कि देर-सबेर यह वृहद एकता हो जायेगी. लेकिन सुबोधकांत सहाय, वशिष्ठ जी, विजय कृष्ण और पूर्व सांसद हरिकिशोर जी किसी भी कीमत पर जनता पार्टी का नाम और झंडा बरकरार रखना चाहते हैं. इन लोगों की दलील है कि जनता पार्टी एक विशेष ऐतिहासिक परिस्थितियों की उपज है. जेपी का इसे संरक्षण मिला अत: इस विरासत को हमें किसी भी कीमत पर नहीं त्यागना चाहिए. इन लोगों का कहना है कि ‘अभी भी उत्तरप्रेदश में मुलायम सिंह यादव से हमारा गंठबंधन है, उन्हें और नजदीक लाने की कोशिश हो रही है. बिहार में लोक दल (ब) के कुछ विधायक बहुत जल्द हमारे साथ आनेवाले हैं. कुछ और लोगों से इस मुद्दे पर बातचीत हो रही है, संभावना है कि जल्द ही इस बातचीत और पहल के सकारत्मक परिणाम सामने आये.