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Human Psychology: क्या गुस्से में सामने आता है इंसान का असली चेहरा? जानें साइकोलॉजी का नजरिया

Human Psychology: अक्सर ऐसा कहा जाता है कि गुस्से में कही गयी चीजें सच होती है लेकिन क्या वाकई में ऐसा होता है? या फिर इसका जवाब कुछ और है? चलिए जानते हैं इसके बारे में साइकोलॉजी का क्या है कहना.

Human Psychology: अक्सर ऐसा कहा जाता है कि ‘गुस्से में इंसान का असली चेहरा सामने आ जाता है.’ लेकिन क्या यह सच है? क्या वाकई गुस्से के दौरान इंसान अपने दिल की छुपी हुई बातें बिना झिझक बोल देता है या फिर उस समय उसके मुंह से निकलने वाले शब्द महज गुस्से का असर होते हैं? साइकोलॉजी की मानें तो गुस्से में इंसान का दिमाग नॉर्मल तरीके से काम नहीं करता. इस दौरान हमारे दिमाग पर इमोशंस हावी हो जाते हैं और सोचने-समझने की कैपेसिटी भी कमजोर हो जाती है. यही वजह है कि गुस्से में इंसान कभी दबे हुए सच को बाहर ला देता है, तो कभी सामने वाले को चोट पहुंचाने के लिए चीजों को बढ़ा-चढ़ाकर या झूठी बातें भी कह देता है.

गुस्से में दिमाग कैसे करता है काम?

एक्सपर्ट्स के अनुसार जब इंसान गुस्से में होता है तो उसके दिमाग का एमिग्डाला पार्ट एक्टिव हो जाता है, जो हमारी इमोशंस को कंट्रोल करता है. इस समय दिमाग का लॉजिकल पार्ट थोड़ा कमजोर हो जाता है. यानी गुस्से में इंसान सोच-समझकर कम और इमोशंस में बहकर ज्यादा बोलता है. यही वजह है कि कई बार गुस्से में कही गई बातें बाद में पछतावे का कारण बन जाती है.

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क्या गुस्से में सच बाहर आता है?

साइकोलॉजिस्ट्स के मुताबिक, गुस्से में इंसान अक्सर वही बातें बोल देता है जो उसके मन में दबकर रह जाती हैं. यानी गुस्सा कहीं न कहीं छुपे हुए इमोशंस को बाहर निकालने का जरिया बन सकता है. एग्जाम्पल के लिए अगर किसी रिश्ते में लंबे समय से गुस्सा दबा हुआ हो या संतोष न हो तो गुस्से के दौरान वही बातें मुंह से निकल जाती हैं. गुस्से में भले ही बातें बाहर निकल रही हों लेकिन यह हमेशा सच नहीं होते. कई बार गुस्से में इंसान बढ़ा-चढ़ाकर या चोट पहुंचाने के इरादे से भी बातें कहता है. इस हालात में गुस्से की बातें पूरी तरह सच्चाई नहीं बल्कि इमोशंस का बढ़ा-चढ़ा रूप होते हैं.

गुस्से में झूठ क्यों बोलते है?

एक्सपर्ट्स की अगर मानें तो गुस्सा सिर्फ सच ही नहीं, बल्कि आपसे झूठ भी कहलवा सकता है. कई बार व्यक्ति गुस्से में सामने वाले को नीचा दिखाने के लिए ऐसी बातें कह देता है जो पूरी तरह झूठ होती हैं. साइकोलॉजी की भाषा में इसे डिफेंसिव रिएक्शन कहा जाता है. यानी खुद को बचाने या सामने वाले को चोट पहुंचाने के लिए इंसान झूठ का सहारा भी ले सकता है.

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रिश्तों पर गुस्से की बातें क्यों पड़ती हैं भारी?

बता दें रिश्तों में गुस्से का असर सबसे ज्यादा देखने को मिलता है. कई बार एक छोटी सी बहस में कही गई कड़वी बात लंबे समय तक रिश्ते में दरार डाल सकती है. जब गुस्से में कोई बात कही जाती है तो सामने वाला इंसान यह सोचने लगता है कि अगर सामने वाले ने गुस्से में यह कहा, तो जरूर उसके दिल में भी यही होगा. यही गलतफहमी रिश्तों को कमजोर कर देती है.

साइकोलॉजी का क्या है नजरिया?

साइकोलॉजी की अगर मानें तो गुस्से में कही गई बातें हमेशा सच नहीं होतीं. वे कई बार दबे हुए सच का रूप होती हैं, तो कई बार बढ़ा-चढ़ाकर कही गई बातें या फिर झूठ. असलियत यह है कि गुस्सा इंसान की सोच और बोली पर कंट्रोल कम कर देता है. इसलिए बेहतर यही है कि गुस्से में कही गई हर बात को सच मानने की बजाय शांत मन से समझने की कोशिश की जाए.

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Disclaimer: हमारी खबरें जनसामान्य के लिए हितकारी हैं. लेकिन दवा या किसी मेडिकल सलाह को डॉक्टर से परामर्श के बाद ही लें.

Saurabh Poddar
Saurabh Poddar
Digital Media Journalist having more than 2 years of experience in life & Style beat with a good eye for writing across various domains, such as tech and auto beat.

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