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RIBBON Movie Review : रिबन सी रंगीनियों में गुंथती जिंदगी

गौरवबॉलीवुड की मसाला फिल्मों वाली भेड़चाल के बीच आजकल छोटे बजट की कुछ ऐसी फिल्में आ जाती हैं, जो काफी समय तक आपके जेहन में जिंदा रह जाती हैं. ऐसी फिल्में बॉक्स ऑफिस के रिकाॅर्ड से भले दूर रहें, पर नये निर्देशक और लेखकों की अलहदा सोच ऐसी फिल्मों के जरिये सोचने पर जरूर मजबूर […]

गौरव
बॉलीवुड की मसाला फिल्मों वाली भेड़चाल के बीच आजकल छोटे बजट की कुछ ऐसी फिल्में आ जाती हैं, जो काफी समय तक आपके जेहन में जिंदा रह जाती हैं. ऐसी फिल्में बॉक्स ऑफिस के रिकाॅर्ड से भले दूर रहें, पर नये निर्देशक और लेखकों की अलहदा सोच ऐसी फिल्मों के जरिये सोचने पर जरूर मजबूर कर देती है.

नवोदित राखी शांडिल्य और राजीव उपाध्याय की ‘रिबन’ ऐसी ही सोच से निकली उम्दा किस्म की फिल्म है. मेट्रो और कॉरपोरेट कल्चर की भागदौड़ व टेंशन भरी प्रोफेशनल लाइफ जब किसी की पर्सनल लाइफ को गिरफ्त में लेती है, कई सवाल खड़े कर जाती है.

आपको खुद का एंबिशस होना और करियर के पीछे भागना भी बेमानी लगने लगता है. तथाकथित शहरीकरण की आंच में झुलसती जिंदगियां किस तरह आखिर में खुद को मकड़जाल में घिरा बेबस महसूस करती हैं, राखी ने बड़ी बारीकी से उसे कहानी की शक्ल में बुना है.

करण (सुमित ब्यास) और शाहना (कल्कि कोचलिन) शहर की लाइफ में एडजस्ट हो चुके एक आम कपल हैं. करण कंस्ट्रक्शन कंपनी में काम करता है और शाहना एक कॉरपोरेट कंपनी में स्ट्रेटजी मैनेजर है.

दोनों की जिंदगी अच्छी चल रही होती है. प्राॅब्लम तब शुरू होती है, जब बिना किसी प्लानिंग के शाहना प्रेग्नेंट हो जाती है. करण की खुशी के लिए वह मां बनने को तैयार हो जाती है.

पर मेटरनिटी लीव के तीन महीने बाद वापस ऑफिस ज्वाइन करने पर उसका डिमोशन कर दिया जाता है और कुछ वक्त बाद उसे नौकरी से निकाल भी दिया जाता है.

घर में छोटी बच्ची की जिम्मेदारी, बढ़ते खर्च की वजह से पति का दूसरे शहर में शिफ्ट होना और इन सब के बीच बड़ी होती बच्ची के साथ घटती कुछ अनचाही घटनाएं.

रोजमर्रा की जिंदगी के कई कुरेदते मुद्दों, मसलन वर्किंग कपल की जॉब को लेकर इनसिक्योरिटी, न्यूक्लियर फैमिली के बच्चों की सुरक्षा, क्रेच की समस्या, स्कूल प्रबंधन का असहयोगात्मक रवैया और शहरों में बढ़ते बाल यौन उत्पीड़न जैसे संवेदशील मुद्दे को कहानी में जिस खूबसूरती से पिरोया गया है, वह पहली फिल्म होने के बावजूद निर्देशक की संभावनाओं को दिखाता है.

बेशक पहली फिल्म होने की वजह से कई जगह अनुभव की कमी जाहिर होती है. कहानी अपने पहले हाफ में थोड़ी खिंची-सी लगती है. मुद्दे तक आने में लिया गया वक्त थोड़ा गैरजरूरी लगता है और मसाला फिल्मों के शौकीनों को थोड़ी बोरियत का एहसास भी हो सकता है पर एक बार कहानी जब पटरी पर आती है, तो आपको खुद में समेट लेती है.

परिवार और उसकी जरूरतों का बखूबी एहसास करा जाती है. शाहना के किरदार में कल्कि कोचलिन ने एक बार फिर साबित किया कि ऐसी जॉनर की फिल्मों के लिए वो परफेक्ट च्वाइस हैं.

शाहना की मनोदशा और जरूरतों को कल्कि का भरपूर साथ मिला. सुमित व्यास की उपस्थिति भी उस जरूरत को पूरी करती नजर आती है. बॉलीवुड की मसाला फिल्मों से अलग कुछ खास देखने की हिम्मत कर सकते हों, तो एक बार फिल्म जरूर देखें.

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