Aajibaichi Shala: सुबह की हल्की धूप में गुलाबी साड़ी पहने, कंधे पर स्कूल बैग टांगे कांता मोरे जब अपने गांव के रास्ते स्कूल की ओर बढ़ती हैं, तो वो नजारा किसी आम गांव की सुबह से अलग होता है. नन्हे बच्चों के बजाय यहां 60 से 90 साल की उम्र की दादी-नानियां क्लासरूम की बेंच पर बैठती हैं, स्लेट पर मराठी के आड़े-तिरछे अक्षर लिखने का प्रयास करती हैं और पूरे जोश से नर्सरी की कविताएं दोहराती हैं.
ये दृश्य है महाराष्ट्र के नंदुरबार जिले के फांगणे गांव का, जहां चल रही है एक अनूठी पहल – ‘आजीबाईची शाला’, यानी दादी-नानी का स्कूल.
पढ़ने की उम्र नहीं होती
इस स्कूल की स्थापना की है 45 वर्षीय शिक्षक योगेंद्र बांगड़ ने, जिन्होंने मोतीराम चैरिटेबल ट्रस्ट के साथ मिलकर 2023 में इस पहल की शुरुआत की। उनका उद्देश्य स्पष्ट था- “जो महिलाएं पूरी जिंदगी घर और खेतों में खपा दीं, उन्हें भी अक्षरज्ञान का अधिकार है.”
गांव की अधिकतर महिलाएं पढ़-लिख नहीं पाई थीं। त्योहारों और उत्सवों पर जब धार्मिक या ऐतिहासिक ग्रंथ पढ़ने की बात आती, तो वे दूसरों पर निर्भर होती थीं. इस असहायता ने बांगड़ को झकझोर दिया और उन्होंने ठान लिया कि वे बदलाव लाएंगे.
गुलाबी साड़ी और स्कूल बैग बनीं पहचान
‘आजीबाईची शाला’ की सबसे खास बात यह है कि यहां पढ़ने आने वाली हर बुजुर्ग महिला को स्कूल ड्रेस के रूप में गुलाबी साड़ी, एक स्लेट, चॉक और स्कूल बैग दिया गया है. कक्षा में एक श्यामपट भी है. सब कुछ वैसा ही है जैसा किसी प्राथमिक विद्यालय में होता है.
कांता मोरे बताती हैं, “शुरुआत में मुझे बहुत शर्म आती थी, लेकिन जब देखा कि मेरी ही उम्र की कई महिलाएं पढ़ने आ रही हैं, तो मेरा डर छू-मंतर हो गया. अब मैं मराठी में पढ़ और लिख सकती हूं.”
जब बहू बनी गुरु
इस स्कूल की एक और प्रेरक कहानी है कांता मोरे की बहू शीतल, जो खुद एक शिक्षिका हैं और आज अपनी सास को पढ़ाती हैं. शीतल न सिर्फ अक्षरज्ञान कराती हैं बल्कि मराठी संतों के अभंग और भजन भी सिखाती हैं. यह केवल शिक्षा नहीं, पीढ़ियों के बीच पुल बन गया है.
ज्ञान के साथ हरियाली की ओर कदम
इस स्कूल का पर्यावरण प्रेम भी उल्लेखनीय है.हर छात्रा ने अपने नाम का एक पौधा स्कूल परिसर में लगाया है और उसकी रोज़ देखभाल करती हैं. शिक्षा के साथ-साथ जिम्मेदारी और पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता भी इस पहल का हिस्सा है.
एक परिवार की जमीन, पूरे गांव की जागरूकता
बांगड़ बताते हैं कि इस स्कूल के लिए एक स्थानीय परिवार ने अपनी जमीन दी. 8 मार्च 2023, अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के दिन 28 बुजुर्ग महिलाओं के साथ इस स्कूल की शुरुआत हुई थी. आज यह गांव पूर्ण साक्षरता की ओर बढ़ चुका है. शिक्षा से न केवल आत्मनिर्भरता आई है, बल्कि गांव अब खुले में शौचमुक्त हो गया है. हर घर में शौचालय बना है.
हर दिन 75 किमी का सफर
योगेंद्र बांगड़ हर दिन 75 किलोमीटर का सफर तय करके स्कूल आते हैं. वे कहते हैं, “अगर सरकार ऐसी पहल को समर्थन दे और इन छात्राओं को छात्रवृत्ति जैसी कोई योजना दे, तो यह गांव-गांव शिक्षा की नई रोशनी फैला सकता है.”
बदलाव की मिसाल बनीं दादी-नानियां
‘आजीबाईची शाला’ केवल एक स्कूल नहीं, बल्कि यह एक सामाजिक क्रांति की अच्छी शुरुआत है. यह पहल बताती है कि पढ़ाई की कोई उम्र नहीं होती और अगर सही दिशा में प्रयास किए जाएं, तो गांव की दादी-नानियां भी शिक्षा की ज्योति से रोशन हो सकती हैं.
यह कहानी सिर्फ फांगणे गांव की नहीं है. यह भारत के हर उस कोने की प्रेरणा है, जहां आज भी बुजुर्ग महिलाएं पढ़ाई के सपने संजोए बैठी हैं.

