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Bihar Politics: 1970 के दशक तक सीपीआइ के हाथ था नेतृत्व, अब भाकपा माले ने बढ़ायी अपनी ताकत

Bihar Politics: बिहार में एक ओर वामपंथ का असर धीरे धीरे कम होता जा रहा है, दूसरी ओर वामपंथ के अंदर भी नेतृत्व या प्रभावकारी दल में बदलाव देखने को मिल रहा है.

Bihar Politics: पटना. बिहार में वामपंथी पार्टियों के जनाधार में गिरावट 1990 से शुरू हो गयी, इसके पूर्व 1972 से 77 तक विधानसभा में भाकपा मजबूत विपक्ष के रूप में रही. उसके बाद से आरक्षण और जातिवाद ने वामपंथ को कमजोर करना शुरू कर दिया. वामदल में कभी वर्ग संघर्ष था, तो अब इन पार्टियों ने भी जाति आधारित राजनीति को तवज्जो देना शुरू किया. यही कारण था कि भाकपा माले ने 2020 के विधानसभा चुनाव में महागठबंधन से मिली 19 सीटों में एक भी सवर्ण उम्मीदवार नहीं दिये. इस बार के विधानसभा चुनाव में वामदलों ने महागठबंधन के भीतर अधिक सीटों की मांग की है. भाकपा माले जहां विधानसभा की 45 सीटें मांग रहा, वहीं सीपीआइ और सीपीएम की मांग भी दर्जन भर से अधिक सीटों की है. 2020 के विधानसभा चुनाव में भाकपा माले को 12, सीपीआइ के और सीपीएम के दो-दो विधायक चुनाव जीत कर सदन पहुंचे.

विधानसभा के साथ संसद में भी थी पहुंच

चुनावी आंकड़े बताते हैं,70 के दशक में भाकपा के राज्य में 35 विधायक थे. संसद के दोनों सदनों में बिहार से सीपीआइ के सदस्य पहुंचते थे. हालांकि यह काल अविभाजित बिहार का था और विधानसभा के सदस्यों की कुल संख्या भी 324 के करीब थी. लेकिन, धीरे धीरे पार्टी कमजोर पड़ती चली गयी. 2010 के विधानसभा चुनाव में सीपीआइ को महज एक सीट पर जीत हासिल हुई. 2015 के चुनाव में पार्टी का खाता भी नहीं खुल पाया. अलबत्ता वामदलों की अगुवाई का झंडा भाकपा माले ने उठा लिया. 2015 के चुनाव में भाकपा माले के तीन विधायक चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंचे. वहीं 2020 के विधानसभा चुनाव में भाकपा माले को 12 विधायकों की आमद हुई. जबकि भाकपा को महज दो सीटें मिली और माकपा भी दो सीटों पर ही सिमटी रही.

बिखराव की सबसे अधिक मार सीपीआइ ही झेल रहा

बिखराव का सबसे अधिक असर भाकपा में देखी गयी. बेगूसराय, मधुबनी में उसकी बड़ी ताकत संसद और विधानसभा में देखी गयी थी. लेकिन, जनाधार खिसकने की पीड़ा पार्टी को अभी भी साल रही है. सीपीआइ अपने खोये जनाधार को वापस पाने को जद्दोजहद कर रही है. सीपीआइ और सीपीएम दोनों भाकपा माले के साथ महागठबंधन का हिस्सा है.

वामदलों में सीपीआइ की रही थी जमीनी ताकत

भाकपा 1951 में 24 सीटों पर उतरी, लेकिन 1956 में एक सीट बाइ एलेक्शन में आयी. साथ ही 1957 में 60 सीटों में सात पर जीत हासिल हुई. 1962 में 84 सीटों में 12 पर जीत मिली. 1967 में 97 सीटों में 25 पर जीत मिली थी, लेकिन इस चुनाव में वामदल सहित अन्य पार्टियों के साथ 55 सीटों पर गठबंधन था. 1969 में162 सीटों में 25 पर जीत मिली.1972 में 55 सीटों में से 35 पर जीत मिली और इस चुनाव में कांग्रेस के साथ 48 सीटों पर गठबंधन रहा. इसके बाद 1977 में 73 सीटों में 21 पर जीत मिली. 1980 में135 सीटों में से 22 पर जीत मिली. इस चुनाव में वामदल से गठबंधन किया गया. 1985 में 167 सीटों में 12 पर जीत मिली. इस चुनाव में वामदल से गठबंधन किया गया. 1990 में 60 सीटों पर 24 पर जीत मिली. इस चुनाव में जनता दल से 25 सीटों पर गठबंधन था. 1995 में 52 सीटों से से 26 पर जीत मिली. इसमें भी जनता दल लालू प्रसाद से गठबंधन हुआ.

माले ने धीरे-धीरे बढ़ाई ताकत

दो हजार के विधानसभा चुनाव में सीपीआइ पांच और दो पर सीपीएम तो माले ने जीती थी छह सीटें
साल 2000 में सीपीआइ को पांच सीटों पर जीत मिली. जबकि सीपीएम को दो और भाकपा माले के छह विधायक जीते. 2005 के फरवरी में हुए चुनाव में सीपीआइ 16 सीटों पर खड़ी हुई और इनमें तीन पर जीत मिली. इस चुनाव में सीपीएम के एक और भाकपा माले के सात विधायक चुनाव जीते. 2005 के नवंबर में हुए चुनाव में सीपीआइ ने 35 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किये. इनमें उसे तीन सीटों पर जीत मिली. वहीं सीपीएम के एक और भाकपा माले के पांच विधायक सदन पहुंच पाये.

वामदलों के लिए सबसे खराब साल 2010 रहा

साल 2010 में 56 सीटों में सीपीआइ को मात्र एक सीट पर जीत मिली. वामदल से गठबंधन हुआ. इसमें भाकपा माले और सीपीएम का खाता नहीं खुला. 2015 के चुनाव में सीपीआइ को एक सीट पर भी जीत नहीं मिली.वहीं माले के तीन विधायक जीते.

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