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चीन, प्रेरणा भी! भय भी!- 2

हरिवंश हम भारतीय, चीन का मानस नहीं समझते चीन के एक वरीय अधिकारी ने भारत के एक टॉप ब्यूरोक्रेट (राजदूत/ अंबेस्डर ) को, 2010 में कहा कि भारत को तीन चीजों को समझना होगा. पहला कि चीन और भारत के राजनीतिक मतभेद, आर्थिक विकास और व्यापार के हमारे रिश्तों में बाधा नहीं बनेंगे. दूसरी चीज, […]

हरिवंश

हम भारतीय, चीन का मानस नहीं समझते

चीन के एक वरीय अधिकारी ने भारत के एक टॉप ब्यूरोक्रेट (राजदूत/ अंबेस्डर ) को, 2010 में कहा कि भारत को तीन चीजों को समझना होगा. पहला कि चीन और भारत के राजनीतिक मतभेद, आर्थिक विकास और व्यापार के हमारे रिश्तों में बाधा नहीं बनेंगे. दूसरी चीज, भारत को याद रखना होगा कि वह अपने पड़ोसियों, मसलन, म्यांमार (बर्मा), नेपाल और बांग्लादेश में दखलअंदाजी बंद करे. तीसरी चीज कि भारत को यह मान लेना होगा कि चीन और पाकिस्तान का रिश्ता मजबूत बन रहा है, और यह जारी रहेगा. क्योंकि पाकिस्तान को परमाणु शक्तिसंपन्न देश बनाने का मकसद ही यही है कि वह भारत को नियंत्रण में रख सके. इन तीनों संदेशों का अर्थ है कि चीन, भारत को आर्थिक दृष्टि से ठीकठाक देखने को तैयार है, पर वह भारत को क्षेत्रीय महाशक्ति के रूप में उभरते देखना नहीं चाहता. भारत, अमेरिका से मजबूत संबंध रखे, यह भी वह नहीं चाहता.

चीन की नजर में तीसरे वर्ग की दुनिया में जो देश है, उनमें भारत है. पर भारत के लोगों की दिक्कत है कि वे चाहते हैं कि दुनिया के ताकतवर देश उन्हें बराबर का साझीदार माने. अमेरिकी चुपचाप यह सुन लेते हैं, पर सच जानते हैं. चीनी जब यह सुनते हैं, तो आंख दिखाते हैं. भारत के विदेश मंत्रलय के अफसरों की धारणा है (जो चीन से बातचीत में शरीक रहे हैं) कि चीन उसी वक्त भारत को गंभीरता से लेता है, जब भारत-अमेरिका और जापान से मिलकर मजबूत संबंध बनाता है. भारत की अर्थव्यवस्था, चीन की अर्थव्यवस्था के मुकाबले 1/5 है. एक सामान्य आदमी की भाषा में कहें, तो जो पाकिस्तान और भारत की अर्थव्यवस्था में जो फर्क है, वही फर्क भारत और चीन की अर्थव्यवस्था में है. आज भारत, पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था को कमजोर दृष्टि से देखता है. वह मानता है कि आतंकवाद, कुव्यवस्था व खराब गवर्नेस अपनानेवाले पाकिस्तानी, अपनी अर्थव्यवस्था को तेज गति से आगे नहीं बढ़ा पायेंगे. यही भाव चीन का भारत के प्रति है.

2005 तक जब अमेरिका और भारत के संबंध थोड़े मजबूत होने लगे, तो पहली बार चीन ने, भारत से गंभीरता से सीमा मुद्दे पर बातचीत शुरू की. आज लोग कहते हैं कि 38 दौर की बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला. पर जैसे ही भारत-अमेरिका संबंध पटरी से उतरे, चीन ने भारत को उसकी हैसियत बतानी शुरू कर दी. याद रखिए, 1962 के चीनी आक्रमण के बाद चीन के इरादे को भांपनेवाले दृष्टिवान डाक्टर राममनोहर लोहिया अकेले नेता थे, जिन्होंने चीन पर खुल कर बात की. हिमालय पर लंबा व्याख्यान दिया. घूम-घूम कर. पर किसी ने सुना? पिछले 30 वर्षो की कलही राजनीति, भारत में महज सत्ता के लिए, कुरसी के लिए ही सिमटी रही. आज चीन भारत के इर्द-गिर्द व्यापार के पुराने सिल्क रूट बना रहा है. वह जमीन के दो रास्तों से नये व्यापार मार्ग, जिसे सिल्क रूट कहा जा रहा है, तैयार कर रहा है. पहला चीन से पाकिस्तान होते हुए और दूसरा म्यांमार यानी बर्मा होते हुए, बांग्लादेश तक. भारतीय समुद्र में नौसेना या व्यापार मार्ग से भारत को घेरते हुए. भारत सरकार ने चीन की यह चालाकी भांपी, इसलिए उसने म्यांमार के चीन रूट पर अपनी सहमति नहीं दी. भारत की इस मनाही के बाद पर्यवेक्षकों का अनुमान है कि चीन के राष्ट्रपति, भारत में जिस सौ बिलियन डॉलर के निवेश की बात लेकर आये थे, वह घट कर बीस बिलियन डॉलर हुआ. चीनी भारत की कमजोरी जानते हैं. वे जानते हैं कि वह एक बंटा हुआ समाज है. भारत की अंदरूनी कमजोरी चीन के लिए सबसे बड़ा हथियार है.

एक तरफ जिनपिंग के भारत आगमन पर टेलीविजन चैनलों से लेकर अन्य मीडिया में इतने बड़े पैमाने पर प्रचार-प्रसार और दूसरी तरफ भारतीय सीमा में चीनी सैनिकों का घुसना! यह पहली बार नहीं हुआ है. वर्ष 2010 में चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री वेन जिआबाओ, जो 2003 से 2013 तक चीन के प्रधानमंत्री रहे, भारत आये थे. भारत की राजधानी दिल्ली में इंडियन काउंसिल ऑफ वर्ल्ड अफेयर्स के कान्फ्रेंस हाल में बोलते हुए उन्होंने भारत और चीन की संयुक्त आकांक्षाओं के बारे में, पुरानी मित्रता के बारे में बहुत कुछ कहा. यह भी कहा कि दोनों तरफ का व्यापार, 2015 तक बढ़ कर सौ बिलियन डॉलर कैसे हो जायेगा? उनके साथ साढ़े चार सौ चीनी व्यापारी भी भारत आये थे. वे तीन दिन की भारतीय यात्र पर थे. यहां से वह पाकिस्तान गये. व्यापार और आर्थिक समझौतों के बारे में बात करते-करते उन्होंने बहुत दो टूक और साफ-साफ या एक हद तक कटु भाषा में बता दिया कि दोनों देशों की सीमा पर जो 3488 किलोमीटर का सीमा विवाद है, इसे हल करना या इस सवाल को पूरी तरफ सुलझाना आसान नहीं है. इसके लिए धैर्य चाहिए और इसके लिए लंबे समय की जरूरत पड़ेगी.

दरअसल, चलता है या जुगाड़ू मानस-प्रवृत्ति वाले हम भारतीय, चीन के मानस को नहीं जानते. जॉन इलियट की पुस्तक, इंप्लोजन, जो लोकसभा चुनाव 2014 के दौरान प्रकाशित हुई, उसमें एक प्रसंग है. चीन के एक वरीय अधिकारी ने भारत के एक टॉप ब्यूरोक्रेट (राजदूत/ अंबेस्डर ) को, 2010 में कहा कि भारत को तीन चीजों को समझना होगा. पहला कि चीन और भारत के राजनीतिक मतभेद, आर्थिक विकास और व्यापार के हमारे रिश्तों में बाधा नहीं बनेंगे. दूसरी चीज, भारत को याद रखना होगा कि वह अपने पड़ोसियों, मसलन, म्यांमार (बर्मा), नेपाल और बांग्लादेश में दखलअंदाजी बंद करे. इस संदेश का एक अर्थ स्पष्ट था कि इन देशों को वह चीन के भरोसे छोड़ दे. चीन इन देशों में जो कुछ करता है, उससे भारत को किसी तरह की आपत्ति नहीं होनी चाहिए, साथ ही चीन के प्रयासों के समांतार अपने प्रयास से इन देशों से प्रगाढ़ संबंध बनाने की कोशिश नहीं करनी होगी. तीसरी चीज कि भारत को यह मान लेना होगा कि चीन और पाकिस्तान का रिश्ता मजबूत बन रहा है, और यह जारी रहेगा. क्योंकि पाकिस्तान को पारमाणु शक्ति संपन्न देश बनाने का मकसद ही यही है कि वह भारत को नियंत्रण में रख सके. इन तीनों संदेशों का अर्थ है कि चीन, भारत को आर्थिक दृष्टि से ठीकठाक देखने को तैयार है, पर वह भारत को क्षेत्रीय महाशक्ति के रूप में उभरते देखना नहीं चाहता. भारत, अमेरिका से मजबूत संबंध रखे, यह भी वह नहीं चाहता. गौरतलब है कि पाकिस्तान को मदद देना, पाकिस्तान के आतंकवादियों द्वारा भारत को लगातार तबाह करने या अस्थिर रखने की कोशिश का परोक्ष रूप से समर्थन करना.. चीन का मानस है. आज दुनिया की राजनीति में, आर्थिक ताकत ही महत्वपूर्ण है. भारत अंदर से कमजोर, लाचार और बेबस है कि दुनिया के बड़े देश, जो चीन के खिलाफ एक मोरचाबंदी करना चाहते थे, उन्होंने भी भारत में रुचि लेनी बंद कर दी. याद करिए, कुछेक वर्षो पहले तक जब भारत की जीडीपी तेजी से बढ़ रही थी, पूरी दुनिया, भारत को नयी महाशक्ति के रूप में देख रही थी. तब चीन को नियंत्रण में रखने के लिए, अमेरिका के उद्यमियों का प्रिय स्थल भारत बन गया था. तब अमेरिका के उद्यमी, वाशिंगटन में भारत के सबसे बड़े पैरोकार या लॉबिस्ट बन गये थे. बुश और मनमोहन सिंह के बीच की न्यूक्लीयर डील इसी लॉबी की देन थी. तब अमेरिका ने, भारत को सुरक्षा परिषद में सीट देने की वकालत की थी. लेकिन वर्ष, 2010 के बाद भारत की अर्थव्यवस्था लगातार कमजोर होती गयी. डॉलर के संदर्भ में कहें, तो सिकु ड़ गयी. चीन की अर्थव्यवस्था के मुकाबले 1/3 से घट कर 1/5 हो गयी. भारत में निवेश ध्वस्त हो गया. विदेशी निवेश आना बंद हो गया. याद कीजिए, 2012 की गर्मियों को, जिस देश में 2004-05 के आसपास पश्चिमी देश या अमेरिका संभावित महाशक्ति की छवि देख रहे थे, वह देश अर्थव्यवस्था पर निगाह रखनेवाली या अर्थव्यवस्था को आंकनेवाली पश्चिमी क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों की निगाह में, दुनिया की पांच नाजुक अर्थव्यवस्थाओं में से एक हो गया. भारत, आर्थिक दिवालिया होने के कगार पर पहुंचा. रुपया, डॉलर के मुकाबले 55 से गिर कर, 68 पर पहुंच गया. अब जाकर वह 62 पर पहुंचा है. अमेरिकी व्यवसायी, भारत के रेड टेप और भारत की खराब स्थिति से खिन्न हो गये. फिर भारत के खिलाफ लॉबिंग करने लगे. यह स्थिति हो गयी कि अमेरिका ने पिछले कुछेक वर्षो से अपना राजदूत भी हटा लिया था. किमोथी रेमीयर, जो तब भारत में, अमेरिका के राजदूत थे, उन्होंने पद छोड़ दिया. हालत यह हो गयी कि अमेरिका और भारत के बीच द्विपक्षीय व्यापार, अमेरिका-चीन या अमेरिका-यूएइ के मुकाबले काफी कम हो गया.

भारतीय और चीनियों के चरित्र में एक और फर्क है. चीन ने जब अपने कायाकल्प का फैसला किया, तो बाहर बसे चीनियों ने बड़े पैमाने पर चीन की मदद की. दूसरी तरफ भारत, जिसके लगभग 30 लाख से अधिक लोग सिर्फ अमेरिका में एनआरआइ और पीआइओ हैं. इनमें से अधिसंख्य भारत को गंदा देश, भ्रष्ट देश, अकर्मण्य देश, इनइफिशिएंट या थर्ड रेट कहते हैं. पर अप्रवासी चीनी, उस दौर में जब चीन अपने कायाकल्प के सपने के साथ जुड़ा था, अपने देश, अपने मुल्क की कमियों को जानते हुए भी इस संकल्प के साथ बंध गये कि अपने मुल्क को दुनिया में शीर्ष पर पहुंचायेंगे. चीनी कैसे काम कैसे करते हैं, यह गौर करिए. भारत में, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमेरिका जाने से पहले ‘मेक इन इंडिया’ अभियान शुरू कर गये. ठीक उसी दिन, चीन की सरकार की बैठक हुई, जिसकी अध्यक्षता, चीन के प्रधानमंत्री ने की. उसी क्षण चीन ने घोषणा की कि चीन की जो कंपनियां मैनुफैक्चरिंग में आधुनिक यंत्र लगाना चाहती हैं, अधिक निवेश करना चाहती हैं, अपनी कंपनियों का आधुनिकीकरण करना चाहती हैं, उनको बड़े पैमाने पर कर में रियायत (टैक्स इंसेन्टिव) देंगे. साथ ही रिसर्च और डेवलपमेंट पर भी बड़े पैमाने पर खर्च करेंगे. जिन कंपनियों की पुरानी परिसंपत्तियां हैं, उन पर कर की रियायत मिलेगी. इसके साथ ही अनेक अन्य कदम उठाने का फैसला चीन की इस कैबिनेट मीटिंग में हुआ. इस मीटिंग में यह भी तय किया गया कि ‘मेड इन चाइना’ का नारा दुनिया में शीर्ष पर रखना है. पता नहीं कितने भारतीयों ने गौर किया होगा कि भारत के प्रधानमंत्री द्वारा दिल्ली में ‘मेक इन इंडिया’ की घोषणा करने के कुछ घंटे बाद ही चीन में, चीनी सरकार ने अपने उद्योग-धंधों को बड़ी रियायत देकर, अधिक निवेश लाने के लिए, उद्योग सेक्टर को और आगे ले जाने के लिए ‘मेड इन चाइना’ को दुनिया का शीर्ष स्लोगन बनाये रखने का फैसला कर लिया.

दरअसल, हम भारतीय बात में विश्वास करनेवाले, नारों में विश्वास करनेवाले लोग हैं. पता नहीं नरेंद्र मोदी का यह ‘मेक इन इंडिया’ का क्या हश्र होगा? पर कुछ ही घंटों के अंदर चीन ने इसका जवाब दे दिया. एक और रोचक प्रसंग, मौजूदा केंद्र सरकार के इस नारे के बाद कांग्रेस के बड़े नेता दावा करने लगे कि एनडीए के लोग, कांग्रेस की हर चीज चुरा रहे हैं. ‘मेक इन इंडिया’ का नारा भी कांग्रेस का है. कांग्रेसियों ने बताया कि वर्ष 2010 में उन्होंने यह प्रयास किया था. अब कांग्रेस के लोगों से यह पूछा जाना चाहिए कि 2010 में आपने यह प्रयास किया, तो 2014 आते-आते, भारत दुनिया के सबसे खराब पांच देश, जिनकी अर्थव्यवस्था ध्वस्त या दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गयी, में कैसे शामिल हो गया? कैसे बेरोजगार लोगों की संख्या हमारे मुल्क में 11 करोड़ से अधिक हो गयी? (सौजन्य, 25.09.2014 टाइम्स ऑफ इंडिया : जनगणना 2011). जिन राज्यों में सबसे अधिक बेरोजगार हैं, वे हैं जम्मू कश्मीर, झारखंड, केरल, ओड़िशा और असम. अब अगर कांग्रेस का यह प्रयास था, तो यह स्थिति कैसे हुई?

26.09.2014 के टाइम्स ऑफ इंडिया में वेब यानी दुनिया में संपर्क का जो नया माध्यम है, उसकी अग्रणी दस भाषाओं की सूची छपी है. इस सूची में पहले स्थान पर अंग्रेजी, दूसरे स्थान पर चीनी, तीसरे स्थान पर स्पेनी, चौथे पर अरबी, पांचवें पर पुर्तगाली, छठे पर जापानी, सातवें पर रूसी, आठवें पर जर्मन, नौवें पर फ्रेंच और दसवें पर मलय है. इस सूची में एक भी भारतीय भाषा नहीं है. याद रखिए, चीन की भाषा दुनिया की सबसे कठिन भाषा है. पर चीन ने आज अपनी आर्थिक ताकत, आर्थिक हैसियत ऐसी बना ली है कि दुनिया के लोग चीनी भाषा का लोहा मानने लगे हैं. भारत के ग्रामीण लोग या गांवों में रहनेवाले लोग कहते हैं कि चीनी भाषा सीख लो, इससे रोजगार मिल सकता है. हमारे यहां वर्षो से भाषा की लड़ाई लड़ी जा रही है. खासतौर से हिंदी भाषा के लिए लड़नेवाले, हिंदी की दुर्गति के लिए सरकार को दोषी मानते हैं. पर हम अपना सामथ्र्य विकसित नहीं कर सकते? हम अपनी ताकत बढ़ा नहीं सकते? हमारे अंदर स्थिति ऐसी नहीं रही कि हम बिना सरकारी मदद के अपना कायाकल्प कर सकें? या सरकार के साथ चल कर भी हम कुछ कर पायें? वह मानस, जो दुनिया को बदलता है. वह मानस, जो किसी कौम को बदलता है. वह मानस, जो इतिहास को नया मोड़ देता है. वह मानस, जो किसी मुल्क का इतिहास नये ढंग से लिखता है. शायद भारत में है ही नहीं. जॉन इलियट ने अपनी किताब में चीन को समझने के लिए एक पुराने प्रसंग का उल्लेख किया है. चीनी राजा गारजिन का प्रसंग. दुनिया की मशहूर पत्रिका, द इकनॉमिस्ट ने 2010 में चीन पर एक विशेष अंक निकाला, यह विषय उठाते हुए कि चीन फ्रेंड है या फो.. यानी चीन दुनिया का मित्र है या दुश्मन? इस रिपोर्ट के विेषणों में चीन के पांचवी सदी के एक राजा का उल्लेख है. गो जियांग, पांचवीं शताब्दी में चीन के राजा थे. चीन की आधुनिक महत्वाकांक्षा, चीन के मानस के प्रतीक के रूप में उनकी कथा का उल्लेख इस पत्रिका में है. गो जियांग, चीन के ही दूसरे राजा द्वारा एक युद्ध में बुरी तरह हार गये. अपमानित किये गये. बंदी बना लिये गये. बंदी के रूप में कुछ वर्ष काटे. पुन: अपने को नये तरह से मजबूत किया. फिर उस राजा से अत्यंत क्रूरता से, अत्यंत सख्ती से, अत्यंत निर्ममता से बदला लिया. आधुनिक चीन के मानस को इस प्रसंग से समझा जा सकता है. चीन इस नये अवतार में वियतनाम, मलयेशिया, फिलीपींस, ब्रुनेई से ऐसा ही व्यवहार कर रहा है. चीन ने वियतनाम के तेल खनन के अधिकार पर आपत्ति की है. भारत को भी एक तरह से धमकी दी है. क्योंकि भारत की कंपनियां, वियतनाम के साथ मिल कर तेल खनन के काम में लगी हैं. चीन के दक्षिण इलाके में स्थित समुद्र को उसने अपना मान लिया है. जापान से इन्हीं समुद्री दीपों को लेकर विवाद है.

चीनी जल पर एकाधिपत्य (हाइड्रोलिक मोनोपोली) का अलग अभियान चला रहा है. भारत के पानी का एक-तिहाई हिस्सा, प्रतिवर्ष तिब्बत से आता है. ब्रrा चेल्लानी, जो भारत-चीन के बड़े अध्येता माने जाते हैं, कहते हैं कि चीन अपने पड़ोसियों से पानी बंटवारे के किसी किस्म के प्रबंधन को मानता ही नहीं. न उनसे संयुक्त जल समझौता चाहता है, न ही जल प्रबंध पर परामर्श चाहता है. वह मानता ही नहीं कि ये संयुक्त रूप से पड़ोसी देशों के भी प्राकृतिक संसाधन हैं. वह प्राकृतिक संसाधनों पर एकाधिपत्य चाहता है. 2013 में भारत की सीमा के 19 किलोमीटर अंदर आकर तक चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के 30 लोग लंबे समय रहे. आज भी डेरा डाले हुए हैं. इसी चीन पर पंडित नेहरू ने यकीन किया था और भारत में दिल्ली के अंदर 30 एकड़ जमीन चीनी दूतावास के लिए मुहैया करायी थी. सबसे अधिक जमीन इसी दूतावास को मिली. जॉन इलियट अपनी किताब में कहते हैं कि क्या ऐसे चीन का मुकाबला, वह भारत कर पायेगा जहां इंफ्रास्ट्रक्चर या निवेश में आज कोई पैसा लगाने को तैयार नहीं, जहां का इंफ्रास्ट्रक्चर धवस्त हो रहा है? याद करिए, चीन ने अपने उत्थान के दौर में देंग सियाओ पेंग के कार्यकाल में क्या तय किया था? देंग ने कहा, फिलहाल पहली प्राथमिकता है, चुपचाप मुल्क को शिखर पर ले जाने की. आर्थिक और विकास के मोरचे पर. दूसरे दौर में अब चीन, दुनिया में तेल, गैस, समुद्री इलाकों या नदियों के पानी पर अपना आधिपत्य जमा रहा है. वह अपना आधुनिकीकरण कर रहा है. तब देंग ने कहा था, हाइडिंग स्ट्रेंथ एंड बिडिंग टाइम यानी अपनी ताकत को गोपनीय रखते हुए, छुपाते हुए पहले बड़ी ताकत बनना है, विकास की दृष्टि से. यह चीन की राजनीति रही है. बहुत पहले चीन के इस मानस को बट्रेंड रसेल ने समझा था. बरट्रैंड रसेल, दुनिया के मशहूर दार्शनिकों में हैं. जुलाई, 1920 में अपनी पत्नी डोरा ब्लैक के साथ वह चीन गये. फिर अपने चीनी अनुभवों पर किताब लिखी, द प्राब्लम ऑफ चाइना. यह छोटी पुस्तिका, 1922 में प्रकाशित हुई. पुस्तक के पहले अंश में उन्होंने लिखा, आल द वल्र्ड विल बी वरचुअली इफेक्टेड बाई द डेवलपमेंट ऑफ चाइनीज अफेयर्स, विच मे विल प्रूव डिसिसिव फैक्टर फॉर गुड ऑर इविल ड्यूरिंग द नेक्स्ट टू सेनचुरीज. समङिाए रसेल जैसे दार्शनिक ने चीन के बारे में अपना यह अनुभव तब लिखा, जब चीन बुरी स्थिति में था. चीन के सामने कोई भविष्य नहीं था. कोई उम्मीद नहीं थी. चीन किसी संभावना के द्वार पर खड़ा नहीं था. पर चीन के लोगों से मिल कर, उनके संपर्क में आकर उन्होंने लिखा कि चीन आनेवाले वर्षो में इस स्थिति में पहुंचेगा कि पूरा संसार इसके विकास या चीनी मामलों से प्रभावित होगा. यह दुनिया के लिए निर्णायक बनेगा. अच्छी या बुरी दोनों दृष्टि से. आनेवाले दो सौ वर्षो के अंदर. आज चीन उस मुकाम पर है. बरट्रैंड रसेल ने भावी चीन की तस्वीर देखी थी. उन्हें अंदाजा था कि 100-200 वर्षो के भीतर चीन उभरेगा. लगभग 80-90 वर्षो के अंदर ही चीन ने अपनी ताकत दुनिया को दिखा दी है. चीन के मानस को समझने के लिए एक और नजीर. आज चीन दुनिया की नयी महाशक्ति के रूप में सामने है. माना जाता है कि चीन के इस उदय के पीछे बड़ी भूमिका देंग सियाओ पेंग की रही है. ऐतिहासिक कारणों से चीन के लोग, जापान से सबसे अधिक नफरत करते रहे हैं. द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की भूमिका के कारण. आज भी जापान की चर्चा छिड़ते ही, चीन में बड़े पैमाने पर प्रतिक्रिया होती है. जुलूस निकलते है. लोग आक्रामक होते हैं. चीनी जनता के मन में जापान के प्रति नफरत है. लेकिन उसी चीन के सबसे बड़े नेता ने देखा कि चीन की नयी तकदीर लिखने का रास्ता क्या है? सत्ता में पुनर्वापसी के बाद देंग ने पहली विदेश यात्र की, दक्षिण एशिया की. फिर जापान की. 1978 में वह थाईलैंड गये, वहां बसे चीनी लोगों से अपील करने कि चीन आपकी मातृभूमि है. इसे समृद्ध और धनी बनाना है. यह पीछे छूट गया है. चीन की प्रगति, उसकी व्यवस्था, उसके आर्थिक दायित्व को मजबूती देनी है. 1978 में ही वह जापान गये. शायद वह चीन के पहले बड़े नेता था, जो जापान गये. वह किसी तरह जापान से संपर्क बनाने के लिए परेशान थे. दोनों देशों के बीच बहुत गहरी दूरी थी. अपनी पहल पर जापान गये. जापान के बड़े नेताओं से मिले. उन्होंने जापान के सम्राट के सामने जो कहा, वह चीन को समझने के लिए हर भारतीय को जानना चाहिए. देंग ने जापान सम्राट से कहा कि बाइगांस शुड बी बाइगांस, एंड वी मस्ट बी फारवर्ड-लुकिंग इन द फ्यूचर एंड वर्क इन एवरी फील्ड टू डेवलप रिलेशंस ऑफ पीस एंड फ्रेंडशिप बिटवीन अवर टू कंट्रीज- यानी जो गुजर गया वो गुजर गया, उसे हम गुजर जाने दें. हमें भविष्य की ओर देखना चाहिए. हर क्षेत्र में मिल कर ऐसी शांति और मित्रता का रिश्ता बनाना चाहिए, ताकि दोनों मुल्क विकास का नया अध्याय लिख सकें. इसके पहले कोई चीनी नेता या बाद में भी, इस तरह जापान से रिश्ता बनाने के लिए आतुर नहीं था. पर चीन के हित में वह जापान गये और वहां जाकर उन्होंने कहा कि अतीत को अतीत ही रहने दे. अब नया अध्याय लिखेंगे. कहते हैं कि इसके बाद जापान ने चीन के आधुनिकीकरण में 100 बिलियन डॉलर की पूंजी लगायी. इस मुकाम तक पहुंचने के लिए चीन के नेताओं ने, निजी अपमान, निजी द्वेष-नफरत को दूर रख कर इतिहास लिखा? चाहे वह पांचवीं शताब्दी का चीन का राजा रहे हों या देंग. उन्होंने देश का हित, अपने हित से ऊपर रखा. फिर समय मिलने पर देश के अपमान का बदला लिया. आज वही चीन, जहां के एक बड़े नेता ने तीन-चार दशकों पहले जापान के सम्राट के पास जाकर कहा था कि अतीत को अतीत रहने दें, जिसने जापान की मदद से शुरुआती दौर में अपनी हैसियत बनाने में कामयाबी पायी, महाशक्ति बन कर जापान को कह रहा है कि जापान अपने द्वीप या आसपास के द्वीप छोड़ दे, जिसे चीन अपने अधिकार में समझता है. दोनों के रिश्तों में कटुता है.

दरअसल, आज के चीन के सामने भारत पीछे छूट गया है. भारत की सेना में रिसर्च और विकास के लिए जो विभाग हैं, उनमें 40 हजार लोग काम करते हैं. चीन में इस विभाग में चार लाख लोग काम करते हैं. उनका बजट भारत के बजट के मुकाबले दस गुना अधिक है. यही नहीं चीन के सामान्य नेताओं की इफीशिएंसी स्तर व संकल्प भी हमारे नेताओं के मुकाबले साफ है. 2013 में भारत के प्रधानमंत्री के साथ हम सब चीन के कम्युनिस्ट पार्टी स्कूल गये थे. कहने को वह कम्युनिस्ट पार्टी स्कूल था. भव्य प्रांगण. अत्याधुनिक संस्थान. चीन के भावी नेताओं के प्रशिक्षण, सीखने, जानने और पढ़ने का सेंटर ऑफ एक्सीलेंस. कहते हैं, हार्वर्ड जैसे संस्थान चीन ने बनाये हैं. मनमोहन सिंह ने जब वहां के प्रशिक्षित चीनी नेताओं को संबोधित किया, तो उनकी संख्या लगभग 500-600 के बीच रही होगी. हम सब ने उन 500-600 भावी चीनी नेताओं की बाडी लैंग्वेज देखी, आचरण देखा, व्यवस्था-अनुशासन देखा. उसके ठीक पलट भारत के नेताओं को देख कर गहरी निराशा होती है. भारत के राजनेताओं का चरित्र कैसा है? हाल में केंद्र में रहे दो पूर्व मंत्रियों को देखा. वे एक एयरपोर्ट पर इसलिए तमाशा कर रहे थे, क्योंकि वे सामान्य यात्री बस से विमान तक नहीं जाना चाहते थे. आम भीड़ के साथ. वे चाहते थे कि एयरलाइंस उनके लिए अलग गाड़ी की व्यवस्था करे. अब जो सांसद भी नहीं हैं, मंत्री बहुत पहले रहे होंगे, फिर भी उनकी बादशाहत का मिजाज देखिए. यह एक सामंती मिजाज है, जो लोग जाति, धर्म को जीवन में निर्णायक मानते हैं. जिनके लिए पैसा ही भगवान है. जिनके लिए देश महज नाम लेने की चीज है. तिजारत की चीज है. ऐसे नेता जिनके लिए सिर्फ अपना, अपने परिवार को विकसित करने की दृष्टि है. क्या ऐसे नेताओं के बल पर यह मुल्क चीन का मुकाबला कर पायेगा? दूसरी तरफ फरवरी 2014 में खबर आयी कि कैसे चीन के राष्ट्रपति सामान्य लोगों से मिल रहे हैं. अकेले टैक्सी यात्र कर. दुकान पर जा कर. चीन के लिए यह अनहोनी घटना है. चीन का राष्ट्रपति सामान्य भीड़, दुकान, सड़क पर अचानक दिखे! हाल ही में प्रोफेसर रामचंद्र गुहा ने अपने एक लेख में लिखा था कि भारत को आज एक प्रधानमंत्री आगे नहीं ले जा सकता. इसके लिए कम से कम 15-20 बेहतर मुख्यमंत्री चाहिए. आज देश के सभी 29 राज्यों में निर्णायक मुख्यमंत्री हों, जो अपने राज्य को बेहतर बना सकें, तब भारत अंदर से मजबूत होगा. पर मजबूत होने का यह सपना, चरित्र और संकल्प से पैदा होता है. अनुशासन से पैदा होता है. लेकिन भारत की राजनीति, चरित्र, संकल्प और अनुशासन की दृष्टि से कहां है?

इस नालेज एरा (ज्ञान की दुनिया) में शिक्षा से ही भारत, दुनिया में अपनी हैसियत बना सकता है. याद करिए, भारत के शिक्षा क्षेत्र में क्या हाल है? भारत रत्न के लिए इस देश ने प्रो चिंतामणि नागेसा रामचंद्र राव यानी सीएनआर राव को चुना. चुने जाने के दिन (19.11.2013), उन्होंने हमारे चरित्र के बारे में कहा कि भारतीय कठिन परिश्रम नहीं करते. हम चीनवालों की तरह नहीं हैं. हम बहुत आराम पसंद है. हम उतने राष्ट्रवादी नहीं है. अगर हमें थोड़ा ज्यादा पैसा मिल जाता है, तो हम विदेश जाने को तैयार हो जाते हैं. आज उनके अनुसार विश्व शोध में भारत की हिस्सेदारी 3.5 फीसदी है. वर्ष 2010 में थामसन रायटर की रिपोर्ट के अनुसार कंप्यूटर साइंस में भारत आगे माना जाता था, लेकिन शोध के मामले में भारत के हालात खराब थे. यहां हम चीन ही नहीं, कोरिया और ताइवान से पीछे हैं. दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में भारत की कहां गणना है, यह हमें जानना चाहिए. हम अपने बच्चों को चोरी कराने के लिए परीक्षा केंद्रों पर जाते हैं. क्या यह हमारी कौम, चीन में कठिन परिश्रम करनेवालों के सामने टिक सकती है? आज भारत पर कुल विदेशी कर्ज कितने का है? 2012-13 में, 2013-14 में 440.6 डॉलर (प्रति व्यक्ति पर) का कर्ज मुल्क पर है. हमारे कुल जीडीपी का 23 फीसदी हिस्सा आज भारतीय कर्ज है, यह हमारी स्थिति है. कितने लोग इन सवालों से चिंतित और पेरशान हैं, इस मुल्क में? जब तक हम ऐसे बुनियादी सवालों पर गौर नहीं करेंगे, यह देश चीन के हाथों ऐसे ही अपमानित होता रहेगा.

1962 के युद्ध का अपमान आज कितने भारतीयों को याद है? हाल में, के नटवर सिंह ने अपनी आत्मकथा लिखी है. उसमें एक प्रसंग है. इसे हर भारतीय को याद रहना चाहिए (पुस्तक : एक ही जिंदगी काफी नहीं, आत्मकथा – के. नटवर सिंह, प्रकाशक डायमंड बुक्स, हिंदी). यह प्रसंग शायद 1966-67 के आसपास का है. ‘हमारे दूतावास के दो युवा अधिकारी पीकिंग दूतावास में थे. वे पश्चिमी पहाड़ियों की ओर पिकनिक करने गये हुए थे. उन्होंने कुछ चित्र खींचे, तो उन्हें बंदी बना लिया गया और उनके साथ बहुत ही बदतर बरताव किया गया. नि:संदेह यह उसी मनोवैज्ञानिक युद्ध का अंश था, जिसे माओ और उसके लाल सिपाही सबको हतोत्साहित करने के लिए प्रयोग में ला रहे थे. बहुत गहरे दबाव या विरोध के बाद ही चीनी सरकार ने उन दोनों अधिकारियों को छोड़ने का निर्णय लिया. परंतु इससे पहले कि उन्हें वापस भेजा जाता, उन्हें एक ट्रक में डाल कर दो लाख लोगों के आगे उनका जुलूस निकाला गया. उन्हें धकेला गया. ठोकरों से मारा गया और लोगों ने उन पर थूका. ऐसा बरताव हर ज्ञात कूटनीतिक नियम के विपरीत था.’ (पेज-111). यह है चीन, और चीन का मानस. (समाप्त)

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