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छठ, गांवों के फिर से बस जाने का त्योहार

।। रवीश कुमार ।। (संपादक, एनडीटीवी इंडिया (हिंदी)) ये कौन-सा भारत है, जहां पखाने में लोग बैठ कर अपना सबसे पवित्र त्योहार मनाने घर जा रहे हैं. क्या हम इतने क्रूर होते जा रहे हैं कि सरकार, राजनीति और समाज को इन सब तसवीरों से कोई फर्कनहीं पड़ता. हर साल की यह तसवीर है. राजनीति […]

।। रवीश कुमार ।।

(संपादक, एनडीटीवी इंडिया (हिंदी))

ये कौन-सा भारत है, जहां पखाने में लोग बैठ कर अपना सबसे पवित्र त्योहार मनाने घर जा रहे हैं. क्या हम इतने क्रूर होते जा रहे हैं कि सरकार, राजनीति और समाज को इन सब तसवीरों से कोई फर्कनहीं पड़ता. हर साल की यह तसवीर है. राजनीति और सरकार की समझ पर उस खाते-पीते मध्यम वर्ग ने अवैध कब्जा कर लिया है, जो ट्विटर और फेसबुक पर खुद ही अपनी तसवीर खींच कर डालता हुआ, अघाया रहता है. जो अपनी सुविधा का इंतजाम ख़ुद कर लेता है. लेकिन रेल आने से घंटों पहले कतार में खड़े उन गरीबों की कोई सेल्फी कहीं अपलोड नहीं हो रही, जिनकी आवाज अब सिस्टम व मीडिया से दूर कर दी गयी है.

ये बिहारी नहीं हैं. ये गरीब लोग हैं, जो छठ मनाने दिल्ली या देश के अन्य हिस्सों से बिहार-झारखंड या पूर्वी उत्तर प्रदेश जाना चाहते हैं. हर साल जाते हैं और हर साल स्पेशल ट्रेन चलाने के नाम पर इनके साथ जो बरताव होता है, उसे मीडिया भले न दर्ज करे, लेकिन दिल-ओ-दिमाग में सिस्टम और समाज के प्रति तो छवि बन रही है, वह एक दिन खतरनाक रूप ले लेगी. साल दर साल इन तसवीरों के प्रति हमारी उदासीनता बता रही है कि देखने-पढ़नेवाला समाज कितना खतरनाक हो गया है. वह अब सिर्फ अपने लिए हल्ला करता है, गरीबों की दुर्गति देख कर किनारा कर लेता है.

न्यूज चैनलों पर जो तसवीरें दिखायी जा रही हैं, उन्हें ध्यान से देखिए. 10-12 लोग ट्रेन के शौच में किसी तरह ठूंसे पड़े हैं. नीचे से लेकर ऊपर की सीट भरी पड़ी है. चलने के रास्ते पर लोग बैठे हैं. आदमी की गोद में आदमी बैठा है. आदमी की गोद में औरत बैठी है और औरत की गोद में बच्चा. बच्चे किसी तरह ट्रेन की बोगी में घुस गये हैं. वे वहीं कहीं घुसिया कर खड़े हैं. कोई शौचालय तक के लिए नहीं उठ सकता.

पिछले साल कई लोगों ने बताया था कि 14-15 घंटे हो जाते हैं, शौचालय गये. पुरुष और औरतें दोनों बीमार पड़ जाते हैं. कुछ लोग वहीं बैठे-बैठे बोतल में पेशाब करने के लिए मजबूर हो जाते हैं. बच्चों की हालत का अंदाजा कीजिए. बस एक मिनट के लिए समझ लीजिए कि आपके बच्चे के साथ ऐसा हुआ हो, तब आपकी क्या प्रतिक्रि या होगी. किसी तरह घुट-घुट कर लोग सफर करने के लिए मजबूर किये जा रहे हैं.

आपके मन में यह ख्याल आ रहा होगा कि इतनी आबादी हो गयी है कि क्या किया जाये, लेकिन आबादी के कारण मध्यम वर्ग को तो ऐसी सजा नहीं भुगतनी पड़ती है. कुहासे के कारण दो-चार फ्लाइट देर से चलने लगती है, तो सारे न्यूज चैनलों पर लाइव कवरेज होने लगता है. लोग अपनी सेल्फी भेजने लगते हैं कि एयरकंडीशंड एयरपोर्ट पर दो घंटे से बैठे हैं. रेल तो रोज दो-चार घंटे चल कर पहुंचती रहती है. कोई शोर नहीं होता, बस बुलेट ट्रेन का ख्वाब परोस दिया जाता है.

एक बुलेट ट्रेन की लागत में कितनी धीमी रफ्तार की ट्रेनें राजधानी में बदल जायेंगी, इसका हिसाब मध्यम वर्ग नहीं करेगा, क्योंकि इससे गरीबों को लाभ होगा. आखिर क्यों इन तसवीरों को हिंदी न्यूज चैनलों के भरोसे छोड़ दिया गया. अंगरेजी के अखबार लोगों की इन तकलीफों से क्यों दूर रहे. क्यों मध्यमवर्ग ने हंगामा नहीं किया कि देखो ये मेरा इंडिया है. पहले इसे देखो, इसे कितनी तकलीफ हो रही है. रविवार शाम प्रधानमंत्री कई सांसदों के साथ चाय पी रहे थे. सबको सही सलाह दी कि लोगों के बीच जाइए.

गांवों में जाइए. यह बात तो सही है और यही होना भी चाहिए, लेकिन क्या उनके रेल मंत्री उस वक्त प्लेटफॉर्म पर थे, जब लोग मल-मूत्र के कमरे में ठूंस कर सफर करने के लिए मजबूर हो रहे थे. उनकी पार्टी या किसी भी पार्टी का कोई सांसद था, जो इन लोगों की तकलीफ के वक्त साथ हो.

ट्रेनों में ठुंसाये हुए इन लोगों की तसवीरों को फिर से देखियेगा. किसी के चेहरे पर रौनक नहीं है. किसी का कपड़ा महंगा नहीं है. चेहरे पर थकान है. हताशा है और ठगे जाने की हैरत. बच्चों के कपड़े लाल-पीले रंग के हैं, जो हम जैसे मध्यमवर्गीय कुलीन लोग अपने बच्चों को पहनाना भी पसंद न करें. कोई मां किसी तरह तीन-चार महीने के बच्चे को कलेजे से लगाये, किसी की गोद में बैठी थी. ये वो लोग हैं, जिनसे दिल्ली, लुधियाना और सूरत का काम चलता है. ये जीने भर कमा लेते हैं और साल में एक बार घर जाने भर बचा लेते हैं.

अचानक असहाय गरीबों की तसवीरों से टीवी का स्क्रीन भर गया, लेकिन उस अनुपात में नहीं, जिस अनुपात में भरना चाहिए. सबको पता है, इनके पास अखबारों की खबरें छांट-छांट कर पढ़ने और सत्ता के खेल को समझने का वक्त नहीं है. ये वे लोग हैं, जो चुनाव के वक्त प्रबंधन और नारों से हांक लिये जाते हैं. महानगरों के मध्यम वर्ग को इनकी सूरत ठीक से देखनी चाहिए. ये वही लोग हैं, जिनके सामने वह अपने रोजाना के काम के लिए गिड़गिड़ाता है. सारा दिन काम करा कर दिवाली की बख्शीश के नाम पर ठीक से 50 रु पये भी नहीं देता. फिर भी एक करीब का रिश्ता तो है इनसे. लेकिन ऐसा कैसे हो रहा है कि हम देख कर चुप हो जा रहे हैं.

दुनिया में जब तक गरीबी रहेगी, तब तक बहुत से लोग जाते रहेंगे. इनका घर जाना इस बात का जिंदा प्रमाण है कि तमाम घोषणाओं के बाद भी गरीबी है और गवर्नेंस के तमाम दावों के बाद भी सिस्टम इनके प्रति सहानुभूति नहीं रखता. अचानक कहीं से बजबजा कर निकल आये इन लोगों की तसवीर कुछ वक्त के लिए टीवी पर छा गयी है. फिर धीरे-धीरे गायब हो जायेगी और यही लोग तमाम बड़ी कंपनियों की कामयाबी के किस्से में ठेके के मजदूर बन कर बिला जायेंगे. इनके रहने की जगह और ट्रेन के उस शौचालय में कोई फर्क नहीं, जिसमें वे ठूंस-ठूंस कर भरे जा रहे हैं.

जिन झुग्गियों में ये रहते हैं, आप एक बार वहां जाएं, तो पता चलेगा. पब्लिक स्कूल बच्चों को नहीं ले जाते, तो आप अपने बच्चों को इन झुग्गियों में लेकर जाइए, ताकि बच्चे के साथ-साथ आप भी संवेदनशील बन सकें कि आपके उस इंडिया का नागरिक किन हालात में रहता है, जो इंडिया, चीन और अमेरिका को हराने निकला है. वैसे चीन और अमेरिका में भी गरीबों को ऐसे ही हालात में रहना पड़ता है. अगर सिस्टम इन गरीबों के प्रति उदार नहीं हुआ, तो एक दिन ये बुलेट ट्रेन पर भी इसी तरह कब्जा कर लेंगे. वो मिडिल क्लास को ठेल कर अपने आपको हर उन खांचों तक में ठूंस देंगे, जिनमें मध्यम वर्ग का नया सेल्फी क्लास मल-मूत्र त्याग करता है. छठ की इस यात्रा की ये तसवीरें हम सबके लिए शर्मनाक प्रसारण हैं.

आजकल कई लोग पूछते हैं कि सबको छठ पर जाने की क्यों पड़ी है. छठ में हम इसलिए जाते हैं, ताकि जो घर खाली कर आये हैं, उसे फिर से भर सकें. छठ ही वह मौका है, जब लाखों लोग अपने गांव-घर को कोसी की तरह दीये और ठेकुए से भर देते हैं. गांव-गांव खिल उठता है. इस खुशी के लिए ही वह इतनी तकलीफदेह यात्राएं करते हैं. छठ गांवों के फिर से बस जाने का त्योहार है. आप जाकर देखिए, गांवों में कहां-कहां से लोग आये होते हैं. हिंदुस्तान का हर हिस्सा बिहार में थोड़े दिनों के लिए पहुंच जाता है.

हम बिहारी लोग छठ से लौट कर कुछ दिनों बाद फिर से खाली हो जाते हैं. छठ आती है, तो घर जाने के नाम पर ही भरने लगते हैं. इसलिए इस मौके पर घर जाने को कोई दूसरा नहीं समझेगा. किसी समाजशास्त्री ने भी अध्ययन नहीं किया होगा कि क्यों छठ के वक्त घर आने का बुलावा आता है. सबको पता है, बाहर की नौकरी और जिंदगी एक दिन इस रिश्ते को कमजोर कर देगी. फिर सब कुछ हमेशा के लिए छूट जायेगा. छठ ही आखिरी गर्भनाल है, जो इस रिश्ते को छूटने नहीं देती. साल में एक बार घर बुला लेती है. जो नहीं जाते हैं, वो भी छठ में घर ही रहते हैं. मैं नहीं जा रहा हूं, लेकिन मेरा सिस्टम अपने आप किसी वाई-फाई की तरह बिहार के गांव-घरों से कनेक्ट हो गया है.

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