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हुनर का संकट: इंजीनियर-इलेक्ट्रीशियन की आय बराबर

देश में कौशल विकास कार्यक्रम पर बड़ा जोर है. इसके लिए करोड़ों-करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं. नयी सरकार भी स्किल डेवलपमेंट पर बहुत जोर दे रही है. लेकिन आज देश में अच्छे फिटर, वेल्डर, इलेक्ट्रीशियन और प्लंबर खोजे नहीं मिलते. नतीजा ये है कि आज एक अच्छे मिस्त्री की कमाई किसी इंजीनियर से कम […]

देश में कौशल विकास कार्यक्रम पर बड़ा जोर है. इसके लिए करोड़ों-करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं. नयी सरकार भी स्किल डेवलपमेंट पर बहुत जोर दे रही है. लेकिन आज देश में अच्छे फिटर, वेल्डर, इलेक्ट्रीशियन और प्लंबर खोजे नहीं मिलते. नतीजा ये है कि आज एक अच्छे मिस्त्री की कमाई किसी इंजीनियर से कम नहीं है. हुनर के इसी संकट पर पेश है यह लेख .

सेंट्रल डेस्क

हमारे देश में बच्चे के पैदा होते ही मां-बाप उसके डॉक्टर या इंजीनियर बनने की ख्वाहिश पालने लगते हैं. शायद इसी का नतीजा है कि कुकुरमुत्ते की तरह देश में निजी इंजीनियरिंग कॉलेज खुल गये हैं. और, लोग बिना यह सोचे-समङो कि आगे भविष्य क्या है, उनमें दाखिला ले ले रहे हैं. एकदम कमजोर आय वर्ग के लोगों को छोड़े दें, तो कोई भी अपने बच्चों को औद्योगिक प्रशिक्षण नहीं दिलवाना चाहता, क्योंकि फिटर, वेल्डर, इलेक्ट्रीशियन वगैरह का काम सफेदपोश नहीं माना जाता. लेकिन, एक ताजा रिपोर्ट ऐसे लोगों की आंखें खोल सकती है.

श्रम बाजार पर गहरी नजर रखनेवाली संस्था, टीमलीज की ताजा प्राथमिक रिपोर्ट के मुताबिक, इन दिनों एक इलेक्ट्रीशियन की औसत शुरु आती तनख्वाह 11,280 रु पये प्रति माह है, जबकि एक डेस्कटॉप इंजीनियर की औसत तनख्वाह इससे महज 3,420 रु पये ज्यादा, यानी 14,700 रुपये है. अब दोनों की पढ़ाई-लिखाई की तुलना करें. इलेक्ट्रीशियन 12वीं पास है और अपना काम जानता है, पर उसके पास कोई तकनीकी डिग्री नहीं है. इस आधार पर उसे अकुशल कर्मचारी कहा जायेगा. ऐसे मिस्त्री किसी उस्ताद से या किसी गैर मान्यता प्राप्त छोटे-मोटे संस्थान से काम सीखते हैं. वहीं डेस्कटॉप इंजीनियर इंजीनियरिंग स्नातक है, जो अमूमन चार साल का पाठ्यक्रम होता है और इसमें मोटी रकम खर्च होती है.

शुरुआत ही नहीं, आगे चल कर भी दोनों की तनख्वाहों में बहुत ज्यादा फर्क नहीं रहता. दो से पांच साल के अनुभव के बाद इलेक्ट्रीशियन की तनख्वाह अगर 15,500 रुपये तक हो जाती है, तो डेस्कटॉप इंजीनियर भी इससे कुछ ही ज्यादा 18,950 रुपये तक कमा पाता है.

पांच से आठ साल की नौकरी के बाद, इलेक्ट्रीशियन 26,000 हजार रु पये प्रति माह कमा रहे हैं, तो डेस्कटॉप इंजीनियर महज 3700 रुपये ज्यादा यानी 29,700 रुपये पा रहे हैं.

मांग से ज्यादा इंजीनियर
तनख्वाहों में ज्यादा फर्क इसलिए नहीं है, क्योंकि एक ओर जहां फिटर, वेल्डर, इलेक्ट्रीशियन और प्लंबर वगैरह की भारी कमी है, वहीं सूचना तकनीक (आइटी) के क्षेत्र में किस्मत आजमाने वाले इंजीनियरों की एक बड़ी फौज है. टीमलीज सर्विसेज की सह-संस्थापक और वरिष्ठ उपाध्यक्ष रितुपर्णा चक्र वर्ती कहती हैं, ‘पिछले 6-7 सालों में वेतन ढांचे के अध्ययन के दौरान हमने पाया कि इलेक्ट्रीशियन की तरह प्लंबर और वेल्डर जैसे दूसरे कामगारों के वेतन में भी इजाफा हुआ है. दूसरी ओर इस अवधि में इंजीनियरों और खास कर आइटी इंजीनियरों का शुरु आती वेतन कमोबेश स्थिर ही रहा है.’ तकनीकी क्षेत्र की रैंकिंग में डेस्कटॉप इंजीनियर सबसे निचले पायदान पर आता है.

चक्रवर्ती का कहना है कि एक दशक पहले जब आइटी सेक्टर सबाब पर था, तब इंजीनियरों की मांग बहुत ज्यादा थी. लेकिन, अब भी मांग वही है, करीब 4 लाख के आसपास. जबकि, आइटी सेक्टर में घुसने की जद्दोजहद में जुटे इंजीनियरों की तादाद बढ़ कर 15 लाख हो गयी है. इससे मांग और आपूर्ति के बीच असंतुलन पैदा हो गया है.

10 इलेक्ट्रीशियन चाहिए, तो दो भी नहीं मिलते
चक्रवर्ती इंडियन स्टाफिंग फेडरेशन की भी अध्यक्ष हैं. उनके मुताबिक, उद्योगों को जहां 10 इलेक्ट्रीशियनों की जरूरत होती है, तो वहां हमें दो को खोजने में भी मशक्कत करनी पड़ती है. हाल ही में एक विशाल इन्फ्रास्ट्रक्चर कंपनी ने हमसे कहा कि अगर हम उन्हें एक लाख वेल्डर, फिटर, प्लंबर और इलेक्ट्रीशियन मुहैया करवा सकें, तो उन्हें उन सबको काम पर रखने में खुशी होगी. यानी, औद्योगिक कामगारों की जबरदस्त मांग है.

दरअसल, इन्फ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में तेजी की वजह से कामगारों की जरूरत बढ़ी है. उदाहरण के तौर पर, टाटा स्टील अभी ओड़िशा के कलिंगनगर में 60 लाख टन क्षमता वाली हरित क्षेत्र समेकित स्टील परियोजना स्थापित कर रही है. कंपनी के एक आधिकारिक प्रवक्ता के मुताबिक, स्टील प्लांट के निर्माण में इलेक्ट्रीशियन, वेल्डर, फिटर जैसे कौशल की बड़ी तादाद में जरूरत है. भले ही इनमें कुछ की जरूरत बहुत कम समय के लिए ही हो.

सामाजिक और सांस्कृतिक बाधाएं
गोदरेज एंड बॉयस में इंडस्ट्रियल रिलेशंस के वरिष्ठ उपाध्यक्ष जीआर दस्तूर मानते हैं कि शहरी और अर्ध-शहरी इलाकों में सामाजिक-सांस्कृतिक बाधाएं युवाओं को पेशेवर कौशल हासिल करने से रोकती हैं. उनका कहना है कि औद्योगिक समूहों को सरकार और स्वयंसेवी संगठनों के साथ मिल कर ऐसे कौशल हासिल करने के लिए युवाओं को बढ़ावा देना होगा. साथ ही उनके कौशल के मुताबिक उन्हें और ज्यादा सम्मान और महत्व देना होगा.

रैंडस्टैड इंडिया के सीइओ मूर्ति के उप्पालुरी का कहना है, समाज के हरेक वर्ग में शिक्षा का स्तर बढ़ने से अपेक्षाएं बढ़ी हैं. औसतन, ऐसे पेशे में योग्यता ज्यादातर अनुभव आधारित होती है, क्योंकि कॉलेजों से तैयार प्रतिभाएं नहीं मिलती हैं. व्यावसायिक शिक्षा संस्थानों से निकले हुए स्नातक ऑटो निर्माण जैसी कंपनियों में काम करना पसंद करते हैं या खाड़ी के देशों का रु ख कर लेते हैं. उनका कहना है कि मांग और मुद्रास्फीति में वृद्धि से कामगारों के वेतन में सालाना औसतन 15 से 20 फीसदी का इजाफा होता है.

(टाइम्स ऑफ इंडिया से साभार)

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