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फैसले पर पुनर्विचार किया जाये

मेधा पाटकर, सामाजिक कार्यकर्ता आदिवासियों और वनवासियों को वनभूमि से बेदखल करने का फैसला अन्यापूर्ण है. उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर पुनर्विचार किया जायेगा. इसके साथ ही, आदिवासियों को भी अपनी लड़ाई लड़नी चाहिए कि उन्हें इस तरह से बेदखल न किया जाये. आदिवासियों को मूल निवासी मानते हुए मनमोहन सिंह […]

मेधा पाटकर,

सामाजिक कार्यकर्ता
आदिवासियों और वनवासियों को वनभूमि से बेदखल करने का फैसला अन्यापूर्ण है. उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर पुनर्विचार किया जायेगा. इसके साथ ही, आदिवासियों को भी अपनी लड़ाई लड़नी चाहिए कि उन्हें इस तरह से बेदखल न किया जाये. आदिवासियों को मूल निवासी मानते हुए मनमोहन सिंह सरकार ने वन अधिकार कानून के तहत उन्हें वनों-जंगलों में रहने का अधिकार दिया था. इसलिए आदिवासियों को बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के जंगलों से बेदखल करना उचित नहीं है.
एक जमाने से आदिवासी जंगलों में रहते आये हैं, आखिर सरकार उन्हें इस तरह कैसे हटा सकती है? कई राज्यों में उनके दादा-परदादा घर बनाकर रहते आये हैं, और अब वे रह रहे हैं. जब शहरों में शहरियों की तीसरी पीढ़ी के कागजात खोजे नहीं मिलते, तो फिर आदिवासियों के लिए ऐसी बातें क्यों कही जाती हैं, यह समझ से परे है. जबकि, वन अधिकार कानून आदिवासियों को हटाने की बात नहीं करता. कानून में दो तरह के अधिकार दर्ज हैं.
उसमें सामुदायिक अधिकार की बात कही गयी है, जिसका तात्पर्य यह है कि गांव की सीमा के अंदर जल-जंगल-जमीन जो भी है, उन सब पर उनका अधिकार है, वहां की ग्रामसभा का अधिकार है. बिना ग्रामसभा की अनुमति के सरकार वहां से किसी को हटा नहीं सकती है. दूसरा है, व्यक्तिगत जमीन पर अधिकार. इन अधिकारों को सुनिश्चित करने की प्रक्रिया में राज्य सरकारें बहुत ढिलाई करती रही हैं. दरअसल, नेताओं में राजनीतिक इच्छाशक्ति ही नहीं है.
हमने लड़ाई लड़कर कई आदिवासी गांवों को अधिकार दिलाये हैं, लेकिन आज भी देशभर में हजारों ऐसे गांव हैं, जिन्हें उनके अधिकारों से वंचित रखा गया है. इसलिए इस कानून को नकारना है, तो पहले एक लंबी प्रक्रिया का पालन करना पड़ेगा. सरकार को साबित करना होगा कि आखिर वह उन्हें क्यों हटा रही है. भाजपा कह रही है कि यह कानून ही गलत है, तो वह सबसे पहले कानून में बदलाव करे. लेकिन, फिलहाल उनमें यह हिम्मत नहीं है कि वे कानून में बदलाव करें.
आदिवासियों और वनवासियों को वनभूमि से हटाने का फैसला इसलिए आया है, क्योंकि सरकार के वकील ही उनके पक्ष में खड़े नहीं हुए. आज पर्यावरण मंत्रालय एकदम खत्म-सा हो गया लगता है. पर्यावरण मंत्रालय की कोई नहीं सुनता है और वह भी कोई हस्तक्षेप नहीं करता है. साफ है कि जंगल की जमीन पर बहुत सारे लोगों की नजर है. इसलिए कभी विकास के नाम पर, तो कभी पर्यटन के नाम पर जंगलों से वनवासियों को हटाने के तरह-तरह के षड्यंत्र रचे जा रहे हैं. किसी को भी बेदखल करने के फैसले से पहले आदिवासियों की और उसके ग्रामसभाओं को सहभागी बनाया जाना चाहिए. लेकिन, ऐसा नहीं हुआ.
साफ है कि जंगल की जमीनों पर विकास के नाम वाले प्रोजेक्ट को बढ़ावा देने के लिए साजिश रची जा रही है. जिन गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) ने जंगलों को कटने से बचाने के नाम पर आदिवासियों को हटाने की बात कही है, क्या उन्हें समझ नहीं है कि आदिवासियों के बेदखल होने से जंगलों की कटाई और तेज हो जायेगी और वहां प्राकृतिक संपदा का दोहन होगा?
दरअसल, कोर्ट को बहुत भ्रमित किया गया है, एक तरफ यह कहकर कि आदिवासी जंगलों पर कब्जा कर उनको नुकसान पहुंचा रहे हैं, दूसरी तरफ सरकारी वकील कोर्ट में उपस्थित ही नहीं हुआ. मूलनिवासियों को कभी सुना ही नहीं गया, इसलिए इस फैसले के लिए चली पूरी प्रक्रिया विकृत की गयी लगती है. उचित होगा कि सुप्रीम कोर्ट खुद ही स्वत: संज्ञान ले, ताकि आदिवासियों को न्याय मिल सके. बातचीत : वसीम अकरम

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