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कमजोर वर्गों का समाज के संसाधनों पर पहला हक

अनिल गर्ग, सामाजिक कार्यकर्ता देश का दुर्भाग्य है कि जिन हाथों को अन्याय दूर करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी, वही अन्याय कर रहे हैं. वन विभाग हो, आदिम जाति कल्याण विभाग हो या राजस्व हो, तीनों विभागों ने ही इस मामले में कोई अच्छी भूमिका नहीं निभायी है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले में लाखों […]

अनिल गर्ग,
सामाजिक कार्यकर्ता

देश का दुर्भाग्य है कि जिन हाथों को अन्याय दूर करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी, वही अन्याय कर रहे हैं. वन विभाग हो, आदिम जाति कल्याण विभाग हो या राजस्व हो, तीनों विभागों ने ही इस मामले में कोई अच्छी भूमिका नहीं निभायी है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले में लाखों आदिवासियों को बागों और जमीन के हक से अमान्य घोषित किया गया है, वह अधिकारियों की गंभीर लापरवाही का नतीजा है. उदाहरण के लिए, मध्य प्रदेश में जो वन ग्राम हैं, उन्हें राजस्व ग्राम नहीं बनाया गया और बागों को अमान्य घोषित कर दिया गया.

मध्य प्रदेश सरकार ने विधानसभा में बताया था कि राज्य में 925 वन ग्राम हैं और 122 असर्वेक्षित बस्तियां हैं. इन गांवों को राजस्व ग्राम का दर्जा देने के बजाय, उनके दावेदारों को अमान्य घोषित कर दिया गया. ऐसी गलती फैसले से प्रभावित सभी राज्यों में हुई है. इससे पहले, सरकारों ने गैर-आदिवासियों के वन भूमि, बागों पर आये लाखों दावों को पहले ही अमान्य घोषित कर दिया था. इसके पीछे कारण दिया जाता रहा है कि जमीन पर गैर आदिवासियों का तीन पीढ़ियों से कब्जा नहीं है.

कानून में कहीं नहीं लिखा है कि तीन पीढ़ी पहले से कब्जा होना जरूरी है. यह सारे तथ्य सुप्रीम कोर्ट के सामने नहीं रखे गये, जबकि राज्य सरकार व केंद्र सरकार की जिम्मेदारी थी कि वह इन सभी तथ्यों को सुप्रीम कोर्ट के सामने रखे. देश की सरकार ने अपना वकील ही सुप्रीम कोर्ट में खड़ा नहीं किया. वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट वाले अदालत के सामने एकतरफा बात करके आदिवासियों की बेदखली के लिए जिरह करते रहे, और किसी ने कुछ नहीं किया. इस फैसले के बाद जो आदिवासी अपनी जमीन से बेदखल किये जाने वाले हैं, उनकी कोई आवाज सुप्रीम कोर्ट में नहीं सुनी गयी.

न्याय का सिद्धांत है कि आप मेरे खिलाफ आदेश कर रहे हो, मुझे सुनो तो. लेकिन नहीं सुना गया और आदेश कर दिया गया कि जाओ तुम्हें बेदखल करते हैं. केंद्र व राज्य सरकारों की इच्छा से, मंशा से ही आदिवासी मंत्रालय ने अपना वकील पीछे कर लिया और जिरह नहीं कराया. सरकारों के साथ जो समूह काम कर रहे हैं, उनमें वाइल्ड लाइफ जैसे ग्रुप हैं, जो विदेशों से चंदा लेते हैं और देश के पूरे सामाजिक ताने-बाने को तोड़ने में लगे हुए हैं.

यह लोग सिर्फ वनों और वन्य प्राणियों को विषयवस्तु मानते हैं. दूसरी तरफ, कॉरपोरेट सेक्टर के लोग हैं, जो आदिवासियों को बेदखल करके जमीनों को हथियाना चाहते हैं. आदिवासियों के रहते तो हथियाना मुश्किल है, इसलिए यह सारा खेल रचा गया है. मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में तो वन अधिकार कानून के साल 2008 के जनवरी में लागू होने के समय से ही उसका उल्लंघन होता रहा है. पूरे देश में ऐसा नहीं हुआ कि किसी गैरवांछित उद्देश्य के लिए वन भूमि का आवंटन किया जा रहा हो और वहां रहने वाले कम से कम 50 फीसदी आदिवासियों की सहमति और प्रस्ताव लेने की जहमत उठायी गयी हो. इसे क्या माना जायेगा? मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में अब कांग्रेस की सरकार है.

चुनाव के पहले उनके घोषणापत्र में था कि वन अधिकार कानून को पूरी तरह लागू किया जायेगा। लेकिन दोनों राज्य सरकारों की ओर से अभी तक कोई ऐसा पत्र नहीं आया कि वे गलतियों को सुधारने की मंशा रखते हैं. राज्यों के वन मंत्री इतने व्यस्त रहते हैं कि उनके पास लाखों आदिवासियों के बेदखल किये जाने के मुद्दे पर बात करने के लिए समय नहीं है. इस मामले में अधिकारियों से लेकर मंत्रियों, सभी ने कानून का उल्लंघन किया ही है, सिरे से आदिवासियों के अधिकारों को नजरअंदाज किया है.

वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट जैसे एनजीओ कॉरपोरेट सेक्टर, मल्टीनेशनल कंपनियों के लिए काम करते हैं. ये सोचते हैं कि इनके हिसाब से संविधान की विवेचना की जायेगी. समाज के कमजोर वर्ग का ही समाज के संसाधनों पर पहला हक होता है. यह कमजोर वर्ग इन संसाधनों द्वारा जीवनयापन करते हैं, जिसे लूटने की कोशिश की जाती है. इस अंतर्विरोध को समझना जरूरी है. फिलहाल, उम्मीद कर रहा हूं कि देश की जनता आदिवासियों के साथ हुए अन्याय के खिलाफ आवाज उठायेगी.
बातचीत: देवेश

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