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इस सूर्य का उजास हमेशा बना रहेगा

चित्रा मुद्गल वरिष्ठ लेखिका मैं गहरे दुख और उदासी में हूं. बेशक वह लगातार अस्वस्थ चल रहे थे, लेकिन लगता था कि कोई चमत्कार होगा और हमेशा तनकर चलनेवाले भारतीय हिंदी साहित्य के आलोचना के शिखर पुरुष फिर से वैसे ही तनकर चलते हुए दिखाई देंगे. अपने सौ वर्ष पूरे करेंगे. पर शायद इसमें किसी […]

चित्रा मुद्गल
वरिष्ठ लेखिका
मैं गहरे दुख और उदासी में हूं. बेशक वह लगातार अस्वस्थ चल रहे थे, लेकिन लगता था कि कोई चमत्कार होगा और हमेशा तनकर चलनेवाले भारतीय हिंदी साहित्य के आलोचना के शिखर पुरुष फिर से वैसे ही तनकर चलते हुए दिखाई देंगे. अपने सौ वर्ष पूरे करेंगे. पर शायद इसमें किसी का वश नहीं रह जाता है. वह अपने पीछे जो रिक्तता छोड़ गये हैं, वो रिक्तता है दूसरी परंपरा की, जिसकी खोज उन्होंने की. जिस पर उन्होंने पुस्तक लिखी. मुझे हमेशा लगता रहा काश उनके सामने ही तीसरी परंपरा आलोचना में खोज देता कोई और खड़ा हो जाता तनकर.
यह समालोचना और आलोचना की दुनिया का एक सच है कि डाॅ रामविलास शर्मा, रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी की अगली विरासत के रूप में नामवर जी ने अपनी उपस्थिति दर्ज की थी. वह दूसरी परंपरा के एकमात्र स्तंभ थे. यह रिक्तता कहीं बहुत गहरे कचोट रही है, पर उम्मीद कायम रखनी चाहिए कि समकालीन आलोचना परिदृश्य में उनकी जगह खाली नहीं रहेगी. निश्चय ही उसका कोई दावेदार तीसरी परंपरा के रूप में उठ खड़ा होगा. लेकिन, इस वक्त तो कहीं न कहीं गहरा दुख है, उस दुख में अभी धुंधलका बहुत स्पष्ट नहीं है.
पिछले पचपन वर्षों से, मैं दो-चार वर्ष को इधर-उधर कर दूं, तो भी मुझे लगता है निर्विवाद रूप से वह हिंदी आलोचना साहित्य की धुरी बने रहे.
हर व्यक्ति उनके मुंह से अपनी कृति, अपनी सर्जना के बारे में कुछ शब्द सुनने को व्याकुल रहता था. हर कोई चाहता था कि नामवर जी उसके लिखे को पढ़ लें और उस पर कुछ शब्द बोल दें. वह जिस शिखर पर बैठे थे, वहां से उनके कहे गये एक-एक शब्द के बड़े मायने थे. लोगों को लगता था कि वह जो कुछ भी कहेंगे, उस कहे गये से एक नयी दृष्टि बनेगी. उनके शब्द खुलती चौखटों का पर्याय होते थे. ऐसे थे नामवर सिंह. अपने नाम के अनुकूल नामवर.
हमारे नामवर चले गये. अब कोई दूसरा नामवर नहीं होगा, जैसे रामविलास शर्मा दूसरे नहीं होंगे, जैसे रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी दूसरे नहीं होंगे.
आलोचना में ये सब अपने-अपने वजूद के साथ ग्रीक जैसा सामर्थ्यबोध करानेवाली हस्तियां हैं. नामवर जी स्वयं अपनी विरासत बने और अपनी परंपरा भी कायम की. हिंदी साहित्य में उनके अवस्मिरणीय योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता है. वह आलोचक ही नहीं, एक विचारक भी थे. वाचिक परंपरा की जो हमारी विरासत रही है, वह उसका भी प्रतिनिधित्व करते थे. हिंदी साहित्य के बाहर की दुनिया में भी उनकी धमक थी. उन्हें सुनने के लिए बहुत लाेग जुटते थे.
अपनी गंभीर बातों को भी जिस रसमय तरीके से प्रस्तुत करते थे और बीच-बीच में जो चुटकियों की पींगे लेते थे, उन पीगों की गांठ लोगों के मन में बैठ जाती थी. लोग खोजते रह जाते थे कि आखिर उसके निहितार्थ क्या हैं. उनके कहे गये पर बहुत- बहुत दिनों तक लोग बात करते थे. उनकी कही गयी बात चर्चा का विषय बनी रहती थी. कई बार लोग उनका विरोध भी करते थे, लेकिन यह विरोध ज्यादा दिन तक कायम नहीं रह पाता था.
खास बात यह है कि वह कभी भी अपने प्रति होनेवाले विरोध, आलोचना और विवाद से विचलित नहीं होते थे. सूर्य के ताप को और काैन-सा ताप झुलसा सकता है, वह अपने ही ताप में सुलगता है, उजास देता है, वह हर दिन उसी उजास के साथ उगता है. नामवर जी सूर्य की तरह थे. इस सूर्य का उजास हिंदी साहित्य जगत में बना रहेगा.

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