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हिंदी का आखिरी पब्लिक इंटेलेक्चुअल

मदन कश्यप वरिष्ठ कवि-आलोचक नामवर जी जिस उम्र में थे, जैसी उनकी तबीयत चल रही थी, ऐसे में उनका जाना स्वाभाविक है. लेकिन, यह कहना पड़ेगा कि हिंदी में उनका कोई विकल्प नहीं है. कई बार किसी के जाने पर औपचारिकतावश कहा जाता है कि अपूरणीय क्षति हुई है, लेकिन नामवर जी के जाने से […]

मदन कश्यप
वरिष्ठ कवि-आलोचक
नामवर जी जिस उम्र में थे, जैसी उनकी तबीयत चल रही थी, ऐसे में उनका जाना स्वाभाविक है. लेकिन, यह कहना पड़ेगा कि हिंदी में उनका कोई विकल्प नहीं है. कई बार किसी के जाने पर औपचारिकतावश कहा जाता है कि अपूरणीय क्षति हुई है, लेकिन नामवर जी के जाने से सचमुच हिंदी की बड़ी क्षति हुई है. नामवर सिंह ऐसे अकेले इंसान थे, जिन्हें हिंदी साहित्य के बाहर व्यापक समाज और पूरे देश में इतने बड़े व्यक्तित्व के रूप में जाना जाता था. हिंदी के लेखकों में अकेले ‘पब्लिक इंटेलेक्चुअल’ नामवर जी थे. अब हमारे बीच ऐसा कोई नहीं है.
उनके जाने से अब एक ऐसा सन्नाटा हिंदी में आया है, जिसका कोई हिसाब नहीं लगा सकता है. कम उम्र से ही नामवर जी अद्भुत मेधा के थे. छायावाद पर लिखी उनकी किताब रात-रात भर जागकर 15-20 रातों में लिखी गयी थी. रात भर वे लिखा करते थे, सुबह खा-पीकर सो जाया करते थे. इसी से पता चलता है कि किस अतुलनीय क्षमता के मालिक वह थे. उन्होंने लंबे समय तक वैचारिक संघर्ष किया. ‘इतिहास और आलोचना’ संकलन के लेखों से वैचारिकता के संघर्ष से जुड़े सभी उत्तर आपको मिल जाते हैं.
उनकी किताब ‘कविता के नये प्रतिमान’ हिंदी आलोचना की आखिरी किताब है, जो कविता को समय से जोड़कर देखती है. नामवर जी के पहले यह प्रवृत्ति मुक्तिबोध, रामचंद्र शुक्ल के लेखन में दिखायी देती थी, लेकिन अब नामवर जी के बाद खत्म हो गयी है. आखिरी सालों को छोड़ दें, तो उसके पहले तक (करीब 88 साल की उम्र तक) उनमें नये लेखकों को पढ़ने, नयी समझ विकसित करने की ललक बहुत अद्वितीय थी.
कुछ अद्भुत विशेषताएं थीं उनके भीतर, मसलन निजी विरोध को भूलकर विचार के पक्ष में खड़ा हो जाना. इतने ज्ञान के बाद, ऐसी विनम्रता मुझे कहीं और देखने को नहीं मिली. उनके जाने से जो शून्य पैदा हुआ है, उसकी भरपायी अब नहीं हो सकेगी. नामवर जी जैसा आलोचक और व्यक्तित्व समय पैदा करता है और शायद वैसा समय ही हम खो चुके हैं.

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