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धरती बचाने की चुनौती, बहुत जरूरी है जल संरक्षण, वन्य जीवों पर मंडरा रहा खतरा

विकास के लिए जिस तरह से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हो रहा है, उससे पर्यावरण गंभीर खतरे में है. जलवायु परिवर्तन की वजह से प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है. कहीं जलस्रोत और नदियां सूख रही हैं, तो कहीं बाढ़ की विभीषिका जानलेवा बन रही है. खत्म होते जंगलों से वन्य जीवों पर संकट है. […]

विकास के लिए जिस तरह से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हो रहा है, उससे पर्यावरण गंभीर खतरे में है. जलवायु परिवर्तन की वजह से प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है. कहीं जलस्रोत और नदियां सूख रही हैं, तो कहीं बाढ़ की विभीषिका जानलेवा बन रही है. खत्म होते जंगलों से वन्य जीवों पर संकट है. ऐसी तमाम समस्याओं के समाधान और नये साल के संकल्प के साथ वर्षारंभ की विशेष प्रस्तुति…

हिमांशु ठक्कर

पर्यावरणविद

साल 2018 हो, या फिर उसके पहले 17, 16, 15, 14 हो, किसी साल भी पर्यावरण के मामले में कोई खास सुधार नहीं दिखा है. इसलिए इस नये साल 2019 में यह उम्मीद कम है कि पर्यावरण को लेकर कुछ सकारात्मक होगा, क्योंकि सरकार की प्राथमिकता में पर्यावरण है ही नहीं.

चूंकि साल 2019 चुनावी साल है, इसलिए राजनीति से यह उम्मीद तो नहीं ही की जा सकती. पिछले साल केरल में जिस तरह से बाढ़ आयी थी, और देश के कई क्षेत्रों में सूखा रहा, लेकिन सरकारों की लापरवाही बदस्तूर जारी रही. इस एतबार से अगर मौसम को देखा जाये, तो साल 2019 के शुरुआती दो-तीन महीनों के बाद जब गर्मी आयेगी और बढ़ेगी, तब देश के कई क्षेत्रों में पानी की समस्या विकराल रहने की संभावना है. क्योंकि, अभी से यह देखा जा सकता है और आकलन किया जा सकता है कि कई क्षेत्रों में पानी की समस्या है, जो आगे चल कर बढ़ सकती है. पानी का स्तर लगातार गिरता जा रहा है, लेकिन इस दिशा में कोई कारगर कदम नहीं उठाये जा रहे हैं.

इसलिए यह कहना उचित है कि जलवायु परिवर्तन के चलते वैश्विक पर्यावरण में जो कुछ उथल-पुथल होगा, उसका सीधा असर भारत पर भी पड़ेगा, लेकिन दुखद यह है कि भारत के नेता इसे लेेकर कोई ठोस रणनीति नहीं बना रहे हैं.

वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन को लेकर कुछ कोशिशें तो हो रही हैं, लेकिन विकसित देश अपनी जिम्मेदारी भरी भूमिका नहीं निभा रहे हैं, इसलिए सारे सम्मेलन किसी नतीजे पर नहीं पहुंचते. इनमें से कई देश तो यहां तक मानने को तैयार नहीं हैं कि जलवायु परिवर्तन हो रहा है और इसके बड़े खतरे हैं.

धरती का तापमान बढ़ रहा है, लेकिन ये सब निश्चिंत हैं. इसलिए इस साल भी कोई खास उम्मीद नहीं दिख रही है कि कोई बड़ा कदम उठाया जायेगा. बल्कि संभावना तो इस बात की है कि यह समस्या और भी बढ़नेवाली है और विडंबना यह है कि सब कुछ देखते हुए भी कुछ भी नहीं किया जा रहा है.

भारत को अपनी तैयारी जरूर करनी चाहिए. उम्मीद तो कम है कि राजनीति से कुछ संभव होगा, लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि हम सबको मिल कर पानी की बचत और सूखे क्षेत्रों में पानी की उपलब्धता बढ़ाने के लिए जल संरक्षण की व्यवस्था बनानी होगी.

हमारा भूमिगत जल स्तर और नीचे जा रहा है, इसे सही स्तर पर करने के लिए जल संरक्षण एक अहम कदम है और इसके लिए जितने भी जलाशय एवं जल स्रोत हैं, सबको बचाने की जरूरत है, ताकि बारिश के पानी का ज्यादा से ज्यादा संरक्षण हो सके. हम बारिश के पानी को बचा ही नहीं पाते हैं, इसका नतीजा यह होता है कि बहुत ज्यादा पानी बर्बाद हो जाता है. जितना ज्यादा जल संरक्षण होगा, उतना ही ज्यादा सूखाग्रस्त भारत तक पानी की उपलब्धता हम सुनिश्चित कर सकेंगे.

इस साल भारत को यह संकल्प लेना ही चाहिए कि वह जल संरक्षण करेगा. अगर हम अभी से इसकी तैयारी शुरू कर दें, तो मैं समझता हूं कि आनेवाले समय की अवश्यंभावी प्राकृतिक आपदाओं से मुकाबला किया जा सकता है. नये साल के संकल्प में यह भी हो कि हम प्लास्टिक का कम से कम उपयोग करें, नदियों में जल का प्रवाह बढ़ने दें और गंगा या सभी नदियों को जितना जल्द हो सके स्वच्छ करें.

हमारी सरकारों के साथ दिक्कत यह है कि गंगा जैसी बड़ी और जीवनदायी नदियों पर वे बिना किसी आकलन के ही बड़े-बड़े प्रोजेक्ट ले आती हैं, जिसका फायदा कम और नुकसान बहुत ज्यादा होता है. कम से कम सरकार को यह संकल्प तो लेना ही चाहिए कि वह बिना किसी आकलन के, बिना किसी ठोस सर्वेक्षण के कोई बड़ा प्रोजेक्ट न लाये, नहीं तो इससे न सिर्फ नदियों का नुकसान होगा, बल्कि हमारे देश की पर्यावरणीय व्यवस्था ही नष्ट हो जायेगी.

नदियाें में बढ़ता प्रदूषण

पिछले वर्ष सितंबर में आयी केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की रिपोर्ट की मानें, तो भारत में नदियों का प्रदूषण बढ़ता जा रहा है. बीते दो वर्षों में देश में गंभीर रूप से प्रदूषित नदी खंडों की संख्या 302 से बढ़ कर 351 हो गयी है, जबकि सबसे ज्यादा खराब जल की गुणवत्ता वाले प्रदूषित नदी खंडों की संख्या 34 से बढ़ कर 45 हो गयी है. सीपीसीबी नदियों की गुणवत्ता का मापन जल में बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) के आधार पर करता है. बीओडी का स्तर जितना अधिक होता है, जल उतना ही अधिक प्रदूषित माना जाता है.

औद्योगिक कचरा व सीवेज प्रदूषण के मुख्य स्रोत

बीते वर्ष दिसंबर में केंद्रीय पर्यावरण मंत्री महेश शर्मा ने सीपीसीबी की सितंबर 2018 में आयी रिपोर्ट के हवाले से लोकसभा में बताया कि 351 नदी खंडों में 323 खंडों के प्रदूषण का मुख्य कारण अशोधित और आंशिक रूप से शोधित कचरा व सीवेज (मल, गंदा पानी, नाले का पानी आदि) है.

सबसे प्रदूषित महाराष्ट्र के नदी खंड

अपने मूल्यांकन में सीपीसीबी ने पाया कि देश के 31 राज्य व केंद्र शासित प्रदेश की नदियां व जलधारा ऐसी हैं जो मानक पर खड़ी नहीं उतरती हैं.

इनमें केवल तीन राज्यों महाराष्ट्र (53), असम (44) तथा गुजरात (20) में ही 351 प्रदूषित नदी खंडों में से 117 स्थित हैं. यह रिपोर्ट यह भी कहती है कि महाराष्ट्र, असम तथा गुजरात की नदियों की तुलना में बिहार और यूपी के कई नदी खंड कम प्रदूषित हैं.

सहायक नदियों से गंगा में प्रदूषण

सीपीसीबी द्वारा गंगा नदी के जैविक जल गुणवत्ता के 2017-18 के आकलन में कहा गया है कि जिन 39 स्थानों से होकर गंगा गुजरती है, इस वर्ष मॉनसून के बाद उनमें से केवल एक ही स्थान पर (हरिद्वार में) इस नदी का साफ था. उत्तर प्रदेश की दो बड़ी सहायक नदियां पांडु और वरुणा नदी गंगा में प्रदूषण के स्तर को बढ़ा रही हैं. इस अध्ययन की मानें, तो गंगा की मुख्यधारा पर कोई भी स्थान गंभीर रूप से प्रदूषित नहीं था लेकिन अधिकतर मध्यम रूप से प्रदूषित पाये गये.

देश की 42 नदियों में मानक से अधिक भारी धातु

बीत वर्ष केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) ने ग्रीष्म, शरद व मॉनसून के दौरान देश की 16 नदी घाटयों से जल के नमूने लिये. इन नमूनों के अध्ययन में सीडब्ल्यूसी ने देश की 42 नदियाें में विषैले भारी धातुओं (शीशा, निकेल, लौह, तांबा, क्रोमियम, कैडमियम) की संख्या मानक से अधिक पायी. जबकि गंगा में पांच भारी धातु क्रोमियम, तांबा, निकेल, शीशा व लौह मानक से कहीं अधिक पाये गये.

भारत के वन क्षेत्र में वृद्धि

बीते वर्ष फरवरी में केंद्रीय वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने भारत की वन स्थिति रिपोर्ट 2017 पेश की और कहा कि भारत के वनाच्छादित क्षेत्रों में लगातार वृद्धि हो रही है. इस रिपोर्ट की मानें, तो वन क्षेत्र के मामले में भारत दुनिया के शीर्ष 10 देशों में शामिल है.

भारत के भू-भाग का 24.4 प्रतिशत हिस्सा वनों और पेड़ों से घिरा है, हालांकि यह विश्व के कुल भू-भाग का केवल 2.4 प्रतिशत ही है. इसी 2.4 प्रतिशत हिस्से पर 17 प्रतिशत मनुष्य और 18 प्रतिशत मवेशियों की जरूरतों को पूरा करने का दबाव है.

हर्षवर्धन ने संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन की ताजा रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया था कि भारत को दुनिया के उन 10 देशों में 8वां स्थान दिया गया है, जहां वार्षिक स्तर पर वन क्षेत्रों में सबसे ज्यादा वृद्धि दर्ज हुई है. पर्यावरण की चुनौतियों से जूझते हमारे देश के लिए घने वनों का बढ़ना बेहद उत्साहजनक है. हालांकि इस दिशा में अभी और काम करने की जरूरत है.स्रोत: पीआईबी

संकट का वैश्विक परिदृश्य

पर्यावरण संरक्षण और आर्थिक विकास के संबंध को संतुलित करना वैश्विक चुनौती है. मौजूदा कोशिशों के बावजूद सच यही है कि जितना विकास हो रहा है, उतना ही पर्यावरण को नुकसान हो रहा है. इसका भयावह नतीजा जलवायु परिवर्तन के रूप में हमारे सामने है.

अरबों लोगों की आकांक्षा है कि उनकी आमदनी बढ़े, लेकिन इसकी कोशिश में कार्बन उत्सर्जन में कमी का भी ध्यान रखना होगा. तीस सालों के भीतर सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) के हर इकाई के अनुपात में मौजूदा स्तर के ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में करीब 90 फीसदी की कटौती करने की जरूरत है. इसमें सभी देशों को योगदान करना होगा क्योंकि यह ऊर्जा, उत्पादन और उपभोग के तौर-तरीकों में परिवर्तन से ही हासिल हो सकता है. आज मानव आबादी का 90 फीसदी से ज्यादा हिस्सा खतरनाक प्रदूषित हवा में सांस लेने के लिए मजबूर है.

इससे हर साल 40 लाख से अधिक मौतें होती हैं. बढ़ती आबादी के लिए भोजन की जरूरत पूरी करने के लिए खेती में इस्तेमाल हो रहे खाद और अन्य रासायनिक तत्वों ने दुनियाभर के समुद्र में 500 ऑक्सीजन से रहित ‘मृत क्षेत्र’ बनाने में योगदान दिया है.

अत्याधुनिक तकनीकों के सहारे समुद्र से बड़े पैमाने पर मछली पकड़ने की प्रक्रिया ने गहरे और दूर-दराज के सामुद्रिक हिस्सों में मछली एवं अन्य सामुद्रिक जीवों के हमेशा के लिए खत्म हो जाने का खतरा पैदा कर दिया है. उभरती अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों में कुछ बड़ी नदियां हर साल 10 लाख टन से ज्यादा प्लास्टिक कचरा समुद्र में डाल रही हैं. घटते वन-क्षेत्र और वन्य जीवों पर संकट भी गहरा होता जा रहा है. प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति भी सघन हो रही है तथा मौसम का पैटर्न वैश्विक स्तर पर बदल रहा है. जाहिर है, मानव सभ्यता के जीने-बढ़ने के मौजूदा रवैये में बड़े बदलाव की जरूरत है और इसकी शुरुआत तुरंत होनी चाहिए.

वन्य जीवों पर मंडराता खतरा

49 बाघ मारे गये बीते वर्ष 12 दिसंबर तक हमारे देश में. बाघों की मौत के मामले में मध्य प्रदेश पहले (13 मौतें) और कर्नाटक दूसरे (10 मौतें) स्थान पर रहा. 13 हाथी रेलगाड़ी की चपेट में आकर मारे गये थे या घायल हो गये थे, बीते वर्ष 15 नवंबर तक.

35 हाथी तकरीबन बिजली की चपेट में आने से मारे गये थे, जबकि अवैध शिकार के कारण तीन हाथियों की जान चली गयी थी, बीते वर्ष 15 नवंबर तक.

66 तेंदुओं की मौत हो गयी थी अवैध शिकारियों की वजह से बीते वर्ष अक्तूबर तक, जबकि 2015, 2016 और 2017 में इसी वजह से 194 तेंदुओं की जान चली गयी.

स्रोत : पर्यावरण राज्यमंत्री महेश शर्मा द्वारा लोकसभा में प्रश्नों के दिये गये उत्तर

पैंगोलिन के अवैध शिकार पर रोक के लिए सरकार से आग्रह

बीते वर्ष दिसंबर में असम में पैंगोलिन की क्रूरतापूर्वक हत्या कर उसके शरीर के अंगों की असम में कालाबाजारी की फुटेज सामने आने के बाद विश्व पशु संरक्षण के भारत के निदेशक गजेंद्र शर्मा ने भारत सरकार व राज्य सरकार से पैंगोलिन के अवैध शिकार को रोकने का आग्रह किया था. एक रिपोर्ट के अनुसार, असम में करीब 140 स्थानीय शिकारी हैं जो बड़े पैमाने पर पैंगोलिन का शिकार करते हैं और उनके स्केल्स व मांस को पैसों के लिए बेच देते हैं.

वैश्विक तापन से हाेगी खाद्यान्न की कमी

आईपीसीसी यानी इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की इसी वर्ष अक्तूबर में आयी रिपोर्ट कहती है कि वैश्विक तापन बढ़ने से सर्वाधिक प्रभावित होनेवाले देशों में भारत भी एक होगा. भारत जैसे कृषि अर्थव्यवस्था वाले देश को वैश्विक तापन के दुष्प्रभाव की वजह से गर्म हवा, बाढ़ व सूखे का सामना करने के साथ ही पानी और खाद्यान्नों की कमी से भी जूझना होगा, जिससे गरीबी बढ़ेगी और भोजन व जीवन के लिए खतरा व असुरक्षा उत्पन्न हो जायेगा.

भारत को जलवायु परिवर्तन से सर्वाधिक खतरा

बीते वर्ष के आरंभ में एचएसबीसी बैंक की तरफ से जारी रैकिंग में भारत को जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा खतरा बताया गया है. इस संकट से भारत में कृषि से होने वाली आमदनी घट सकती है. वहीं, बढ़ते तापमान और कम होती बारिश से वे इलाके सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे जहां सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है.

पेरिस समझौते पर बनी सहमति

पोलैंड में बीते दिसंबर हुए जलवायु सम्मेलन मेें पेरिस समझौते पर सहमित बनी. इस समझौते के अनुसार, दुनिया के देश अब धरती को बचाने के लिए वैश्विक तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के लक्ष्य को हासिल करेंगे. यह बेहद महत्वपूर्ण समझौता है. हालांकि, इस पर कितना अमल होगा, यह अभी भविष्य के गर्भ में है, क्योंकि कार्बन उत्सर्जन करनेवालों में धनी व विकसित देश अग्रणी हैं. ऐसे में वे अपने उद्योगों में कितनी कटौती करते हैं, इसी पर धरती व पर्यावरण का भविष्य निर्धारित होगा.

वन रोपण से कार्बन उत्सर्जन में लायी जा सकती है कमी

वर्जिनिया यूनिवर्सिटी के वन विशेषज्ञ देबोरा लॉरेंस का मानना है कि वनों के पुनररोपण और वन प्रबंधन में सुधार से हवा में मौजूद कार्बन डाई-ऑक्साइड को कम करने में महत्वपूर्ण सफलता हासिल की जा सकती है. कार्बन उत्सर्जन के दुष्प्रभावों से बचने के लिए 2030 तक 18 प्रतिशत कार्बन डाई-ऑक्साइड में कटौती करना बेहद जरूरी है.

वायु प्रदूषण मामले में भारत की स्थिति दयनीय

बीते अक्तूबर ब्लूमबर्ग की वैश्विक वायु प्रदूषण पर जारी रिपोर्ट के अनुसार, विश्व के सबसे ज्यादा प्रदूषित 10 शहर भारत में हैं. यहां हवा में उपस्थित पार्टिकुलेट मैटर का स्तर बेहद घातक है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट भी यही बात कहती है. इस रिपोर्ट की मानें तो 10 सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में कानपुर शीर्ष पर है. कानपुर के बाद फरीदाबाद, वाराणसी, गया, पटना, दिल्ली, लखनऊ, आगरा, मुजफ्फरपुर और श्रीनगर व गुड़गांव का स्थान है.

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