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वर्षांभ 2019 : चुनावी साल और जनता के सवाल, एक नजर उन राज्यों पर जहां होने है इस वर्ष लोकसभा व विधानसभा चुनाव

मनीषा प्रियम राजनीतिक विश्लेषक बीते साल पांच राज्यों के चुनाव को सेमीफाइनल कहा गया. चुनाव परिणामों ने कांग्रेस को ऊर्जा से भर दिया, तो वहीं भाजपा को यह एहसास दिलाया कि आगामी चुनाव चुनौतियां लेकर आयेंगे. जाहिर है, साल 2019 चुनावी वर्ष है, क्योंकि आम चुनाव के साथ ही कई राज्यों में भी चुनाव होने […]

मनीषा प्रियम

राजनीतिक विश्लेषक

बीते साल पांच राज्यों के चुनाव को सेमीफाइनल कहा गया. चुनाव परिणामों ने कांग्रेस को ऊर्जा से भर दिया, तो वहीं भाजपा को यह एहसास दिलाया कि आगामी चुनाव चुनौतियां लेकर आयेंगे. जाहिर है, साल 2019 चुनावी वर्ष है, क्योंकि आम चुनाव के साथ ही कई राज्यों में भी चुनाव होने हैं. इन चुनावों में क्या होंगे मुख्य मुद्दे और क्या होगा जनता का मिजाज, इसी पर वर्षारंभ की यह विशेष प्रस्तुति…

चुनावी साल और जनता के सवाल

साल 2018 राजनीतिक दृष्टि से एक उहापोह का साल माना जा सकता है. लोग यही समझ रहे थे कि नोटबंदी और जीएसटी के चक्करों ने इस साल को उलझाया था. मैं ऐसा नहीं मानती. दरअसल, यह उहापोह तो तभी शुरू हुई थी, जब साल 2014 में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिला और कई राज्याें में भाजपा की सरकारें बनीं.

इन सरकारों के कामकाज का अवलोकन साल 2018 में जनता ने किया और वह साल 2019 में भी ऐसा करेगी. केवल उनझे हुए राजनीतिक मामलों में ही नहीं, बल्कि नीतिगत मामलों में भी जनता अवलोकन करेगी. मसलन, जिस तरह से आज तक जनता यह समझ नहीं पायी कि आखिर नोटबंदी-जीएसटी से या फिर प्रधानमंत्री के बेशुमार विदेश दौरों से उसे क्या हासिल हुआ. आप गौर करें, तो देश में विकासवादी मुख्यमंत्रियों का दौर चल रहा था, जिसमें छत्तीसगढ़ में रमन सिंह और मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह आगे थे.

लेकिन, जनता यह समझने में नाकाम रही कि आखिर इन विकासवादी मुख्यमंत्रियों की कल्याणकारी नीतियों का क्या लाभ मिल रहा था. क्योंकि, साल 2014 से ही केंद्रीय नीतियों में ग्रामीण भारत तो दिखता था, लेकिन उसका असर जमीन पर कितना हुआ, यही जनता ने 2018 में परखना शुरू किया था. यही वजह है कि साल 2018 के पांच राज्यों के चुनाव में खेती-किसानी की महत्वपूर्ण भूमिका रही. साल 2014 में सरकार बनने के बाद प्रधानमंत्री ने ‘रूरअर्बन’ शब्द की बात की थी, जिसमें ग्रामीण कम और शहरी क्षेत्र ज्यादा हैं. तब ऐसा लगा था कि एक नया भारत उभर आया है, जो कि ज्यादा अर्बन (शहरी) है और कम रूरल (ग्रामीण) है, जैसा कि रूरअर्बन की परिभाषा में देखा भी गया.

जबकि, आज भी भारत ग्रामीण ज्यादा है, शहरी कम. यही वजह है कि साल 2018 के चुनाव में ग्रामीण भारत ने अपना दम दिखा दिया और अब नये राजनीतिक मापदंड आम से आम लोगों की दिक्कतों के इर्दगिर्द फिर से उभर रहे हैं. इन नये मापदंडों में गरीबी, किसानी, ग्रामीण क्षेत्र और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की दिक्कतें हैं, जो साल 2019 के चुनाव में प्रमुखता से देखे जायेंगे.

वैसे तो इस साल कुछ राज्यों के भी चुनाव होने हैं, लेकिन साल 2019 लोकसभा चुनाव के लिए ही जाना जायेगा. केंद्र सरकार की मुख्य उपलब्धियां (नोटबंदी-जीएसटी आदि) और वादे (2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो जायेगी) ही इस चुनाव के केंद्र में रहेंगे, क्योंकि अभी तक लोगों के दिमाग में यह बात स्पष्ट नहीं है कि आखिर इनका उन्हें क्या लाभ मिला. लोग अवलोकन कर रहे हैं कि आखिर मोदी के इतने सारे विदेश दौरों से भारतीय अर्थव्यवस्था को या फिर भारत की आम जनता को क्या फायदा मिला. अब लोग यह जानना चाहते हैं कि सरकारी वादे जो किये जाते हैं, उनका लाभ जनता को कितना मिलता है.

इसलिए यह बात सौ प्रतिशत स्पष्ट है कि अब जनता के लिए यह सोच-विचार का समय आ गया है. जनता यह समझने की कोशिश करेगी कि उसका मुद्दा क्या है और सरकार क्या कर रही है. जनधन योजना हो या उज्ज्वला योजना हो, इससे उन्हें फायदे मिले, या फिर ये सब लुभावनी योजनाएं साबित हुईं. सरकारी वायदे बनाम जनता के सवाल के साथ ही साल 2019 के चुनावी संग्राम का विगुल बजेगा. क्योंकि बीते चुनाव परिणामों को देखकर यह स्पष्ट हो गया है कि जनता के जमीनी मामले हल नहीं हुए हैं. चाहे किसानी का मामला हो या गरीबी का, चाहे बेरोजगारी का मामला हो या फिर ग्रामीण अर्थव्यवस्था के चरमराने का, ये ही बड़े मुद्दे होंगे, जिन पर आगामी आम चुनाव होंगे.

लोकसभा न सिर्फ राजनीतिक तौर पर, बल्कि राष्ट्रीय जीवन के अन्य हिस्सों में २०१९ की पहली छमाही लोकसभा चुनाव के प्रचार अभियान, गठबंधन और सरकार बनाने की कवायद की प्रमुखता बनी रहेगी. इस महा मुकाबले में एक खेमा २०१४ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) होगा, तो राहुल गांधी की अध्यक्षता में कांग्रेस संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अगुवाई करते हुए सरकार के खिलाफ मोर्चे पर होगी. लेकिन यह सीधी टक्कर नहीं होगी.

एक गठबंधन से दूसरे गठबंधन में विभिन्न दलों की आवाजाही और क्षेत्रीय स्तर पर गठित होनेवाले गठबंधन मौजूदा समीकरण पर असर डालेंगे. मुद्दों, भाषा और रणनीति के स्तर भी यह लड़ाई पिछले आम चुनाव से बिल्कुल अलहदा होगी. लोकसभा चुनाव के मद्देनजर कुछ संभावित और संबंधित पहलुओं पर एक नजर…

मिशन 123

हिंदी पट्टी के तीन राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़- में कांग्रेस के हाथों मात खाने के बाद भाजपा को इन राज्यों से लोकसभा सीटों के नुकसान की आशंका है.

इसकी भरपाई के लिए उसने ‘मिशन १२3’ की शुरुआत की है, जिसके तहत प्रधानमंत्री मोदी २० राज्यों में फैले १२3 लोकसभा क्षेत्रों का दौरा करेंगे. यह कार्यक्रम १०० दिनों में पूरा होगा. ये वह सीटें हैं, जिन पर २०१४ में भाजपा ने अपने उम्मीदवार तो खड़े किये थे, लेकिन मोदी लहर के बावजूद जीत नहीं पायी थी. इनमें से ७७ सीटें पश्चिम बंगाल, असम और ओडिशा में हैं, जिनमें से महज १० सीटें ही भाजपा के खाते में आ सकी थीं.

युवा मतदाताओं के हाथ फैसला

पिछले चुनाव की तरह इस बार भी युवा मतदाताओं की बहुत बड़ी तादाद अगली सरकार को निर्वाचित करने में प्रमुख भूमिका निभायेगी. साल १९८२ और २००१ के बीच पैदा हुए मतदाता करीब ४० करोड़ हैं. इनमें ऐसे भी हैं, जो पहली बात अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे. सामाजिक ताने-बाने के टूटने का मुद्दा तो इनके सामने होगा ही, लेकिन शिक्षा और रोजगार युवा मतदाताओं के लिए अहम होगा.

लेकिन विविधता भरे देश में अलग-अलग भागों तथा आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि के युवा विभिन्न नेताओं और दलों के लिए वोट करेंगे, न कि किसी एक या विशेष पैटर्न पर. लेकिन सोशल मीडिया और व्यक्ति-केंद्रित प्रचार का असर भी सबसे ज्यादा इसी मतदाता-समूह पर होने का अनुमान है.

कसौटी पर होगी सबकी परख

बीते साल विभिन्न उपचुनाव में भाजपा ने २०१४ में जीती हुई नौ में सात लोकसभा सीटें गंवा दीं. नौ राज्यों के विधानसभा चुनाव में उसे पूर्वोत्तर में दो राज्यों में जीत हासिल हुई, तो हिंदी पट्टी के तीन अहम राज्यों में हार का मुंह देखना पड़ा.

अनेक राज्यों की विधानसभा के उपचुनाव में उसे १६ में से दो सीटों पर ही कामयाबी मिली. इन आंकड़ों से जाहिर है कि आगामी आम चुनाव में भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता की बड़ी परीक्षा होगी. भाजपा इन संकेतों से उत्साहित हो सकती है- कर्नाटक में वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और बहुमत के आंकड़े से सिर्फ छह सीटें पीछे रही. गुजरात में चौथी बार लगातार सफलता मिली. मध्य प्रदेश में वोटों के हिसाब से वह कांग्रेस से आगे है. मध्य प्रदेश और राजस्थान में उसने कांग्रेस को कड़ी टक्कर दी है तथा मुकाबला तकरीबन बराबरी का रहा है.

पर, उसके सामने एक तो मोदी सरकार के कामकाज का हिसाब देने और मतदाताओं को भरोसे में लेने की चुनौती है, दूसरी तरफ वह २०१४ की तरह विपक्ष को निशाना बनाकर अपने पक्ष में माहौल नहीं बना सकती है. पिछले चुनाव के विकास के नारे और बीते सालों में हिंदुत्व के उग्र उभार में संतुलन बनाने की मुश्किल भी है.

इस चुनाव को मोदी बनाम राहुल बनाने की भाजपा की रणनीति की काट कांग्रेस को खोजना होगा. हालिया जीतों के बावजूद सांगठनिक कमजोरी और कम समर्थन की समस्या कांग्रेस के सामने है.

ऐसे में उसे अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग दलों से गठबंधन बनाना होगा ताकि भाजपा के विशाल पार्टी-तंत्र, व्यापक जन-समर्थन तथा अनेक छोटे दलों के साथ का मुकाबला हो सके. उसे ठोस रणनीति बनाकर मोदी सरकार को घेरना होगा. तीन राज्यों की जीत से पार्टी का मनोबल तो ऊंचा है, पर लोकसभा की बड़ी लड़ाई के लिए सिर्फ मनोबल से काम नहीं चल सकता है. इस आम चुनाव में हमेशा की तरह क्षेत्रीय स्तर पर मजबूत पार्टियों की महत्वपूर्ण भूमिका होगी.

अनेक राज्यों में ये पार्टियां या तो सरकार में हैं या फिर मुख्य विपक्ष हैं. कुछ ऐसे भी राज्य हैं, जहां इनके मुकाबले भाजपा और कांग्रेस की मामूली मौजूदगी है. एक तो इन्हें अपना वर्चस्व बनाये रखने की चुनौती है और दूसरी तरफ उन्हें गठबंधनों के समीकरण को इस तरह साधना होगा कि राष्ट्रीय राजनीति में उनका दखल बना रहे.

अनेक राज्यों में कुछ जिलों या सीटों तक सिमटी छोटी पार्टियां भी खासा अहम रहेंगी. इस नाते उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, बंगाल, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक, तमिलनाडु और पंजाब की सियासी हलचलों पर सबकी निगाहें जमी रहेंगी. इनमें से अनेक राज्यों में इस साल विधानसभा के चुनाव भी हैं. इस नाते बनते-बिगड़ते हिसाब का असर बड़े पैमाने पर हो सकता है.

इन राज्यों में होने हैं इस वर्ष चुनाव

इस वर्ष लोकसभा के साथ ही कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव भी होनेवाले हैं. एक नजर उन राज्यों पर.

आंध्र प्रदेश

इस राज्य में विधानसभा की कुल 175 सीटें हैं. 2014 में हुए चुनाव में तेलुगु देशम पार्टी ने बहुमत के लिए जरूरी 88 से अधिक (103 सीट) सीटें जीतकर राज्य की कमान संभाली थी. एन चंद्रबाबू नायडू राज्य के मुख्यमंत्री बनाये गये. इस वर्ष अप्रैल-मई में राज्य की 15वीं विधानसभा के लिए यहां चुनाव होना है. लेकिन इस बार सत्ताधारी टीडीपी ने भारतीय जनता पार्टी की बजाय कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की घोषणा की है. वहीं भाजपा ने भी राज्य की कुल 175 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा की है. राज्य की अन्य पार्टी में वाय एस जगनमोहन रेड्डी की वायएसआर कांग्रेस प्रमुख है.

ओड़िशा

इस राज्य में भी अप्रैल-मई में चुनाव होना है. 147 सीटों वाली इस विधानसभा में वर्तमान में बीजू जनता दल यानी बीजद की सरकार है. 2014 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजद 117 सीटें जीत सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. इसके बाद एक बार फिर नवीन पटनायक ने राज्य के मुख्यमंत्री (14वें) के रूप में शपथ ली थी. राज्य में बीजद के अलावा कांग्रेस व भाजपा प्रमुख दल हैं.

अरुणाचल प्रदेश

अरुणाचल प्रदेश में विधानसभा की 60 सीटें हैं, जिसके लिए इसी वर्ष अप्रैल-मई में चुनाव होना है. वर्तमान में यहां 46 सीटों के साथ भाजपा सबसे बड़ी पार्टी है. तीन सीटों वाली कांग्रेस यहां एकमात्र विपक्षी दल है. जबकि नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) व अन्य भाजपा के साथ सरकार में शामिल हैं. वर्तमान में पेमा खांडू राज्य के मुख्यमंत्री हैं.

सिक्किम

सिक्किम के 32 विधानसभा सीटों के लिए इस वर्ष अप्रैल-मई में चुनाव होना है. वर्तमान में यहां सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट (एसडीएफ) की सरकार है. राज्य के मुख्यमंत्री पवन कुमार चामलिंग हैं. एसडीएफ के अलावा सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा (एसकेएम) राज्य की दूसरी राजनीतिक पार्टी है. 2014 में हुए चुनाव में एसडीएफ को 22 व एसकेएम के 10 सीटें प्राप्त हुई थीं.

हरियाणा

हरियाणा की 14वीं विधानसभा के लिए अक्तूबर में चुनाव होना है. 90 सीटों वाली इस विधानसभा में वर्तमान में भाजपा की सरकार है, हालांकि एक विधायक के साथ शिरोमणी अकाली दल भी सरकार में शामिल है. 2014 में राज्य में हुए चुनाव में भाजपा को 47 सीटें प्राप्त हुई थीं और मनोहर लाल खट्टर राज्य के मुख्यमंत्री चुने गये थे. विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल भारतीय राष्ट्रीय लोकदल है. कांग्रेस व बसपा भी यहां विपक्षी दल की भूमिका में हैं.

महाराष्ट्र

महाराष्ट्र विधानसभा की 288 सीटों के लिए इस वर्ष अक्तूबर में चुनाव होना है. वर्तमान में इस राज्य में एनडीए (भाजपा, शिवसेना व अन्य दल) की सरकार है और देवेंद्र फणनवीस मुख्यमंत्री हैं. साल 2014 में हुए चुनाव में भाजपा को 122 व शिवसेना को 63 सीटें प्राप्त हुई थीं, जबकि मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को 42 व एनसीपी को 41 सीटें मिली थीं.

झारखंड

कुल 81 सीटों वाली झारखंड विधानसभा में नवंबर में चुनाव होना है. वर्तमान में यहां भाजपा की सरकार है. साल 2014 में हुए चुनाव में भाजपा ने ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन (एजेएसयू) के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और 42 सीटों (भाजपा 37, एजेएसयू पांच) पर जीत दर्ज कर यहां सत्ता में आयी. रघुबर दास राज्य के मुख्यमंत्री बनाये गये.

जम्मू-कश्मीर

जम्मू-कश्मीर की 89 (87 निर्वाचित व दो नामित) विधानसभा सीटों के लिए भी इस वर्ष चुनाव होने की संभावना है. बीते वर्ष जून में यहां भाजपा-पीडीपी गठबंधन वाली सरकार गिर गयी थी, जिसके बाद राज्यपाल एनएन वोरा ने राज्य में राज्यपाल शासन लगा दिया था. लेकिन राज्य में किसी भी दल द्वारा सरकार बनाने में असफल रहने पर राज्यपाल ने विधानसभा भंग कर दी थी.

Prabhat Khabar Digital Desk
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