हाल के वर्षों में भारत और अमेरिका के संबंध बहुत उतार-चढ़ाव भरे रहे हैं. इधर रुपया हिचकोले खा रहा है, उधर अमेरिका ईरान पर लगाये प्रतिबंध पर सख्त बना हुआ है. इस बीच, बीते गुरुवार को भारत और अमेरिका के बीच टू-प्लस-टू कूटनीतिक वार्ता संपन्न हुई है.
इस वार्ता में भारत ने सैन्य उपकरणों, रक्षा संबंधों, एच-1बी वीजा रुकावटों, न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप (एनएसजी) में सदस्यता जैसे अहम मसलों पर अमेरिका से बातचीत की है और कॉमकासा समझौता भी साइन किया. इसके अतिरिक्त, वार्ता में सीमा पार का आतंकवाद, ईरान पर प्रतिबंध, रूस के साथ भारत के रिश्ते आदि मुद्दे छाये रहे. इस वार्ता के भविष्य में क्या परिणाम होंगे, चीन और पाकिस्तान की प्रतिक्रिया क्या होगी, भारत और अमेरिका के संबंध कौन-से आयाम तय करेंगे, इन्हीं जानकारियों पर आधारित है इन दिनों की प्रस्तुति…
पुष्पेश पंत
विदेश मामलों के जानकार
बुनियादी सवालों से ध्यान भटकाने की कोशिश
चौदह महीने की टालमटोल के बाद भारत और अमेरिका के बीच ‘टू-प्लस-टू’ वार्ता कुछ इस अंदाज में संपन्न हुई कि नये किस्म की शिखर वार्ता का जन्म हो रहा है और लगभग सभी विश्लेषक इस लाल-बुझक्कड़ी में व्यस्त हैं कि कैसे भारत और अमेरिका के उभयपक्षीय संबंधों के लिए इसके नतीजे ऐतिहासिक और दूरगामी होंगे. मेरी समझ में यह सोचना नादान जल्दीबाजी है या फिर जान-बूझकर अन्य समस्याओं से ध्यान भटकाने की चतुराई का कमजोर प्रयास.
विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन निस्संदेह मोदी मंत्रिमंडल के योग्यतम सदस्यों में से एक हैं, पर क्या उन्हें सिर्फ प्रतीकात्मक रूप से आगे नहीं किया जा रहा? इस घड़ी, अमेरिका तथा भारत के संबंध मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं. डोनाल्ड ट्रंप की ईरान विरोधी आर्थिक प्रतिबंध वाली हमलावर नीति ने भारत के लिए धर्मसंकट पैदा कर दिया है.
हाल तक, भारत यह प्रचार करता रहा है कि भारत को इस स्थिति में, खुद निषेधों का सामना नहीं करना पड़ेगा और अमेरिका उसकी विशेष स्थिति के मद्देनजर कुछ रियायत देगा. चाबहार बंदरगाह निर्माण को इन प्रतिबंधों से बाहर रखने का आश्वासन हमें मिला है, ऐसा समझाया जा रहा था. आज अमेरिका फिर यह दोहरा रहा है कि उसकी अपेक्षा (आदेश?) है कि भारत ईरान से तेल आयात पूरी तरह बंद कर देगा.
नहीं सधेगा भारत का हित
इसी तरह, अमेरिका की चिंता यह रही है कि भारत रूस से प्रक्षेपास्त्रों की खरीद नहीं करेगा. इसको सुनिश्चित करने के लिए ट्रंप नाम मात्र की रियायत एच-1 बी वीजा के मामले में कर सकते हैं, पर उससे भारत का हित साधन होनेवाला नहीं.
भारत लंबे समय से यह मांग करता रहा है कि पाकिस्तान पर दहशतगर्दी के निर्यात के लिए अमेरिका असरदार राजनयिक दबाव बनाये तथा उसे दी जानेवाली आर्थिक सैनिक सहायता में कटौती करे. अब तक यह बात भी साफ हो चुकी है कि अमेरिकी प्रशासन (सिर्फ ट्रंप नहीं!) इसके लिए राजी नहीं. दिखाने भर को वह भारत को लुभानेवाले बयान देते रहते हैं, पर उसके विरुद्ध किसी संयुक्त मोर्चाबंदी में उनकी दिलचस्पी वहीं तक सीमित है, जहां तक जोखिम खुद उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा पर मंडराता नजर आता है. बुश, ओबामा और ट्रंप तक सभी ने यही दर्शाया है.
भारत को हमेशा धीरज और संयम की सलाह देनेवाला अमेरिका इस समय भी यह उपदेश दे रहा है कि इमरान ने अभी सत्ता संभाली है, अतः उन्हें कुछ वक्त दिया जाना चाहिए. जो कटौती पाकिस्तान को दी जानेवाली सहायता में की जाती है, उसकी भरपाई भी बहुत जल्द दूसरी तरह से कर दी जाती है. साठ साल से जो सैनिक-राजनयिक धुरी बनी है, उसको अमेरिका अचानक नष्ट नहीं कर सकता. खास कर उस समय जब जुझारू पुतिन ने क्रीमिया-यूक्रेन में सैनिक हस्तक्षेप तथा मध्यपूर्व में सक्रियता के बाद एक नये शीत युद्ध का माहौल तैयार कर दिया है.
समझना होगा अमेरिकी छल
इस संदर्भ में यह समझ पाना कठिन है कि भारत के पूर्वी तट पर ‘संयुक्त सैनिक अभ्यास से’ भारत को क्या हासिल होगा. हां, चीन की नाराजगी और बैर भाव का निशाना ही हम बन सकते हैं.
चीन के खिलाफ भी ट्रंप ने वाणिज्य युद्ध का एलान कर दिया है और उनकी अपेक्षा है कि उनके सभी मित्र सजा की तरह लगाये प्रतिबंधों में हाथ बंटायेंगे. इसके साथ-साथ दक्षिण चीन सागर और पूर्वी एशिया में उसके विस्तारवादी तेवरों ने अमेरिका को आशंकित किया है. भारत के चीन के साथ अपने संबंध तनाव मुक्त नहीं चल रहे हैं, पर यह सोचना कि हमारे और अमेरिका के राष्ट्रहितों में शत-प्रतिशत संयोग है, आत्मघातक मूर्खता ही कही जा सकती है.
यही बात संचार समझौते के बारे में भी कही जा सकती है. जिस टेक्नोलॉजी का हस्तानांतरण भारत को करने का वादा किया जा रहा है, वह संकट की घड़ी में हमारी सामरिक सुरक्षा को अमेरिका के हाथों बंधक बनाने के अलावा कुछ नहीं करेगा.
हम प्रकारांतर से खुद को अमेरिका के छुटभैया सैनिक संधिमित्रों की बिरादरी में ही शामिल कर चुके होंगे. सोचने लायक बात यह है, जब ट्रंप अटलांटिक बिरादरी के सहोदरों को ही ठुकरा रहे हैं, तब भारत की क्या बिसात है कि अमेरिका उसके राष्ट्रहितों को प्राथमिकता देगा? यह न समझें कि इसके बाद संवेदनशील टेक्नोलॉजी के हस्तांतरण का दरवाजा खुल जायेगा! याद रहे कि यूपीए के पहले कार्यकाल से ही खासकर परमाण्विक ऊर्जा वाले करार के बाद से भारत को न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप का सदस्य बनाये जाने की बात हो रही है, पर इस दिशा में कोई ठोस प्रगति नहीं हो सकी है. यह एक लॉलीपॉप है, जिसे बीच-बीच में भारत के सामने झुलाया जाता है.
कुछ ही समय बाद भारत में लोकसभा के चुनाव होंगे. अब तक भारत की विदेश नीति तथा राजनय से जुड़ा कोई मुद्दा विवादास्पद नहीं बना है, जिस तरह से आंतरिक राजनीति और अर्थव्यवस्था से जुड़े कुछ प्रसंग रहे हैं.
नरेंद्र मोदी के निरंतर गतिशील राजनय ने निश्चय ही भारत के लिए नये विकल्प उजागर किये हैं. यह परमावश्यक है कि हम अमेरिका की फैलायी मरीचिका में न फंसे. चाहे वह अफगानिस्तान के दलदल में धंसना हो या रूस से विमुख होना हो या फिर चीन को अमेरिका के हितों में संतुलित करने की रणनीति का मोहरा बनने का खतरनाक लालच हो.
एक छोटा सा उदाहरण लें. ‘टू-प्लस-टू’ वार्ता में कहा गया कि एक भारतीय नौसैनिक अफसर अफगानिस्तान तथा उसके निकटवर्ती क्षेत्र में अमेरिकी बेड़े की कमान में तैनात किया जायेगा. अफगानिस्तान भूमिबद्ध देश है- वहां नौसेना की तैनाती की बात करना हास्यास्पद है. क्या यह भी ईरान तथा खाड़ी देशों एवं पूर्वी अफ्रीका वाले भू-भाग पर आधिपत्य की तैयारी नहीं? इसमें सहयोग भारत के लिए कैसे फायदेमंद समझा जा सकता है?
चुनौतियां सामने खड़ी हैं
भारत में राफेल लड़ाकू विमान का सौदा इस समय चर्चा में है. जम्मू कश्मीर राज्य में हिंसा पर नियंत्रण पाने में राज्य सरकार असमर्थ रही है.
भाजपा की सदस्यता के कारण केंद्र के हाथ बंधे रहे हैं. यह सभी बातें दबाव बना रही हैं कि कुछ दूसरे सवाल सार्वजनिक बहस को गरमाये, ताकि इनका बुरा असर मतदान पर न पड़े. डॉलर की मजबूती ने रुपये को खस्ताहाल कर दिया है. तेल की कीमतें आसमान छूने लगी हैं.
इसके लिए, हमारे वित्त मंत्री का यह कहना काफी नहीं कि यह संकट भूमंडलीय कारणों से पैदा हो रहे हैं. हकीकत यह है कि बड़बोले अहंकारी आत्ममुग्ध ट्रंप के शासनाधीन अमेरिका, भारत तथा दुनिया के अनेक देशों के लिए गंभीर जटिल चुनौतियां पैदा करता रहा है. ऐसे हालात में, दोयम दर्जे की यह शिखर वार्ता 2+2= 22 कतई नहीं बन सकती, जोड़ पौने चार तक भी पहुंच जाये, तो बहुत समझिए.
क्या रहीं वार्ता की उपलब्धियां
टू प्लस टू बातचीत के दौरान भारत और अमेरिका ने ‘संचार सूचना सुरक्षा ज्ञापन समझौता (कॉमकासा)’ पर हस्ताक्षर किये. माना जा रहा है कि इस समझौते की वजह से भारतीय सेना को अमेरिका द्वारा सैन्य उपकरण बेचे जाने में तेजी आयेगी.
पहले भारत इस समझौते के अंतर्गत कुछ प्रावधानों को लेकर सहमत नहीं था, लेकिन अब भारत की चिंताएं समाप्त हुई हैं और उसने समझौते पर हस्ताक्षर कर दिया है. टू-प्लस-टू के दौरान भारत ने अमेरिका से एच-1बी वीजा मामले पर भी गौर करने को कहा है. भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पाम्पियो से कहा कि वीजा कटौती के प्रस्ताव से भारत में, खासकर आइटी सेक्टर में चिंता की लहर पसरी हुई है.
भारत उम्मीद कर रहा है कि इस वार्ता के बाद अमेरिका भविष्य में एच-1बी वीजा के मसले पर भारत के हितों का नुकसान नहीं होने देगा. भारत-अमेरिका ने सीमापार आतंक के मुद्दे पर भी बात की.
अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो और भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने एक स्वर में मुंबई, पठानकोट, उरी और ऐसे दूसरे आतंकी हमलों के दोषियों को सजा सुनिश्चित करने की बात कही. भारत और अमेरिका ने पाकिस्तान को निशाने पर लेते हुए कहा कि पाकिस्तान को यह सुनिश्चित करना होगा कि अन्य देशों पर आतंकवादी हमलों के लिए पाकिस्तान की जमीन पर कोई गतिविधि या तैयारी न होने पाये.
दोनों देशों के बीच हुए समझौते से अब भारत अमेरिका की महत्वपूर्ण रक्षा तकनीक और संचार तंत्र में शामिल हो पायेगा, जिसके फलस्वरूप दोनों देशों की सेनाओं को आपसी तालमेल स्थापित करके साथ काम करने में मदद मिलेगी. संभावना है कि भविष्य में दोनों देश ड्रोन बेचने और सैटेलाइट डेटा का आदान-प्रदान करते भी दिखायी देंगे.
टू-प्लस-टू वार्ता में भारत के न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप (एनएसजी) की सदस्यता हासिल करने की दिशा में भी बातचीत हुई. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने गुरुवार को प्रेसवार्ता में कहा कि दोनों देश भारत को एनएसजी देशों में शामिल करवाने की दिशा में काम करेंगे. इसके अतिरिक्त दोनों देशों ने अफगानिस्तान पर भी बातचीत की.
भारत ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की अफगानिस्तान नीति का स्वागत किया और कहा कि भारत और अमेरिका साथ मिलकर आतंकवाद से लड़ रहे हैं. रूस के साथ भारत की रक्षा साझेदारी और ईरान से कच्चे तेल के आयात और अमेरिकी प्रतिबंध का उल्लेख भी टू प्लस टू वार्ता के दौरान हुआ.
अमेरिका ने भारत को रूस के साथ संबंधों के लिए छूट दे दी है. भारत रूस के साथ एस-400 ट्रीयुम्फ वायु रक्षा मिसाइल प्रणाली खरीदने के लिए 40,000 करोड़ रुपये का सौदा करनेवाला है. वहीं दूसरी तरफ, ईरान के साथ संबंधों पर भारत को 4 नवंबर तक की ही छूट मिली है. उसके बाद भारत को अमेरिकी प्रतिबंधों का पालन करना होगा.
नवंबर तक ईरान से तेल आयात बंद करे भारत : पॉम्पियो
ईरान के साथ अमेरिका की तल्खी किसी से छिपी नहीं है. परमाणु कार्यक्रमों को लेकर दोनों देशों के बीच काफी समय से तनातनी चल रही है और ट्रंप प्रशासन ने इसी वजह से ईरान पर कई प्रतिबंध भी लगा रखे हैं.
लेकिन इतने भर से ही उसका क्रोध शांत नहीं हुआ है और अब वह चाहता है कि भारत समेत दुनिया के तमाम वैसे देश जो ईरान से कच्चे तेल का आयात करते हैं, अपना आयात बंद कर दें. अमेरिका कई बार भारत से यह बात कह चुका है, लेकिन भारत ने अब तक ऐसा नहीं किया है. यही वजह है कि भारत और अमेरिका के विदेश और रक्षा मंत्री की छह से सात जुलाई को हुई मुलाकात के दौरान भी अमेरिका ने ईरान से तेल न खरीदने का मुद्दा उठाया.
इस संबंध में अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने कहा कि उसका इरादा भारत जैसे महत्वपूर्ण रणनीतिक साझेदार को दंडित करने का नहीं है लेकिन वह उम्मीद करता है कि भारत ईरान से होनेवाले तेल आयात को कम करेगा और इस वर्ष नवंबर तक ईरान से तेल आयात शून्य कर देगा. पॉम्पियो ने यह भी कहा कि अमेरिका अन्य देशों की तरह भारत से भी लगातार ईरान से तेल आयात बंद करने को कह रहा है क्योंकि चार नवंबर से ईरान के तेल निर्यात पर प्रतिबंध लग जायेगा. हालांकि पॉम्पियो ने यह भी कहा कि इस बात पर बाद में विचार किया जायेगा कि किस देश को इन प्रतिबंधों से छूट दी जायेगी.
पिछले साल ही पड़ी थी नींव
भारत और अमेरिका के बीच बहुप्रतीक्षित टू-प्लस-टू वार्ता बीते छह सितंबर को की गयी. टू-प्लस-टू की अवधारणा के अनुरूप दोनों देशों के प्रतिनिधियों की हुई बातचीत में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण ने अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो और रक्षामंत्री जेम्स मैटिस के साथ बातचीत की. इसके अंतर्गत भारत और अमेरिका के बीच रक्षा समझौते पर हस्ताक्षर किये गये. इस समझौते के बाद, अब भारतीय सशस्त्र सेना, अमेरिका से बड़े पैमाने पर सैन्य उपकरण खरीद पायेगी. इस बातचीत के दौरान भारत और अमेरिका ने चीन के महत्वाकांक्षी विस्तार की आकांक्षाओं पर रोक लगाने हेतु हिंद-प्रशांत क्षेत्र को खुला रखने के लिए आपसी सहयोग का भी वायदा किया है.
गौरतलब है कि इससे पहले, अमेरिका के कारण दो बार टू-प्लस-टू वार्ता रद्द हो चुकी थी. इसी वर्ष, अप्रैल में विदेश विभाग का कार्यभार रेक्स टिलरसन से लेकर माइक पॉम्पियो को सौंपा गया था, जिसकी वजह से वार्ता स्थगित कर दी गयी थी. कुछ ऐसी ही स्थिति जुलाई में सामने आयी थी. जिसके बाद अमेरिका की तरफ से खेद प्रकट किया गया था. पिछले वर्ष, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने वाशिंगटन में मुलाकात की थी और टू-प्लस-टू वार्ता का फैसला लिया था.
क्या है टू-प्लस-टू वार्ता
दो देशों के बीच कूटनीतिक वार्ता के लिए इस शब्दावली का उपयोग किया जाता है. टू-प्लस-टू की अवधारणा में बातचीत के लिए साथ आये दो देशों के रक्षा और विदेश मंत्री वार्ता में शामिल होते है. इन दो देशों के रक्षा और विदेश मंत्री सामरिक और सुरक्षा हितों पर बातचीत करते हैं.
यह एक तरह का एक्शनप्लान होता है, जिसका लक्ष्य दोनों देशों के रक्षा और विदेश मंत्रियों के बीच कूटनीतिक बातचीत द्वारा परिणाम की दिशा में बढ़ना होता है. टू-प्लस-टू वार्ता लगभग सभी प्रमुख देश करते हैं, हालांकि, जापान ने अन्य देशों की तुलना में बातचीत के इस प्रारूप का सबसे ज्यादा उपयोग किया है. भारत के साथ जापान साल 2010 से ही हर वर्ष टू प्लस टू वार्ता में शामिल होता रहा है.
भारत-अमेरिका व्यापारिक संबंध
74.3 बिलियन डाॅलर मूल्य के वस्तुओं का व्यापार हुआ वर्ष 2017 में भारत और अमेरिका के बीच, जिसमें भारत की तरफ से 48.6 बिलियन डॉलर मूल्य के वस्तुओं का निर्यात किया गया अौर अमेरिका से 25.7 बिलियन डॉलर मूल्य के वस्तुओं का आयात किया गया. इस प्रकार वर्ष 2016 के 67.7 बिलियन डॉलर व्यापार के मुकाबले 9.8 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई दोनों देशों के बीच होनेवाले व्यापार में. इस प्रकार अमेरिका भारत का दूसरा सबसे बड़ा व्यापार साझीदार बन चुका है.
35.11 बिलियन डॉलर का व्यापार हो चुका है दोनों देशों के बीच इस वर्ष जनवरी से मई की अवधि में, जो पिछले वर्ष इसी अवधि में हुए 29.43 बिलियन डॉलर के मुकाबले 19.3 प्रतिशत अधिक है.
चीन ने किया टू-प्लस-टू का स्वागत
भारत व अमेरिका के बीच हुए पहले टू प्लस टू डायलॉग का चीन ने स्वागत किया है. चीनी विदेश मंत्रालय ने टू-प्लस-टू वार्ता पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि दोनों देशों के संबंध हिंद प्रशांत क्षेत्र के लिए बेहतर हो सकते हैं्, लेकिन दोनों देशों के बीच हुए ऐतिहासिक सुरक्षा समझौता ‘कम्युनिकेशन, कॉम्पैटिबिलिटी, सिक्योरिटी एग्रीमेंट (कॉमकासा)’ के बारे में कोई टिप्पणी करने से उन्होंने इनकार कर दिया. इसी महीने की छह तारीख को दोनों देशों ने कॉमकासा पर हस्ताक्षर किये हैं.
भारत-अमेरिका द्वारा हिंद-प्रशांत क्षेत्र में समुद्री स्वतंत्रता की मांग उठाने को लेकर किये गये प्रश्न के जवाब में हुआ ने कहा कि समुद्री क्षेत्र में सैन्य नौवहन काे लेकर अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत चीन के पास कानूनी अधिकार है और वे उम्मीद करते हैं कि इस क्षेत्र में स्वतंत्र नौवहन को सुनिश्चित करने के लिए दोनों देश सही तथ्यों के साथ अपने काम करेंगे.
नुकसान कर सकता है अमेरिकी दबाव
इराक और सऊदी अरब के बाद भारत ईरान से सबसे ज्यादा कच्चे तेल का आयात करता है. आंकड़े भी इस बात की पुष्टि करते हैं. भारत में करीब 12 प्रतिशत कच्चा तेल ईरान से आता है. अप्रैल 2017 से जनवरी 2018 तक भारत ने ईरान से 18.4 मिलियन टन कच्चे तेल का आयात किया है.
अगर भारत अमेरिका के दबाव में आकर ईरान से तेल आयात शून्य कर देता है तो उसे उसका काफी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है. ईरान के अलावा भारत सऊदी अरब, इराक, नाइजीरिया व वेनेजुएला से कच्चा तेल खरीदता है, लेकिन इन सभी देशों के मुकाबले ईरान से अपने यहां तेल लाने के लिए भारत को कम पैसे खर्च करने पड़ते हैं.
दूसरे, इन पैसों को अदा करने के लिए ईरान अन्य देशों की तुलना में मोहलत भी ज्यादा देता है. साथ ही भारत व ईरान में तेल के मूल्य चुकाने का जरिया भी अासान है. इतना ही नहीं, आनेवाले समय में भारत की ऊर्जा जरूरतें बढ़ेंगी, इस वजह से भी भारत के लिए ईरान का साथ आवश्यक है, क्योंकि उसके पास विशाल प्राकृतिक गैस का भंडार है. इसके अतिरिक्त ईरान के साथ भारत के सामरिक हित भी जुड़े हैं. ईरान के चाबहार बंदरगाह में भारत ने लाखों डॉलर का निवेश किया हुआ है.
इस परियोजना के पूरी हो जाने के बाद भारत का न सिर्फ ईरान से बल्कि अफगानिस्तान से भी ज्यादा आसानी से व्यापार हो सकेगा. इस प्रकार अमेरिका के दबाव में आने से भारत को न सिर्फ तेल कीमतों का नुकसान होगा, बल्कि चाबहार परियोजना पर भी इसका विपरीत असर पड़ेगा.