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कांग्रेसी ही कांग्रेस को खत्म कर रहे हैं!

।। अनुज कुमार सिन्हा ।। राहुल गांधी कांग्रेस की जमीनी हकीकत को जानने के लिए झारखंड आ रहे हैं. प्रयास सराहनीय है. पर इसका फल तभी मिलेगा, जब उन्हें जमीनी हकीकत की सही जानकारी दी जाये. हो सकता है कि घाघ कांग्रेसी उन्हें ऐसा करने नहीं दें. इसी झारखंड में कभी राजीव गांधी ने यह […]

।। अनुज कुमार सिन्हा ।।

राहुल गांधी कांग्रेस की जमीनी हकीकत को जानने के लिए झारखंड आ रहे हैं. प्रयास सराहनीय है. पर इसका फल तभी मिलेगा, जब उन्हें जमीनी हकीकत की सही जानकारी दी जाये. हो सकता है कि घाघ कांग्रेसी उन्हें ऐसा करने नहीं दें. इसी झारखंड में कभी राजीव गांधी ने यह स्वीकार किया था कि केंद्र से चला एक रुपया यहां पहुंचते-पहुंचते 15 पैसा हो जाता है. अब वैसा सच बोलने का साहस किसी कांग्रेसी में नहीं दिखता.

कांग्रेसी मानने को तैयार नहीं हैं कि झारखंड में उनकी जमीन खिसक चुकी है. यह उनकी अपनी करनी है. एक कांग्रेसी दूसरे की जड़ काटने पर आमादा हैं. इसी में पार्टी का बंटाधार हो चुका है. स्थिति यह है कि जिस दल की देश में सरकार है, वह झारखंड में एक बड़ी रैली भी नहीं कर पाती. कभी झारखंड-बिहार (बंटवारा से पहले) कांग्रेस का गढ़ हुआ करता था.

1985 के चुनाव तक झारखंड-बिहार में कांग्रेस की तूती बोलती थी. 1990 से झारखंड-बिहार में कांग्रेस पर शनि का प्रकोप चला, कांग्रेस का पतन होने लगा. हर चुनाव में कांग्रेस की सीट घटती रही. 43 से (झारखंड क्षेत्र/झारखंड राज्य) घट कर यह संख्या एक बार नौ सीट तक पहुंच गयी. इससे ज्यादा सीट तो छोटे-छोटे क्षेत्रीय दल भी ले आते हैं. सवाल है, कांग्रेस के पतन/इस हालात के लिए दोषी कौन है?

सच यह है कि झारखंड कभी भी कांग्रेस की प्राथमिकता सूची में नहीं रहा. एक-दो मौकों को छोड़ दिया जाये, तो इसकी उपेक्षा कांग्रेस के केंद्रीय नेताओं ने भी की. हां, अजय माकन जब झारखंड के प्रभारी थे, तो उन्होंने सार्थक प्रयास किया, कांग्रेसियों को एक मंच पर लाने का प्रयास किया. अगर कांग्रेस उस रास्ते पर गयी होती, तो आज स्थिति बेहतर होती. बाद में जयराम रमेश को झारखंड में बड़ा जिम्मा मिला.

वे उन दुर्गम क्षेत्रों में भी गये, जहां जाने की अधिकारी या झारखंड के नेता भी हिम्मत नहीं कर पाते थे, लेकिन उनकी बातों को भी किसी ने नहीं माना. उन्होंने नक्सल प्रभावित इलाकों में काम शुरू किया. कांग्रेस इसका लाभ नहीं ले सकी. झारखंड में वे सरकार बनाने के विरोध में थे. उन्हें पता था कि सारा ठीकरा कांग्रेस पर फूटेगा. वही हो रहा है. उन्हें समन्वय समिति का चेयरमैन बनाया गया, लेकिन अधिसूचना तक जारी नहीं की गयी. कांग्रेसी मंत्री ट्रांसफर-पोस्टिंग का उद्योग चलाने में व्यस्त रहे. राज्य और कांग्रेस जाये भांड़ में, कांग्रेसी मंत्रियों/नेताओं को इसकी चिंता नहीं रही. सब अपनी मरजी के मालिक बन बैठे. कोई नियंत्रण नहीं.

कौन क्या बिगाड़ लेगा, किसकी हिम्मत है कि कार्रवाई करे, इसी नीति पर कांग्रेस चल रही है. बदनामी की चिंता नहीं. कांग्रेस का संगठन लगभग तार-तार. कांग्रेस की बैठकों में गोलियां चलती हैं. कोई बाहर का अपराधी नहीं आता, नेताओं के समर्थक एक-दूसरे पर चलाते हैं. जांच होती है, दोनों दोषियों को बचा लिया जाता है.

दोनों ताकतवर जो ठहरे. कांग्रेसी नेता राज्य या जिला मुख्यालय की राजनीति करते हैं. गांवों में नहीं जाते. जाने का समय कहां है. जनता से कटे चुके हैं. मठाधीशों से बाहर निकलने के लिए झारखंड कांग्रेस तड़प रही है. नये कैडर तैयार नहीं हो रहे, पुराने काम नहीं कर पा रहे. पुराने अच्छे-ईमानदार कांग्रेसी पहले ही किनारे हो चुके हैं. ऐसे में झारखंड में कांग्रेस का कायापलट होना बड़ी चुनौती है.

ऐसी बात नहीं है कि कांग्रेस इस क्षेत्र में थी ही नहीं. राज्य भले न बना हो, पर 1985 तक इस क्षेत्र में कांग्रेस की स्थिति ठीक-ठाक थी. 1985 में बिहार विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस को पूरे राज्य में 196 सीट (कुल 324 सीट) मिली थी.

झारखंड क्षेत्र (छोटानागपुर-संतालपरगना) से 43 सीट. यानी अगर उस समय झारखंड बन गया होता, तो झारखंड में कांग्रेस की सरकार हो सकती थी. वह भी बहुमत के साथ. सिर्फ अपने बल पर. लेकिन उसके बाद से कांग्रेस का बिहार-झारखंड में पतन शुरू हुआ. इसकी शुरुआत हुई 1990 के चुनाव से. कांग्रेस झारखंड-बिहार से ऐसी उखड़ी कि 24 साल में अपने बल पर सत्ता में नहीं आ सकी. जमीन खिसक गयी. 324 में सिर्फ 71 सीट (1990 में). अगले चुनाव में और दुर्गति (बिहार-झारखंड में सिर्फ 29 सीट). 2000 का चुनाव आते-आते कांग्रेस के लिए झारखंड-बिहार कब्रगाह बन गया. 324 में सिर्फ 23 सीट मिली.

बिहार-झारखंड के कांग्रेसी नेताओं की देश की राजनीति पर पकड़ थी. ये वे कांग्रेसी थे, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में बड़ी भूमिका अदा की थी. झारखंड में सुशील बागे, टी मुचिराय मुंडा, कृष्ण वल्लभ सहाय, विंदेश्वरी दुबे, कार्तिक उरांव, इंद्रनाथ भगत जैसे राजनीतिज्ञ थे, जिनकी अलग पहचान थी. ख्याति थी. ज्ञानरंजन ऐसे नेता थे, जो अलग राज्य के लिए अकेले लड़ते थे. दिल्ली तक पहुंच थी. आज झारखंड कांग्रेस में कौन से ऐसे नेता हैं, जिनकी दिल्ली पर सीधी पकड़ हो, जो सीधे सोनिया गांधी-राहुल गांधी से बात कर सकते हों, शायद कोई नहीं. कांग्रेस के इस हालात के लिए कोई दूसरी पार्टी नहीं, बल्कि खुद कांग्रेस ही दोषी रही है.

कांग्रेसी आपस में लड़ कर खत्म होते रहे. हर चुनाव में सीट कम होती रही, लेकिन किसी को परवाह नहीं रही. जिस कांग्रेस को 1985 में झारखंड क्षेत्र से 43 सीटें मिली थी, वह हर चुनाव में घटती रही.1990 में 43 से घट कर 20, 1995 में 20 से घट कर 14, 2000 में 14 से घट कर 11 और 2005 में 11 से घट कर 9 हो गयी. कहां तक गिरती कांग्रेस.

झारखंड में जब राष्ट्रपति शासन लगा और तत्कालीन राज्यपाल शंकर नारायण ने जब बेहतर काम किये, तो अगले चुनाव यानी 2009 में कांग्रेस की सीटों में मामूली सुधार (14 सीट तक) हुआ. मैसेज साफ है. झारखंड में अगर कांग्रेस काम करती है, तो जनता श्रेय भी देती है, सीटों में वह दिखता भी है. लेकिन काम तो करना होगा.

अभी झारखंड में कांग्रेस सत्ता में है. काम कर छवि सुधारने का मौका मिला था. काम किया होता, तो इसका लाभ लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिल सकता था. छवि सुधारने की बात छोड़ दीजिए, कांग्रेसी मंत्रियों ने जो कारनामा किया है, अगर राहुल गांधी को वह सब मालूम हो गया, तो उन्हें झारखंड से निराश होना पड़ेगा. जेएमएम की अगुवाई में सरकार बनी है, लेकिन जेएमएम के विधायक-मंत्री विवाद में नहीं पड़ते.

विवाद में कांग्रेस के मंत्री हैं. राज्य में ट्रांसफर-पोस्टिंग को उद्योग बनाने में कांग्रेस के मंत्री सबसे आगे रहे हैं. मुख्यमंत्री से ज्यादा कांग्रेसी मंत्रियों की चलती है. मानिए न मानिए, पर राज्य में मंत्रियों के बेटों का राज चलता है. मंत्री नहीं, उनके पुत्र तय करते हैं कि किसकी पोस्टिंग कहां होगी. राज्य के हालात में सुधार नहीं हो रहा. नीतियां नहीं बन रहीं. राज्य में आरएस शर्मा मुख्य सचिव हैं. देश के जाने-माने ब्यूरोक्रैट्स, लेकिन सरकार उनके अनुभवों का लाभ नहीं उठा रही. ऐसे ही राज्य में अच्छे ब्यूरोक्रैट्स भी हैं, जिनका उपयोग नहीं किया जाता. कई कांग्रेसी मंत्रियों के अशालीन आचरण से जनता में कांग्रेस के प्रति धारणा अच्छी नहीं बन रही.

झारखंड की जेलों में हजारों ऐसे गरीब-निर्देषलोग बंद हैं, जिन पर मामूली आरोप हैं. ऐसे मामलों को खत्म करने के लिए सरकार प्रयास नहीं करती, लेकिन एक कांग्रेसी मंत्री पर आपराधिक मामला चल रहा है, गवाही हो चुकी है, उस मुकदमा को वापस लेकर मामले को खत्म कराने में सरकार लग गयी है. इससे सरकार की क्या छवि बनेगी. अगर ऐसा होता है, तो कांग्रेस पर जनता का विश्वास कैसे जमेगा. एक अन्य मंत्री हैं, जो समाज को बांटने का बयान देती रही हैं. उनके विभागों में बहाली नहीं हो रही. पेच पर पेच लग रहे हैं. उम्मीदवारों की सरकारी नौकरी करने की उम्र खत्म हो रही है.

इसकी चिंता किसी को नहीं है. कांग्रेसी मंत्री आपस में एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी कर रहे हैं. खेमों में बंटी कांग्रेस चुनाव के लिए तैयार नहीं दिखती. कांग्रेस ने भी एक-दो अवसर को छोड़ कर झारखंड को ऐसे-ऐसे प्रभारी दिये, जिन्होंने यहां समय ही नहीं दिया. दिल्ली से आते हैं, बंद कमरों में पूरे राज्य का हाल लेते हैं. प्रदेश के नेताओं से मिलते हैं, जिला-प्रखंड स्तर के नेताओं का यह भाग्य कहां कि वे प्रभारी से मिल सकें.

राहुल गांधी ने हाल में बार-बार कहा है कि वे सारी चीजों को बदल कर रख देंगे. अगर सचमुच में बदलाव करना है, तो यह काम झारखंड से भी शुरू किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए कांग्रेस को कांग्रेसी कल्चर से बाहर निकलना होगा. जो अवसर मिले हैं, उसमें काम करके दिखाना होगा. अगर 24 सालों में कांग्रेस ने कुछ भी काम किया होता (बिहार-झारखंड में), संगठन को मजबूत किया होता, तो आज वह बहुत ही मजबूत स्थिति में होती. झारखंड में कांग्रेस पिछलग्गू पार्टी बन कर रह गयी है. अभी भी अवसर है, लेकिन कांग्रेस की राजनीति में बड़ी सफाई किये बगैर यह संभव नहीं दिखता. अगर कांग्रेस के शीर्ष नेता हिम्मत दिखायें, भ्रष्ट मंत्रियों-नेताओं (कांग्रेस के) को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा कर उदाहरण पेश करें, तो शायद कुछ चमत्कार दिखे.

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