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बिहार 1934 का प्रलयकारी भूकंप : अब तक स्मृति में जीवित है वह मंजर

– बिहार में 15 जनवरी 1934 का महा भूकंप – आनेवाली पीढ़ियां याद करेंगी आज से ठीक अस्सी साल पहले अविभाजित बिहार ने खौफनाक भूकंप का मंजर देखा था. रिक्टर स्केल पर तीव्रता आंकी गयी थी 8.4, इसलिए इसे कहा जाता है महा भूकंप. बिहार का कोई जिला भूकंप के खतरों से सुरक्षित नहीं है. […]

– बिहार में 15 जनवरी 1934 का महा भूकंप

– आनेवाली पीढ़ियां याद करेंगी

आज से ठीक अस्सी साल पहले अविभाजित बिहार ने खौफनाक भूकंप का मंजर देखा था. रिक्टर स्केल पर तीव्रता आंकी गयी थी 8.4, इसलिए इसे कहा जाता है महा भूकंप. बिहार का कोई जिला भूकंप के खतरों से सुरक्षित नहीं है. राज्य के 38 में से आठ जिले जोन पांच में हैं, 22 जिले जोन चार में और आठ जिले जोन तीन के अंदर आते हैं. इसलिए आज इस भू-पट्टी को बेहतर और कारगर आपदा प्रबंधन की जरूरत है. 15 जनवरी, 1934 को आये प्रलयकारी भूकंप से जुड़ी कई महत्वपूर्ण सूचनाएं पहली बार बता रहे हैं एबीपी न्यूज के गुजरात संपादक ब्रजेश कुमार सिंह.

करीब नब्बे वर्ष के हैं कपिलदेव सिंह, बिहार के गोपालगंज जिले के हलवार पिपरा गांव के निवासी. चलने में तकलीफ होती है, लेकिन अगर बात निकले भूकंप की, तो 1934 का साल बिना जोर डाले तुरंत उनके स्मृति पटल पर आ जाता है.

बताते हैं कि कैसे धरती डोली, कैसे मां उन्हें लेकर घर से बाहर भागीं और फटती जाती जमीन से बचते हुए गांव के एक ऊंचे हिस्से में उन लोगों ने अपनी जान बचायी. सभी लोगों को यही लगा कि मानो प्रलय की घड़ी आ गयी हो. दरअसल आज से ठीक अस्सी साल पहले वो भूकंप आया था, जो बिहार के गांवों और शहरों में अस्सी वर्ष की उम्र पार कर चुके हर शख्स के लिए मील का पत्थर है.

गांवों व शहरों में अस्सी साल से ज्यादा की उम्र वाले लोग अब कम ही बचे हैं. ऐसे में उस भयावह भूकंप का आंखों देखा हाल बताने वाली पीढ़ी विलुप्त होने की कगार पर है. न सिर्फइस पीढ़ी, बल्कि इसके बाद की भी दो पीढ़ियों के लिए भी 15 जनवरी 1934 का भूकंप काल निर्धारण का जरिया रहा है, अपनी उम्र बताने का तरीका रहा है.

वो दौर ऐसा नहीं था, जब आज की तरह बच्चों के जन्म के प्रमाण पत्र मिल जाते हों या फिर आप मोबाइल से लेकर डायरी और कंप्यूटर से लेकर अत्याधुनिक नोट पैड में एक-एक तारीख, एक-एक आंकड़ा नोट कर सकते हों.

आखिर कितना भयावह था वो भूकंप, जो पूरे आठ दशक बाद भी बुजुर्गो की याददाश्त के दायरे से बाहर नहीं निकल पाया है. इसके बारे में विस्तार से जानकारी मिलती है तत्कालीन ब्रिटिश भारत के प्रशासनिक दस्तावेजों और जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट्स में.

भारत के पहले राष्ट्रपति और बिहार के सपूत राजेंद्र प्रसाद की आत्मकथा में भी इसका बड़े पैमाने पर जिक्र है.

आजादी के साथ ही साढ़े पांच सौ से भी अधिक देसी रियासतों को भारत संघ में सम्मिलित करने का भगीरथ प्रयास करने वाले लौह पुरुष सरदार पटेल के कई पत्रों में भी इस प्राकृतिक आपदा से मची तबाही का उल्लेख है.

जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने वैज्ञानिक ढंग से इस भूकंप का अध्ययन किया था. मेमॉयर्स ऑफ द जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया का खंड 73 इसी भूकंप को लेकर है, जो 1939 में प्रकाशित हुआ था. इस रिपोर्ट में उन सभी अधिकारियों के अनुभव और उनकी जांच-पड़ताल का जिक्र है, जो उन्होंने तब के बिहार, बंगाल और नेपाल में इस भूकंप को लेकर किया था.

यही नहीं, देश के बाकी हिस्सों में हुए नुकसान का भी जिक्र है. नुकसान सबसे अधिक भले ही बिहार और नेपाल में हुआ था, लेकिन भूकंप के झटकों को कमोबेश भारत के सभी हिस्सों में महसूस किया गया था.

15 जनवरी, 1934 का दिन, दोपहर बाद दो बज कर तेरह मिनट का वक्त. लोगों को ऐसा लगा मानो अचानक प्रलय आ गया हो. जमीन जोर से हिली, आवाज ऐसी आयी मानो मोटर-गाड़ियों का कोई बड़ा कारवां अचानक बड़ी तेजी से गुजरने लगा हो. आवाज आती महसूस हो रही थी जमीन के अंदर से.

और खुद जमीन का हाल ऐसा मानो वो ऊपर की तरफ उठ रही हो और छह से बारह फीट तक की लंबाई में लहर मार रही हो. रिक्टर स्केल पर तीव्रता आंकी गयी 8.4, इसलिए वैज्ञानिक तौर पर महा भूकंप की श्रेणी में आया 1934 का ये भूकंप. रिक्टर स्केल पर आठ से अधिक तीव्रता वाला हर भूकंप महा भूकंप करार दिया जाता है. बिहार और भारत तो दूर, विश्व इतिहास में भी ऐसी तीव्रता वाले भूकंप कम ही रिकॉर्ड किये गये हैं.

जहां तक बिहार का सवाल है, पिछले ढाई सौ वर्षो में इस तीव्रता का दूसरा कोई भूकंप अभी तक नहीं आया है. चार जून 1764 को आया भूकंप तीव्रता के हिसाब से रिक्टर स्केल पर 6 का था, तो 23 अगस्त 1833 को आया भूकंप 7.5 का. बिहार में जो आखिरी बड़ा भूकंप आया, वो 21 अगस्त 1988 का था, उसकी भी तीव्रता 6.6 ही थी.

1934 के इस भूकंप का विवरण डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने अपनी आत्मकथा में बड़े ही विस्तार से दिया है.

भूकंप के ठीक पहले के कई दिनों से वो अस्पताल में भरती थे, पुलिस पहरे के बीच. राजेंद्र बाबू तकनीकी तौर पर राजनीतिक कैदी थे, बांकीपुर जेल से अपने इलाज के सिलसिले में अस्पताल पहुंचे थे. राजेंद्र बाबू ने अपनी आत्मकथा में जिक्र किया है कि जिस वक्त भूकंप आया, वो चारपाई पर लेटे हुए थे. अचानक चारपाई हिलती हुई जान पड़ी. फिर मकान के दरवाजे और जंगले हिलने लगे.

शुरू में तो राजेंद्र बाबू को ये लगा कि उन्हें कमजोरी के कारण चक्कर आ रहा है, बाद में भौजाई ने चिल्ला कर कहा कि धरती डोल रही है. ये सुनने के बाद वो चारपाई से उतर कर बाहर मैदान में निकल भागे. धरती जोरों से डोल रही थी, मैदान में खड़ा रहना भी कठिन था. साथ ही भयानक गड़गड़ाहट थी, सैकड़ों रेलगाड़ियों के एक साथ चलने के बराबर आवाज हो रही थी.

राजेंद्र बाबू ने लिखा है कि उस वक्त नजदीक का ही दो-मंजिला मकान भी धड़ाम से गिरा, लेकिन गड़गड़ाहट इतनी अधिक थी कि मकान गिरने की आवाज कम ही सुनाई दी, केवल धूल-गर्द को जोरों से उड़ते देख कर ही ये समझ में आया कि मकान गिरा है.

राजेंद्र बाबू ने जिस तरह का अनुभव अपनी आत्मकथा में दर्ज किया है, उसी से मिलते-जुलते सैकड़ों अनुभव जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया यानी जीएसआइ की रिपोर्ट में भी दर्ज हैं. जीएसआइ की रिपोर्ट के मुताबिक, भूकंप प्रभावित इलाकों में ज्यादातर लोगों ने ढाई से पांच मिनट तक भूकंप के झटकों को महसूस किया.

लोगों को एक तरफ झटके महसूस हुए, दूसरी तरफ जमीन के अंदर से आवाज आती सुनाई दी. किसी के लिए ये आवाज कई हवाई जहाजों के एक साथ उड़ने जैसी थी, तो किसी के लिए भारी मोटरगाड़ी के गुजरने जैसी. किसी को ऐसा लगा मानो कोई मालगाड़ी आ रही है, तो किसी को ये लगा कि कोई कार तेज रफ्तार से आ रही है.

जीएसआइ ने अपने अध्ययन में पाया कि बिहार में भूकंप का सबसे अधिक प्रभाव मुजफ्फरपुर, दरभंगा और मुंगेर जैसे जिलों पर पड़ा. मुंगेर का चौक बाजार इलाका तो पूरी तरह तबाह हो गया. गलियां संकरी होने की वजह से और अधिक लोगों की जान गयी. लोग अगर किसी तरह घर से बाहर निकले भी तो संकरी गलियों से बाहर निकलने के पहले उनके ऊपर मकान गिर गये और इससे बड़ी तादाद में लोगों की जान गयी.

आधिकारिक रिपोर्ट के मुताबिक भूकंप की वजह से दरभंगा में 1839 लोगों की मौत हुई, तो मुजफ्फरपुर में 1583 लोगों की. मुंगेर में मरने वालों का आंकड़ा 1260 तक पहुंचा. बिहार में कुल मिला कर इस भूकंप की वजह से 7253 लोगों की मौत हुई. करीब 3400 वर्ग किलोमीटर का इलाका ऐसा रहा, जिस पर भूकंप का सबसे गंभीर असर पड़ा. बिहार के उत्तरी हिस्से के अलावा नेपाल पर भी भूकंप की गहरी मार पड़ी.

काठमांडू घाटी में बड़े पैमाने पर मकान तबाह हुए, लोगों की जान गयी. अगर काठमांडू शहर की बात करें, तो यहां करीब 70 फीसदी घर तबाह हो गये. पूरे नेपाल में मरने वालों का शुरु आती आंकड़ा ही साढ़े तीन हजार के करीब पहुंच गया, जो बाद में और बढ़ा. नेपाल में अंगरेज अधिकारियों की गतिविधियों पर प्रतिबंध होने की वजह से लंबे समय तक नुकसान का सही अंदाजा ही नहीं लग सका. भूकंप का केंद्र बिंदु कौन-सी जगह था, इसे लेकर भी लंबे समय तक असमंजस की स्थिति रही. आम तौर पर भूकंप का केंद्रबिंदु भारत-नेपाल सीमा को माना जाता रहा, लेकिन बाद के अध्ययनों में इसे पूर्वी नेपाल में माउंट एवरेस्ट से करीब दस किलोमीटर दक्षिण माना गया.

भले ही नुकसान सबसे अधिक उत्तर बिहार और नेपाल में हुआ, लेकिन इस भूकंप के झटके पश्चिम में मुंबई से लेकर पूर्व में दार्जिलिंग तक महसूस किये गये. चंपारण से लेकर पूर्णिया और काठमांडू से लेकर मुंगेर तक के इलाके में ज्यादातर मकान तो तबाह हुए ही, इनसे बाहर के इलाके में भी भूकंप से तबाही हुई.

जीएसआइ की रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख है कि दक्षिण भारत के गंजाम जिले तक के लोगों ने हल्के झटके महसूस किये. जहां तक बिहार के दक्षिणी हिस्से का सवाल है, गया और दुमका तक लोग बिना सहारे के खड़े नहीं हो सके. ज्यादातर जगहों पर भूकंप के समय लोगों को धरती पर बैठ जाने के लिए मजबूर होना पड़ा. कोलकाता में भी लोगों ने भूकंप के झटकों को खूब महसूस किया. तब के संयुक्त प्रांत में आगरा, कानपुर, वाराणसी और इलाहाबाद तक मकानों को आंशिक नुकसान हुआ. तत्कालीन दक्षिण बिहार (अब झारखंड) के रांची और धनबाद जैसे शहरों में भी ज्यादातर मकानों में दीवारें फटीं. इस भूकंप की एक और बड़ी खासियत रही, जमीन का बड़े पैमाने पर बैठ जाना.

इसकी वजह से मकान जितने बड़े पैमाने पर गिरे नहीं, उससे ज्यादा जमीन में उनके धंसने से नुकसान हुआ. इसी के साथ जमीन से फव्वारे की शक्ल में पानी और बालू बाहर निकला. कई जगह तो लोगों ने बीस-बीस फीट की ऊंचाई तक पानी को तेज धार के साथ आसमान की तरफ उछलते देखा. जमीन से जो पानी निकला, उसे लोगों ने गर्म पाया.

भूकंप की वजह से जमीन में दरारें भी बड़े पैमाने पर फटीं. ये सिलसिला चंपारण से लेकर दरभंगा तक हर जगह देखने को मिला. कई जगह तो चालीस से पचास फीट गहरी दरार तक फटी. इसमें मकान से लेकर गाड़ियां तक कई जगहों पर जमीन के अंदर समा गयीं. जहां तक इन दरारों की चौड़ाई का सवाल था, ये आधे फीट से लेकर 27 फीट तक चौड़ी रहीं. दरारों की लंबाई भी अलग-अलग. तब के पूसा में एक दरार सात सौ यार्ड लंबी थी.

कुंओं और तालाबों से भी पानी और बालू के फव्वारे ऊपर की तरफ गये. तालाब और कुंओं में मिट्टी और बालू ऊपर तक आ जाने के कारण वो बेकार हो गये. रेल की पटरियों से लेकर उन पर बने पुल तक बड़े पैमाने पर क्षतिग्रस्त हुए, सामान्य सड़कों का तो कहना ही क्या.

तब के बंगाल और उत्तर-पश्चिम रेलवे के एक अधिकारी जे विलियमसन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि उत्तर बिहार और पूर्वी संयुक्त प्रांत में मौजूद रेलवे की करीब नौ सौ मील लंबी रेल की पटरियों में एक भी हिस्सा ऐसा नहीं था, जो मील भर भी सही सलामत बचा हो. यही हाल रेलमार्गों पर बने सैकड़ों पुलों का भी था.

भूकंप का असर नदियों और नालों पर भी पड़ा. जिन इलाकों में भूकंप का असर गंभीर था, वहां नदियों के पट भी सिकुड़ गये. कई जगह पानी का प्रवाह रूक गया, क्योंकि मिट्टी और बालू का ढेर धारा के बीच आ गया था. बालू के बाहर निकलने के कारण खेतों की भी बरबादी हुई. बालू की मोटी परत अगली बरसात के बाद ही बह पायी. बालू की वजह से प्रभावित इलाका कोई छोटा-मोटा नहीं था, बल्कि था करीब 46000 वर्ग किलोमीटर का.

जहां तक खेती और किसानों का सवाल है, उस पर भी गंभीर असर पड़ा. सिंचाई के साधन बरबाद हो गये थे. ज्यादातर जगहों पर कुंए और तालाब बेकार हो चले थे, ऐसे में सिंचाई उनके भरोसे संभव नहीं थी. जहां तक फसल का सवाल है, उसकी भी बरबादी हुई. सबसे ज्यादा परेशानी गन्ना उपजाने वाले किसानों को हुई.

भूकंप के कारण बड़ी तादाद में चीनी मिलें बरबाद हुईं, क्षतिग्रस्त हुईं. उनका कामकाज रूक गया. ऐसे में इन मिलों में किसानों का गन्ना जा नहीं पाया, मजबूरन किसानों को गांव में ही गन्‍नों की पेराई कर गुड़ बना कर बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा.

हालांकि प्रलय का एहसास करा देनेवाले इस भूकंप में इसी तीव्रता वाले दूसरे भूकंपों के मुकाबले लोगों की कम जान गयी. इसका कारण रहा भूकंप का समय. दरअसल भूकंप जिस वक्त आया, उस समय दिन होने के कारण ज्यादातर लोग गांवों में घर से बाहर थे. दूसरा ये कि मकान भूकंप के थोड़े समय बाद गिरे, इसलिए लोगों को घरों से निकलने का वक्त मिल गया.

गांवों की तुलना में शहरों में लोगों की जान अगर ज्यादा गयी, तो उसका कारण ये था कि लोग घरों में मौजूद थे और बाहर निकलते समय भी तंग गलियों में उनका जल्दी से बाहर निकलना नहीं हो पाया.

पटना में गंगा नदी के किनारे के सभी मकान या तो गिर गये या फिर क्षतिग्रस्त हुए. गांधी मैदान के नजदीक भी यही हाल रहा. चीफ जस्टिस से लेकर कमिश्नर और एसपी तक के आधिकारिक आवासों का बुरा हाल हुआ.

पीएमसीएच को भी नुकसान पहुंचा, रोगियों को अस्पताल के वार्डो से निकाल कर खुले मैदान में रखने की नौबत आयी. बिहार सचिवालय की बिल्डिंग को भी नुकसान पहुंचा, खास तौर पर टावर को. टावर का ऊपरी हिस्सा क्षतिग्रस्त हुआ और कुछ दिनों बाद गिर भी गया.

दूसरे शहरों और कस्बों में भी कई महत्वपूर्ण इमारतों को भारी नुकसान उठाना पड़ा. कृषि विज्ञान के क्षेत्र में तब के सबसे महत्वपूर्ण संस्थान पूसा एग्रीक्लचरल इंस्टीट्यूट का कैंपस पूरी तरह तबाह हो गया. इसी तरह राजनगर में मौजूद महाराजा दरभंगा का महल भी क्षतिग्रस्त हुआ. जहां तक सामान्य घरों का सवाल था, पूरे उत्तर बिहार में कम ही घर ऐसे बचे, जिसे किसी भी किस्म का नुकसान न हुआ हो.

इस भयावह भूकंप की वजह से बिहार में हुए नुकसान का अंदाजा लगने में कई दिनों का वक्त लगा. नुकसान की जानकारी हासिल करने के लिए हवाई जहाजों का भी सहारा लेना पड़ा. हवाई सर्वेक्षण हुए, निजी विमानों का भी इसके लिए इस्तेमाल किया गया.

सरकारी-गैर सरकारी टीमें इस काम में लगी. लोगों को मलबों से बाहर निकालने के बाद मदद पहुंचाने की प्रक्रि या शुरू हुई. चूंकि ये भूकंप जाड़े के मौसम में आया था, इसलिए बेघर हुए लाखों लोगों के लिए चुनौती और गंभीर हुई.

इस भूकंप के तुरंत बाद कांग्रेस की बिहार इकाई से जुड़े बड़े नेताओं को जेल से छोड़ा गया. इनमें सबसे प्रमुख थे डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद. हालांकि राजेंद्र बाबू को स्वास्थ्य कारणों से छोड़ने का फैसला भूकंप आने से दो-तीन घंटे पहले ही किया जा चुका था. बाकी नेता भी अगले कुछ दिनों में छोड़े गये. राजेंद्र बाबू की अध्यक्षता में ही बिहार सेंट्रल रिलीफ कमेटी का गठन किया गया.

इस गैर-सरकारी संगठन के जरिये भूकंप पीड़ितों के लिए राहत सामग्री जुटाने का काम शुरू किया गया. पटना के एक्जीबिशन रोड पर इसका कार्यालय बनाया गया और कार्यालय प्रभारी बने जयप्रकाश नारायण. जेल से छूटने के बाद अनुग्रह नारायण सिंह को महासचिव की जिम्मेदारी दी गयी.

कांग्रेस से जुड़े देश के प्रमुख नेताओं के दौरे भी हुए. जवाहर लाल नेहरू ने करीब दस दिनों तक बिहार के भूकंपग्रस्त इलाकों का दौरा किया. खुद महात्मा गांधी भी 11 मार्च को पटना पहुंचे. उसके बाद राजेंद्र बाबू के साथ वो लगातार भूकंपग्रस्त इलाकों में घूमते रहे, राहत कार्यो का जायजा लेते रहे. गांधी 20 मई तक बिहार में रहे. खास बात ये रही कि गांधी ने इस भूकंप को छुआछूत के खिलाफ भगवान के कहर के तौर पर गिनाया.

देश के दूसरे राज्यों से राहत सामग्री आने का सिलसिला चलता रहा, उन राज्यों के नेता भी बिहार पहुंचे. ढेर सारे स्वयंसेवी और सामाजिक संगठन राहत कार्य में लगे. रामकृष्ण मिशन, मारवाड़ी रिलीफ सोसाइटी, मेमण रिलीफ सोसाइटी, रेड क्रॉस, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन और पंजाब सेवा समिति ऐसे ही कुछ प्रमुख नाम रहे.

खुद सरकारी स्तर पर भी राहत कार्य चलाने के लिए वायसराय अर्थक्वेक रिलीफ फंड बनाया गया. देश के तमाम हिस्सों से बड़े-बड़े जमींदारों, प्रतिष्ठित नागरिकों और उद्योगपतियों ने इसमें योगदान दिया. करीब बासठ लाख रु पये की रकम वायरसाय अर्थक्वेक रिलीफ फंड में आयी, तो राजेंद्र बाबू की अगुआई वाली सेंट्रल रिलीफ कमेटी के कोष में करीब 28 लाख रुपये की रकम जमा हुई.

एक तरफ फंड इकट्ठा होता रहा, दूसरी तरफ भूकंप पीड़ितों को राहत पहुंचाने का काम शुरू हुआ. हालांकि इस काम में काफी मुश्किलें आयीं. भूकंपग्रस्त इलाकों में राहत सामग्री कैसे पहुंचायी जाये, ये बड़ी चुनौती थी. रेल सेवा बाधित हो चुकी थी, क्योंकि पटरियां उखड़ चुकी थीं, पुल टूट चुके थे. यही हाल सड़कों का भी था और उन पर बने पुलों का भी. ऐसे में एक जगह से दूसरी जगह राहत का सामान लेकर जाना काफी परेशानी भरा काम था.

मोटरगाड़ियां भी कम ही थीं, ऐसे में बैल गाड़ियों पर भी राहत का सामान ढोया गया. राहत कार्य में लगे कार्यकर्ता गांव में पैदल या फिर साइकिल के सहारे चक्कर लगाते थे. अगर गांव में राहत सामग्री पहुंचा भी दी गयी, तो आखिर भोजन पके किसमें. बरतन तो ध्वस्त हुए मकानों के अंदर रह गये थे. बरतन का भी जुगाड़ हो जाये, तो फिर जाड़े के मौसम में खुले आसमान के नीचे इसे पकाना चुनौतीपूर्ण.

खाना एक तरफ, रहने का क्या करें. ये समस्या खुद उन राहत-कर्मियों के लिए भी थी, जो गांवों में राहत का सामान लेकर पहुंचे थे. गांवों में जिनके मकान गिरे पड़े थे, उनको मकान बनाने के लिए नकद रकम दी जाये या फिर सामग्री दी जाये, इस पर भी विचार हुआ. सबसे बड़ी समस्या ये पैदा हुई कि गांवों में पीने का पानी गायब हो चुका था. भूंकप के कारण कुंए, तालाब सब बरबाद हो चुके थे. उनमें पानी का जगह बालू भर गया थी. जहां पर पहले कुंए थे, वहां बालू नजर आ रही थी. बालू तो जमीन के अंदर से निकल कर खेतों में भी पट चुका था.

ऐसे में महात्मा गांधी की सलाह पर सबसे पहले पानी मुहैया कराने की व्यवस्था शुरू की गयी. राहत कोष का बड़ा हिस्सा गांवों और कस्बों में नये कुंए बनाने के लिए खर्च किया गया. हजारों की तादाद में नये कुंए खोदे गये, ताकि लोग पीने के पानी को न तरस जायें. पुराने कुंओं और तालाब की भी मरम्मत की गयी, उन्हें साफ किया गया.

बिहार के लोगों को राहत पहुंचाने का जब ये काम चल रहा था, कांग्रेस में जिस शख्स को आपदा प्रबंधन का सबसे अधिक अनुभव था, वो जेल में पड़ा हुआ था. सरदार पटेल उस वक्त नासिक की सेंट्रल जेल में बंद थे. सरदार ने अहमदाबाद नगरपालिका के सदस्य और बाद में उसके अध्यक्ष के तौर पर बाढ़ से लेकर कई बड़े संकटों के समय जबरदस्त काम किया था, जिसकी तारीफ अंगरेज अधिकारियों ने भी की थी.

ऐसे में जब बिहार में आये भयावह भूकंप की खबर सरदार को मिली, तो उन्होंने जेल से ही चिट्ठियां लिख कर अपने साथियों और अनुयायियों को बिहार में मदद पहुंचाने का निर्देश दिया. भूकंप के पांचवें दिन ही जेल से स्वामी आनंद को लिखे पत्र से इसका पता चलता है.

बीस जनवरी 1934 के इस पत्र में सरदार ने लिखा – ‘बिहार में तो भयंकर स्थिति बनी है. गरीब प्रांत पर जबरदस्त आफत आयी है. मुंगेर शहर प्रांत में अच्छा से अच्छा था. वह बिल्कुल खत्म हो गया है. राजेंद्र बाबू बीमार पड़े हैं-इस बार मेरा जी बहुत जल रहा है. अगर मैं बाहर होता तो स्वयंसेवकों का एक बड़ा दल लेकर वहां पहुंच जाता. मुझे हमारे बाढ़ संकट के दिन याद आ रहे हैं. यह आफत तो उससे भी भारी है.’

सरदार पटेल बिहार के भूकंप को लेकर कितने चिंतित थे, इसका अंदाजा 28 जनवरी 1934 को लिखे उनके एक और पत्र से लगता है. ये पत्र उन्होंने जीवी मावलंकर को लिखा था. इसमें एक तरफ जहां वो अहमदाबाद जैसे शहरों और बड़े सेठों से बड़ी मात्र में रकम जुटा कर बिहार भेजने की बात कर रहे थे, तो दूसरी तरफ तब के बिहार की सरकार पर भी बरसते दिखाई दे रहे थे.

उनको गुस्सा इस बात पर आ रहा था कि सरकार राहत पहुंचाने के लिए लोगों से धन इकट्ठा करने की जगह खुद क्यों नहीं खर्च करती. पुराने समय में राजा संकट के समय अपनी तिजोरी से खुल कर खर्च करते थे, ये बात भी उन्होंने लिखी थी और ये कहा था कि सरकार पर दबाव बनाया जाना चाहिए. सरदार ने ऐसी चिट्टियां और भी कई लोगों को लिखीं. इसके पीछे उद्देश्य एक ही था कि कैसे भूकंप पीड़ित लोगों को जल्दी और ज्यादा से ज्यादा राहत मिल सके.

राहत के इस सिलसिले और इसके लिए की गयी सरकारी-गैर सरकारी कोशिशों के सहारे भूकंप की उस त्रासदी का लोगों ने सामना किया, लेकिन इसकी भयावह छाया से निकलने में कई वर्ष लग गये. हालांकि त्रासदी इतनी बड़ी थी कि वो कभी बिहार के जनमानस से निकल नहीं पायी, खास तौर पर उन लोगों के दिमाग से जिन्होंने खुद इसे झेला था. ऐसे लोग अब धीरे-धीरे धरती छोड़ रहे हैं, लेकिन उस त्रासदी के अस्सी वर्ष बाद भी उसे अगले कई और दशकों तक भावी पीढ़ियां याद करती रहेंगी, जब बात चलेगी प्रकृति के कहर की. आखिर पिछले ढाई शताब्दियों में बिहार ने इससे बड़ा प्रकृति का रोष जो नहीं झेला है.

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