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रामलीला

विरासत राधाकृष्ण पेशा में कोई पेशा हुआ भी तो रामलीला का दल रखने का पेशा हुआ, दुकानदारी का पेशा होता, जमींदारी होती, महाजनी होती, कोई भी, कैसा भी पेशा होता, तो एक बात थी, मगर रामलीला का दल रखने का पेशा….. सो भी यह खानदानी पेशा है, सात पुश्तों से रामलीला का दल चला आता […]

विरासत

राधाकृष्ण

पेशा में कोई पेशा हुआ भी तो रामलीला का दल रखने का पेशा हुआ, दुकानदारी का पेशा होता, जमींदारी होती, महाजनी होती, कोई भी, कैसा भी पेशा होता, तो एक बात थी, मगर रामलीला का दल रखने का पेशा….. सो भी यह खानदानी पेशा है, सात पुश्तों से रामलीला का दल चला आता है, और रामरतन जरा आधुनिक बुद्धि का आदमी है, सो अपने पेशे को पसंद नहीं करता, मगर खानदानी चीज है, रामलीला वह छोड़ नहीं सकता, अपना दल तोड़ नहीं सकता.

मगर ये जो ‘ऐरा–गैरा, नत्थू खैरा’ आकर राम बनते हैं, लक्षमण बनते हैं, वशिष्ठ और विश्वामित्र बन जाते हैं; सो रामरतन को पसंद नहीं. यह इस प्रकार राम की पैरोडी हो जाती है, लक्ष्मण का उपहास हो जाता है, राजा दशरथ की मिट्टी पलीद होती है, और महाज्ञानी वशिष्ठ के मुंह से ज्ञान के बदले अज्ञान ही ज्यादा निकलता है. सो, रामरतन रामलीला के इस पुराने ढर्रे में परिवर्तन करेगा.

और, वह रामरतन पांच दिन से परेशान है, वह कोई ऐसा बालक खोज रहा है, जो राम का चरित्र करे, वह किसी ऐसे ही सांवले-सलोने बालक की खोज में घूम रहा है, तमाम जगह ढूंढ़ आया है, लेकिन रामरतन को ऐसा बालक नहीं मिलता, जो देखने में आते हैं, वे जी को जंचते नहीं, सबमें एक-दो त्रुटियां अवश्य सामने आ जाती हैं, वैसा मनचाहा बालक नहीं मिलता. न जाने मिलेगा भी या नहीं मिलेगा.

पांचवें दिन रामरतन निराश हो गया, जब राम ही नहीं, तो रामलीला भी नहीं. वह थक गया; शरीर से भी, मन से भी. उसे लगा जैसे वह कूड़े के अंदर शालिग्राम ढ़ूंढ़ रहा है. भला कहां मिलेगा? उसे लगा कि इतनी बड़ी धरती पर वह सबसे ज्यादा लाचार प्राणी है. उसकी परेशानी में कोई उसका सहारा नहीं हो सकता. भला यह रामलीला का दल क्या हुआ, परेशानी का भंडार हो गया. वह थक कर पार्क की एक बेंच पर बैठ गया. अगर राम का चरित्र करनेवाला बालक नहीं मिला, तो फिर रामलीला कैसे होगी?

वह देखता है, एक वैसा ही अबोध, वैसा ही भोला, निर्मल-निश्छल, सांवला-सलोना बालक पार्क में तितलियों के पीछे दौड़ रहा है, कौन लड़का है? किसका लड़का है? अगर यह राम का चरित्र करे, तब तो फिर कुछ कहना ही नहीं.

उसने बालक को बुलाया, अपने पास बिठा कर उससे तरह-तरह की बातें पूछने लगा. लड़के ने कहा, मेरे पिता नहीं, मेरी मां है. वह क्या करती है, सो मैं नहीं जानता. हमारे घर में तीन गायें हैं.

मां उसका दूध दुहती है. एक ग्वाला आकर उसका दाम दे जाता है. हमारे एक मामा हैं, सो बड़ी दूर रहते हैं. रंगून कहां हैं, जानते हो? हमारे मामा वहीं नौकरी करते हैं. जब वे आयेंगे और एक रबर की गेंद लायेंगे. वे मेरे लिए कोट सिला देंगे और हाफ पैंट खरीद देंगे. फिर कोई तकलीफ नहीं रहेगी!

इस बालक को पाकर रामरतन ने मानो आसमान का चांद पा लिया. राम के लायक ऐसा बालक मिलना असंभव था. थोड़ी देर के बाद वह उस बालक की मां के सामने खड़ा था और उसकी शंकाओं का समाधान कर रहा था. उसकी मां को जो हिचक थी, सो रुपयों की आवाज सुनते ही मिट गयी.

रामरतन ने बालक से पूछा, ‘क्यों भाई, राम का चरित्र करोगे न?’

‘करूंगा.’ बालक ने सरलता से जवाब दिया.

‘तीर चला कर तब तुम ताड़का कैसे मारोगे?’

बालक ने छोटी-सी धनुही से तीर का ऐसा सरल संधान किया कि रामरतन खुशी से निहाल हो उठा. ऐसा बढ़िया राम का प्रतिरूप है.

और दूसरे दिन से ही रामलीला में दर्शकों की भीड़ तिगुनी-चौगुनी होने लगी. यह बालक राम के रूप में अभिनय को सार्थक कर रहा था.

फिर 22 वर्ष व्यतीत हो गये. इतने दिनों की बड़ी लंबी अनेकानेक कहानियां हैं. रामरतन की रामलीला-पार्टी आज भारतवर्ष में विख्यात है. पार्टी के पास धन है, सम्मान है, प्रतिष्ठा है, मगर फिर भी रामरतन को शांति नहीं. अब उसकी पार्टी ग्वालियर में आयी है. महाराज ने खास तौर पर उसकी रामलीला-पार्टी को निमंत्रण दिया है. लोग उत्सुक हैं. मगर रामरतन जान-बूझ कर पंद्रह दिनों से देर कर रहा है. उसके पास रावण की कमी है. जो व्यक्ति रावण का काम करता था, वह रामरतन को पसंद नहीं. उस रावण के भयानक चेहरे पर क्रोध था, हिंसा थी. उसके भारी गले से कर्कश आवाज निकलती थी. हां, ऐसा रावण ही रावण जगतमाता जानकी का हरण कर सकता है.

और, आखिर ऐसा ही एक व्यक्ति उसे एक शराबखाने में दिखाई दिया. उसके चेहरे पर अभिमान और क्रूरता थी. कर्कश-कंठ से गालियों की बौछार निकल रही थी. दुकानदार से वह मुफ्त में शराब के बदले बेशुमार गालियों का विनिमय करने लगा था. हां, यही व्यक्ति है, जो चाहे तो रावण बन कर सचमुच सज सकता है. चेहरे पर कैसी भयानकता है? आंखों में कितना कमीनापन है? यह साधु का कपट वेश धारण करके सीता के पास जायेगा, तब भी मन-वाणी और रूप की भयानकता नहीं मिटेगी. देखते ही लोग कह देंगे, यही रावण है, कपटी, बदमाश! ………

रामरतन आगे बढ़ गया और दुकानदार के सामने चवन्नी फेंक कर बोला- भाई, मेरी ओर से इन्हें पिला; एक बोतल!

ऐं! रावण की प्रतिच्छवि वाला व्यक्ति बोला- तू तो बड़ा दयावान है यार! बतला, मैं तेरा क्या काम करूं? तू मुझसे क्या काम लेगा?

रामरतन ने कहा- मेरी एक रामलीला पार्टी है, मैं उसमें तुम्हें रावण का चरित्र देना चाहता हूं.

रावण? ….अच्छा, मैं करूंगा.

और, सचमुच उसके बाद रावण का काम सबसे अच्छा हुआ. रामलीला समाप्त होने पर रामरतन ने उससे पूछा- बोलो, आज पुरस्कार में मैं तुम्हें क्या दूं?

रावण ने कहा- मैं आपसे पहले भी बहुत कुछ पा चुका हूं, अब आज क्या मांगूं?

पहले? रामरतन ने आश्चर्य से कहा. मैंने आपको पहले दिन ही पहचान लिया था. मैं वही आदमी हूं, जो लड़कपन में आपके यहां राम का चरित्र किया करता था. उसके बाद मेरे मामा आकर मुझे आपसे ले गये. याद कीजिए. मैं वही आदमी हूं. कभी आपके यहां मैं राम बनता था. याद, आया?

हां, रामरतन को अब सब याद आ गया. रावण के उस भयानक चेहरे के भीतर से रामरतन को राम की वही सांवली-सलोनी निर्मल छवि फूटती हुई-सी दिखाई पड़ी. वह आश्चर्यचकित होकर बोल उठा- हां, तुम वही राम हो, मुझे याद आ गया, तुम वही राम हो.

पंकज िमत्र

कथाकार

कविगुरु ने जब ऐसे देश की शुभाकांक्षा की थी, जहां चित्त हो भयरहित, मस्तक हो अभिमान से ऊंचा और स्वच्छ तथा स्वतंत्र चिंतन की धारा निर्बाध बहती रहे, तो उन्हें अनुमान भी न रहा होगा कि शुभाकांक्षित यह देश तीन तरह के वर्गीकरण का शिकार हो जायेगा – हा! हा! वर्ग, ही–ही वर्ग तथा हू–हू वर्ग.

आप सोच रहे होंगे, भला किस प्रकार का वर्गीकरण है – अमीर-गरीब, मूर्ख-बुद्धिमान, डिजिटल डिवाइड सब सुना था. परंतु, यह वर्गीकरण! हा! हा! वर्ग, तथा ही–ही वर्ग के बारे में कुछ टिप्पणियों के बाद ही आप तीसरे वर्ग–हू–हू वर्ग के बारे में जान पायेंगे. शुरुआत हा! हा! वर्ग से. कई विद्धानों का मत है कि यह हाय! हाय! वर्ग कहलाना चाहिए. ‘हा! भारत दुर्दशा देखि न जाई,’ वाले भाव से. यह वर्ग जन्मजात छिद्रान्वेषी है. आजादी मिली तो कहा- अधूरी है. विकास हुआ तो कहा, ये भला विकास है. वैसे यह वर्ग अब ज्यादा जनता के बीच नजर नहीं आता. टीवी चैनलों पर ज्यादा नजर आता है अति उत्तेजित भाव से बतियाता. गरीब आदमी को उन्हीं की गरीबी के बारे में ऐसे-ऐसे तथ्य बताता है कि गरीब भौंचक रह जाता है. गरीब से ज्यादा गरीबी के बारे में जानता है.

इस वर्ग की अंतिम शरण स्थली आजकल एनजीओ है. सरकारें भी आजकल इन विघ्नसंतोषियों को पसंद करने लगी है. इनसे दो लाभ हैं सरकारों को–एक निंदक नियरे राखिये तथा दूसरे जिम्मेदारियों से मुक्ति. अब ही-ही वर्ग. संतुष्ट होकर ही-ही करता, क्योंकि उन्हें मालूम होता है कि जो भी होगा, उनके हित में ही होगा. हर दल को प्रसन्न रखता है. किसी की सरकार हो इनकी तो बस ही-ही. इसकी सांसों के तार मार्केट से जुड़े होते हैं. चांदी का जूता इनका प्रमुख हथियार है. वैसे इनका एक गंभीर संस्करण है, जो सबके सामने ही–ही नहीं करता. कहां पर कोयला है, लोहा है, जमीनें हैं, सब इनके नखदर्पण में रहता है. अब सरकारें उनके सामने ही-ही करती रहती हैं.

इन दोनों वर्गों से तो पहले से ही चित्त भयपूर्ण रहता ही था, पंरतु अब एक नया वर्ग आया है – हू-हू. यह वर्ग मीडियाकृत समाज की उपज हर दल में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करा रहा है. टीवी कैमरों का ध्यान आकर्षित करने को उद्यत और हर प्रकार की अभिव्यक्ति को हू-हू की तलवार से, त्रिशूल से काट डालने को सन्नद्ध, भय और आतंक पसारना ही मुख्य हथियार, संवाद से अधिक विवाद में रुचि.

वैचारिक बहस-मुबाहसे को दरकिनार कर किसी को आतंकवादी, किसी को राष्ट्रद्रोही की मुहर गर्म कर दाग देना. यह एक नयी शुरुआत है और वह दिन दूर नहीं, जब हर सभा, कार्यक्रम में भाषण और विचारों की जगह सिर्फ हू-हू सुनाई दे. अभिव्यक्ति के तमाम उपादानों पर जब भय की हू-हू तलवार लटकेगी, तो हे कविगुरु! चित्त कैसे हो भयरहित भला? ऐसे भयोत्पादक अंधेरे समय में प्रभात खबर द्वारा अभिव्यक्ति का एक दरीचा खोलना हमसब के लिए आश्वस्तिदायक है.

इस अंक में हमने राधाकृष्ण की कहानी ‘रामलीला’ चुनी है. 1945–46 के आसपास छपी यह कहानी छोटे कलेवर की एक बड़ी कहानी है और राधाकृष्ण एक छोटी जगह के बड़े कथाकार! इसमें विमानवीकरण की परिस्थितियों का सटीक आकलन है. प्रेमचंद ने इस कथाकार को उच्चासन दिया था.

आज अमर कृित मैला आंचल के रचनाकार फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म िदन है. वह ग्राम्य -जीवन के अप्रतिम कथाकार थे. उनकी रचनाओं में तत्कालीन समाज का अनूठा िचत्रण िमलता है. चर्चित ब्लॉगर िगरींद्रनाथ झा ने रेणु जयंती पर उन्हें याद िकया है.

यह अंचल रेणु का, यह मन रेणु का …

गिरींद्रनाथ झा

अपनी कथाओं के जरिये जन-मानस को गांव से करीब लाने वाले लेखक फणीश्वर नाथ रेणु अक्सर कहते थे कि खेती करना कविता करना है, कहानी लिखना है. रेणु ने एक दफे कहा था, “एक एकड़ धरती में धान उपजाना, उपन्यास लिखने जैसा है. लेखन का ही आनंद मिलेगा खेती करने में.” साथ ही वे खेती को एक अलग नजरिये से लोगों के सामने लाने की कोशिश भी करते थे. आज अपने रेणु का जन्मदिन है. रेणु लोक के लेखक थे.

खेती-किसानी से जुड़े रहने वाले रेणु अपनी रचनाशीलता के शुरुआती दौर में जार्ज बनॉर्ड शॉ से काफी प्रभावित थे. दरअसल शॉ बेलाग ढंग से अपनी बात रखते थे, वे खुद की भी आलोचना करते थे. रेणु को यही पसंद था. आज जब मुल्क में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर इतनी बहस हो रही है, तब मुझे फणीश्वर नाथ रेणु की लेखनी की सबसे सबसे अधिक याद आ रही है. वे खुलकर अपनी बात रखते थे.

उन्होंने एक बार कहा था – “मैंने आजादी की लड़ाई आज के भारत के लिए नहीं लड़ी थी. अन्याय और भ्रष्टाचार अब तक मेरे लेखन का विषय रहा है और मैं सपने देखता रहा हूं कि यह कब खत्म हो. अपने सपनों को साकार करने के लिए जन संघर्ष में सक्रिय हो गया हूं.”

किसानों को लेकर रेणु कुछ न कुछ हमेशा करते रहते थे. उन्होंने कई किसान आंदोलनों में भाग लिया. 25 नवंबर 1949 को पटना में एक एेतिहासिक किसान सम्मेलन हुआ था. रेणु खुद इस सम्मेलन में शामिल हुए और बाद में किसानों के मार्च का अभूतपूर्व चित्रण ‘नये सवेरे की आशा’ नामक रिपोर्ताज में किया.

आज जब धर्म, मजहब को लेकर मुल्क में बहस हो रही है, तब मुझे रेणु की लिखी एक कहानी – ‘धर्म, मजहब और आदमी’ की याद आ रही है. कहानी का नायक मनमोहन है, जो खुद रेणु ही हैं. मनमोहन पूछता है- “भूखे, बीमार मुल्क में धर्म के नाम पर लड़ाइयां होती हैं अथवा रोटी के लिए? रोटी के लिए नोआखाली और बिहार के गांवों ने कितनी बार सम्मिलित कोशिश की ?” रेणु का सवाल आज भी उसी जगह पर है. हम सब किधर जा रहे हैं?

रेणु को हम केवल पढ़कर नहीं समझ सकते हैं. रेणु को समझने के लिए रेणु को जीना पड़ता है. रेणु हमारे ‘संवदिया’ हैं. उनका दिल समाज की फटेहाल दशा, इस टूटन, भुखमरी आदि को देखकर दरकता है, जिसे वे लिख देते हैं वहीं खेत-खलिहानों, लोकगीतों आदि को देख-सुन कर जब उनका दिल खुश होता है तब वे हमें विदापत नाच दिखाने लगते हैं. रेणु मेरे लिए ‘रसप्रिया’ कहानी के मृदंगिया हैं, जो हमें मीठे स्वर में सुनता है –

“अरे, चलू मन, चलू मन- ससुरार जइवे हो रामा

कि आहो रामा

नैहिरा में अगिया लगायब रे की….”

आइये, आज हम उन्हें जानकर, उनका जन्मदिन मनाते हैं क्योंकि उनको बार-बार पढ़कर हम-आप हर बार नया रस, नया सुख, नयी भंगिमा पा सकते हैं.

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