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थ्री डी टेक्नोलॉजी एक मनमोहक दुनिया

।। संदीप निगम ।। थ्री डी टेक्नोलॉजी की कल्पना भले ही बेजान तस्वीरों को जीवंत बनाने के लिए की गयी हो, पर अब इसका दायरा काफी विस्तृत हो चुका है. यहां तक कि थ्री डी टेक्नोलॉजी से अब मनचाही चीजों के निर्माण की कोशिश की जा रही है. इसमें जादू की छड़ी साबित हो रहा […]

।। संदीप निगम ।।

थ्री डी टेक्नोलॉजी की कल्पना भले ही बेजान तस्वीरों को जीवंत बनाने के लिए की गयी हो, पर अब इसका दायरा काफी विस्तृत हो चुका है. यहां तक कि थ्री डी टेक्नोलॉजी से अब मनचाही चीजों के निर्माण की कोशिश की जा रही है.

इसमें जादू की छड़ी साबित हो रहा है थ्री डी प्रिंटर, जिससे कुछ साल बाद मानव अंग निर्माण की भी उम्मीद है. थ्री डी तकनीक और थ्री डी प्रिंटर की जानकारी दे रहा है

कहते हैं आंखों देखा ही सच होता है, लेकिन थ्री डी टेक्नोलॉजी के मामले में यह सच नहीं है.

थ्री डी तस्वीरें आपके मस्तिष्क को कुछ इस तरह से धोखा देती हैं कि वो यह मानने पर मजबूर हो जाता है कि जो कुछ वह देख रहा है, बिल्कुल सच है. थ्री डी तस्वीरें किसी खूबसूरत पेंटिंग या फोटोग्राफी तस्वीर की तरह सपाट नहीं होतीं, बल्कि उनमें गहराई होती है, बिल्कुल हमारे आसपास की असली दुनिया की तरह. तभी तो आप थ्री डी फिल्म देखते समय परदे पर दिखायी जा रही चीजों को हाथ बढ़ा कर पकड़ने की कोशिश करते हैं.

टू डी और थ्री डी

हम जिस दुनिया में रहते हैं और रोजमर्रा के कामकाज करते हैं, वह दुनिया विज्ञान की भाषा में टू डी है. यहां डी का अर्थ है डायमेंशन यानी विमा. इसे इस तरह से समझ सकते हैं. अगर आप दीवार पर टंगी किसी तस्वीर को देखते हैं, तो वह सपाट नजर आती है, क्योंकि उसमें दो ही विमाएं या डायमेंशंस होते हैंलंबाई और चौड़ाई.

अगर आप खिड़की खोल कर बाहर नजर डालें, तो आपको बाहर की हर चीज जीवंत नजर आती है, क्योंकि खिड़की के बाहर मौजूद चीजों की तरह आप अपने आसपास की चीजों के बारे में भी अंदाजा लगा सकते हैं, कि वो आपसे कितनी दूरी पर हैं.

ये गहराई ही वह तीसरा डायमेंशन या तीसरी विमा है जो दो डायमेंशन वाली बेजान सपाट तस्वीरों को जीवंत बना देती है. मानो वे हमारे आसपास की दुनिया का ही हिस्सा हों. इसीलिए थ्री डी फिल्म देखते वक्त दर्शक परदे पर दिखायी जा रही तस्वीरों को जीवंत मान कर उन्हें पकड़ने के लिए हाथ बढ़ा देते हैं.

स्टीरियोग्राफी

मान लीजिए कि हम घर के बाहर मैदान में किसी पेड़ को देख रहे हैं. इस स्थिति में हमारी बायीं और दायीं आंखें उस पेड़ की दो तस्वीरें हमारे मस्तिष्क में भेजती हैं और हमारा मस्तिष्क उन दो तस्वीरों को प्रोसेस करके एक ऐसी जीवंत तस्वीर बना लेता है, जिसमें गहराई और दिशा के साथ उस पेड़ की पूरी जानकारी होती है और इसीलिए मैदान में खड़ा पेड़ हमें जीवंत लगता है.

हम पेड़ की दिशा में जाकर उसे छू सकते हैं. यानी पहली थ्री डी मशीन खुद प्रकृति ने हमें दे रखा है और वह है हमारा मस्तिष्क. दायीं और बायीं आंखों से ली गयी तस्वीरों की तरह दो अलगअलग तस्वीरों को ओवरलैप कर एक नयी थ्री डी तस्वीर बनाने की इस तकनीक को स्टीरियोग्राफी कहते हैं.

थ्री डी टेक्नोलॉजी अब और भी आगे कदम बढ़ा रही है. थ्री डी अब महज एक ऑप्टिकल इल्यूजन यानी नजरों का धोखा ही नहीं रहा. बल्कि थ्री डी प्रिंटर की बदौलत यह तकनीक अब ठोस वास्तविकता का स्वरूप धारण कर चुकी है. जानते हैं कि थ्री डी यानी बेजान टू डी तस्वीरों को एक आभासी गहराई का तीसरा डी देकर जीवंत बना देने का अनोखा कारनामा सबसे पहले किसने किया था?

पहला थ्री डी स्टीरियोस्कोप

हाथ से बनी एक जैसी दो सपाट तस्वीरों में गहराई यानी थ्री डी का भ्रम पैदा करनेवाली सबसे पहली मशीन यानी स्टीरियोस्कोप ब्रिटिश वैज्ञानिक सर चाल्र्स व्हीटस्टोन ने 1838 में बनायी थी.

उन्होंने थोड़ी दूर पर रखी एक जैसी दो तस्वीरों के प्रतिबिंब बीच में 45 डिग्री के कोण पर रखे दो दर्पणों में लेने की कुछ ऐसी व्यवस्था की थी कि उसमें देखने पर वे दो तस्वीरें थ्री डी प्रभाव के साथ एक दिखाई पड़ती थीं, लेकिन सर व्हीटस्टोन का यह स्टीरियोस्कोप व्यावहारिक नहीं था.

थ्री डी के जादू से लोगों को परिचित कराने का काम जर्मनी के वैज्ञानिक डॉ कार्ल पलफ्रिच ने किया. उन्होंने 1880 में आसानी के साथ इस्तेमाल किया जानेवाला पहला व्यावहारिक थ्री डी स्टीरियोस्कोप बनाया. डॉ पलफ्रिच का यह स्टीरियोस्कोप काफी कुछ वैसा ही था, जैसाकि आज खिलौनों की दुकानों में मिलनेवाला एक खिलौना व्यूमास्टर होता है. सबसे खास बात यह कि डॉ पलफ्रिच ने थ्री डी अनुभव को और बेहतर बनाने के लिए प्रकाश विज्ञान यानी ऑप्टिक्स के एक खास प्रभाव की खोज की, जिसे पलफ्रिच इफेक्ट कहते हैं. इस पलफ्रिच इफेक्ट का इस्तेमाल आज हॉलीवुड की थ्री डी फिल्मों में किया जा रहा है.

लेकिन अफसोस की बात यह कि दुनिया को थ्री डी तकनीक का तोहफा देने वाले डॉ पलफ्रिच खुद इसे नहीं देख सके. उनके ही शब्दों में, मैं थ्री डी इफेक्ट का आनंद खुद कभी नहीं उठा सका, क्योंकि 16 वर्षो से मुझे एक आंख से दिखाई नहीं दे रहा.

थ्री डी में कैसे जुड़ा चश्मा

1844 में स्कॉटलैंड के सर डेविड ब्रेवस्टर ने एक ऐसा स्टीरियोस्कोप कैमरा बनाया जो थ्री डी तस्वीरें खींच सकता था. इस कैमरे ने थ्री डी तस्वीरों को डिब्बेनुमा मशीन स्टीरियोस्कोप से आजादी दिला दी. थ्री डी तस्वीर तो खींच ली, लेकिन अब इसे खुद कैसे देखें और दूसरों को कैसे दिखाएं? यहीं से थ्री डी तस्वीरों को देखने के लिए खास चश्मे की जरूरत महसूस हुई.

इस कैमरे की मदद से 1851 में लंदन के एक बड़े प्रदर्शन समारोह में लुइस जूल्स डबोस्क ने क्वीन विक्टोरिया की एक तस्वीर खींची थी, जो बाद में दुनियाभर में मशहूर हो गयी. इसी प्रदर्शनी से पता चला कि अगर चश्मे ज्यादा हों, तो एक ही वक्त में एक से ज्यादा लोगों को थ्री डी तस्वीरें दिखाई जा सकती हैं. द्वितीय विश्वयुद्ध में थ्री डी स्टीरियोस्कोपिक कैमरों का काफी इस्तेमाल हुआ. बाद के दशकों में थ्री डी कैमरे की टेक्नोलॉजी ने काफी प्रगति की.

एनाग्लिफ तकनीक

अब थ्री डी को वह पहला व्यावसायिक स्वरूप सामने आया, जिसमें तस्वीरें कहीं ज्यादा वास्तविक और गहराई लिए हुए थीं. इस व्यावसायिक स्वरूप का इस्तेमाल अब भी किया जा रहा है, जिसका नाम है थ्री डी एनाग्लिफ. इस तकनीक में एक जैसी दो तस्वीरों को लाल और नीले टोन में प्रोसेस करके कुछ इस तरह से ओवरलैप किया जाता है कि लाल और नीले रंग के थ्री डी चश्मे से देखने पर स्वाभाविक गहराई के साथ तस्वीर जीवंत हो उठती है.

इस तकनीक की मदद से पहला स्टीरियो एनीमेशन कैमरा बनाया गया, जिसका नाम था काइनेमैटास्कोप. इस कैमरे की मदद से 1915 में पहली थ्री डी एनाग्लिफ फिल्म बनायी गयी.

वर्ष 1922 में पहली व्यावसायिक थ्री डी फिल्म पॉवर ऑफ लव रिलीज हुई. यह फिल्म ब्लैक एंड व्हाइट थी. थ्री डी में पहली रंगीन फिल्म वर्ष 1935 में बनायी गयी थी. लेकिन फिर भी थ्री डी तकनीक को लोकप्रिय नहीं बनाया जा सका. इसकी सबसे बड़ी वजह थी कि थ्री डी फिल्में बनाना आम फिल्मों के मुकाबले काफी महंगा था और इन्हें ज्यादा लोगों को एकसाथ दिखाना भी मुमकिन नहीं था, क्योंकि इसमें प्रत्येक दर्शक के लिए चश्मे की जरूरत होती थी. इसका नतीजा यह रहा कि थ्री डी तकनीक लंबे अरसे तक उपेक्षित रही.

वर्ष 1950 में थ्री डी तकनीक की वापसी हुई. इस वक्त टेलीविजन लोकप्रिय हो रहा था और इसकी मार से जूझ रही फिल्म इंडस्ट्री कुछ नया करने की तलाश में थी. 1950 में ब्वाना डेविल और हाउस ऑफ वैक्स जैसी कई थ्री डी फिल्में बनायी गईं. लेकिन मुश्किल यह थी कि ये थ्री डी फिल्में सारे सिनेमा हॉलों में नहीं दिखाई जा सकती थीं.

एक नयी थ्री डी टेक्नोलॉजी यानी स्टीरियोविजन

वर्ष 1970 में एक नयी थ्री डी टेक्नोलॉजी स्टीरियोविजन का विकास हुआ. इस तकनीक में खास लेंस के साथ कई पोलेराइड फिल्टर्स का इस्तेमाल किया गया था. इसके साथ ही थ्री डी टेक्नोलॉजी में पोलेराइड चश्मों का प्रवेश हुआ और एनाग्लिफ टेक्नोलॉजी और उनके लालनीले चश्मे धीरेधीरे मुख्यधारा से हट गये. स्टीरियोविजन में बनी पहली फिल्म थी स्टीवाडेर्सेस.

एक लाख डॉलर की लागत से बनी इस फिल्म ने उत्तरी अमेरिका में कामयाबी के झंडे गाड़ दिये. इस फिल्म ने दो करोड़ 70 लाख का बिजनेस किया. इसके बाद 80 के दशक में तो थ्री डी फिल्मों की बाढ़ सी गयी. फ्राइडे थर्टीन्थपार्ट-3 और जॉजथ्री डी जैसी फिल्में दुनियाभर में खूब मशहूर हुईं.

पोलेराइड चश्मे और थ्री डी टीवी

1986 में कनाडा ने पूरी तरह से पोलेराइड तकनीक पर आधारित फिल्म बनायी, जिसका नाम था इकोज ऑफ सन. इसी के साथ पुराने चश्मों की जगह नये पोलेराइड चश्मों ने ले ली.

2010 में थ्री डी तकनीक ने सिनेमा के परदे से उतर कर टीवी इंडस्ट्री में जगह बना ली. सोनी, पैनासोनिक, सैमसंग और एलजी आदि के थ्री डी टीवी सेट्स से बाजार भरे हैं, लेकिन ज्यादा कीमत के चलते अभी ये आम लोगों की पहुंच से बाहर हैं. विदेशों में कई ऐसे सेटेलाइट चैनल्स हैं, जो 24 घंटे एजुकेशनल शोज, एनीमेटेड शोज, स्पोर्ट्स, डॉक्यूमेंट्रीज और म्यूजिकल परफॉरमेंस सब कुछ थ्री डी फॉरमेट में दिखा रहे हैं.

भारत में थ्री डी फिल्म

भारत की पहली थ्री डी फिल्म एक मलयालम फिल्म थी, जिसका नाम था माई डियर कुट्टीचथन. यह फिल्म 1984 में रिलीज हुई थी. इसके एक साल बाद 1985 में पहली हिंदी थ्री डी फिल्म शिवा का इंसाफ रिलीज हुई, जिसके प्रोड्यूसर थे राज एन सिप्पी. जैकी श्रॉफ की मुख्य भूमिकावाली इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर 60 करोड़ रुपये की जबरदस्त कमाई की और कामयाबी की एक नयी इबारत लिखी. इसके बाद 1998 में माई डियर कुट्टीचथन का नयी तकनीक और डिजिटल साउंड के साथ हिंदी रीमेक आया, जिसे छोटा चेतन के नाम से रिलीज किया गया.

इसके बाद आयी नन्हा जादूगर, लेकिन उसके बाद लंबे वक्त तक हिंदी में कोई थ्री डी फिल्म रिलीज नहीं हुई. अच्छे बिजनेस के बावजूद हिंदी में थ्री डी फिल्म बनाना बहुत बड़ा रिस्क था, क्योंकि एक तो, थ्री डी के तकनीशियनों को विदेशों से बुलाना पड़ता था और दूसरा, थ्री डी फिल्म एक साथ सभी थियेटर्स में रिलीज नहीं की जा सकती थी.

थ्री डी फिल्म रिलीज करने के लिए थियेटर के परदे और प्रोजेक्टर में भी कुछ सुधार करना पड़ता था. बदलते वक्त के साथ ये कमियां दूर तो नहीं की जा सकी हैं, लेकिन टेक्नोलॉजी ने इसे काफी हद तक आसान बना दिया है. इसीलिए अब हॉलीवुड की देखादेखी बॉलीवुड भी थ्री डी फिल्में बनाने लगा है.

थ्री डी प्रिंटिंग : जादू की छड़ी!

थ्री डी टेक्नोलॉजी अब अपनी सीमाएं तोड़ कर एक नये युग में प्रवेश कर रही है. थ्री डी की इस नयी क्रांति का नाम है थ्री डी प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी या एडेटिव मैन्यूफैरिंग. मान लीजिए आपके शर्ट का बटन टूट गया है, किचन में मिक्सी काम नहीं कर रही है, क्योंकि उसका नॉब टूट गया है, बॉथरूम का नल भी अचानक खराब हो गया और आपकी गाड़ी का बंफर भी किसी ने टक्कर मार कर तोड़ दिया है. अब आप क्या करेंगे? शर्ट के बटन से लेकर कार के बंफर तक सारी चीजें आपको बाजार से खरीद कर लानी होगी. लेकिन नयी थ्री डी प्रिंटिंग टेक्नोल़ॉजी आपकी इन मुश्किलों को बेहद आसान बना देगी.

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थ्री डी टेक्नोलॉजी एक मनमोहक दुनिया 3

थ्री डी प्रिंटर साधारण प्रिंटर की तरह ही होता है. बस अंतर इतना है कि इसका प्रिंटआउट 4 कागज की टू डी शीट की तरह साधारण होकर थ्री डी में एक के ऊपर दूसरी परत को जमाते हुए निर्मित किया जाता है. मिसाल के तौर पर आपको शर्ट का बटन चाहिए. ऐसे में आपको अपने थ्री डी प्रिंटर में बटन का प्रोग्राम सेलेक्ट कर मैटीरियल कार्टिजेज सेलेक्ट करना होगा.

यानी आप अपना बटन प्लास्टिक का चाहते हैं या फिर धातु का या फिर प्लास्टिक और धातु दोनों का मिलाजुला. अपनी पसंद के मुताबिक आप मैन्यूफैरिंग प्रोग्राम सेलेक्ट कीजिए और कार्टिजेज सेलेक्ट करके प्रिंटिंग बटन दबा दीजिए. थ्री डी प्रिंटर में एक नोजल होती है, काफीकुछ सॉफ्टी बनानेवाली मशीन से मिलतीजुलती, लेकिन उसका आउटपुट आइसक्रीम मशीन की तरह मोटा नहीं, बल्कि बहुत पतला होता है.

अब जिस तरह से कोन में डिस्पेंसर मशीन के नोजल से आइसक्रीम भरी जाती है, उसी तरह थ्री डी प्रिंटर के महीन से नोजल से मैटीरियल निकलने लगता है और कंप्यूटर प्रोग्राम यह तय करता है कि क्या चीज बनानी है और चंद मिनटों में आपकी शर्ट का हूबहू दूसरा बटन बन कर तैयार हो जाता है.

थ्री डी प्रिंटर दरअसल एक निजी कारखाने जैसा है, जिसमें परिवार का कोई भी सदस्य अपनी जरूरत की चीज उसके खास प्रोग्राम और मैटीरियल को चुन कर बेहद आसानी से रोजाना के इस्तेमाल से लेकर कोई भी चीज बना सकता है. थ्री डी प्रिंटर की टेक्नोल़ॉजी कोई बहुत पुरानी नहीं है. पहला थ्री डी प्रिंटर थ्री डी सिस्टम्स कॉर्प के इंजीनियर चक हल ने 1984 में बनाया था. तब से अब तक थ्री डी प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी और थ्री डी प्रिंटर मशीन में जबरदस्त बदलाव हो चुके हैं.

इस मशीन की उपयोगिता को देखते हुए इसकी कीमत काफी कम है. हां, इस मशीन से आप रोजमर्रा के इस्तमाल की जो भी चीज बनाना चाहते हैं, उसका ब्लूप्रिंट प्रोग्राम और खास मैटीरियल की कार्टेज आपको अलग से खरीदनी होगी.

थ्री डी प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी की मदद से कृषि क्षेत्र के औजारों से लेकर, भवन निर्माण, इंडस्ट्रियल डिजाइनिंग, ऑटोमोबाइल, एयरोस्पेस, सेना, इंजीनियरिंग, दंत चिकित्सा, मेडिकल इंडस्ट्री, बायोटेक्नोलॉजी (मानव कोशिकाओं के बदलाव), फैशन, फुटवियर, ज्वैलरी, आईवियर, शिक्षा, जियोग्राफिक इन्फॉर्मेशन सिस्टम्स, फूड और कई दूसरे क्षेत्रों की चीजें आसानी से घर बैठे बनायी जा सकती हैं.

थ्री डी प्रिंटर एक जादू की छड़ी जैसा है. बस आप सोचिए और यह टेक्नोलॉजी उसे साकार कर दिखायेगी. अमेरिका में तो थ्री डी प्रिंटर की मदद से पिस्तौलें और राइफलें भी बनायी जा रही हैं. हालांकि, यह इस टेक्नोलॉजी का एक दूसरा और चिंताजनक पहलू है. थ्री डी प्रिंटर का सीमित इस्तेमाल अभी अमेरिका और यूरोप के देशों में हो रहा है. यह टेक्नोलॉजी अभी भारत में उपलब्ध नहीं है.

थ्री डी प्रिंटर से बनेंगे मानव अंग!

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दुनियाभर में प्रत्येक वर्ष अंग प्रत्यारोपण के लिए डोनर का इंतजार कर रहे हजारों लोगों की मौत हो जाती है. इस तसवीर को बदलने में बायोटेक्नोलॉजी के क्षेत्र में थ्री डी प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी एक वरदान साबित हो रही है. थ्री डी प्रिंटर के इस्तेमाल से मानव अंग भी बनाये जा सकते हैं. इस अनोखे प्रयोग को अंजाम दे रही है एक कंपनी, जिसका नाम है मेलबर्न टीटीपी.

थ्री डी प्रिंटर से मानव अंग बनाने के लिए स्टेम सेल की मदद से प्रयोगशाला में बनायी गयी मानव कोशिकाओं को कच्चे माल की तरह इस्तेमाल किया जायेगा. ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने एक खास नोजल विकसित करके इस दिशा में मजबूत कदम उठाये हैं. इस नोजल की मदद से प्रयोगशाला में अभी मानव कान प्रिंट करके तैयार कर लिया गया है. वैज्ञानिक अब मानव लिवर और हड्डियों को थ्री डी प्रिंटर से बनाने की तैयारी में जुटे हैं.

मेलबर्न टीटीपी कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर का कहना है कि वे जल्द ही थ्री डी प्रिंटर से मानव अंग बनाने में कामयाबी हासिल कर लेंगे और अगले 10 वर्षो के भीतर मानव अंग प्रत्यारोपण के लिए डोनर्स की जरूरत ही खत्म हो सकती है. थ्री डी प्रिंटर से अभी सर्जिकल इम्प्लांट्स जैसे हिप और नी रिप्लेसमेंट्स बनाये जा रहे हैं. स्टेम सेल, बायोटेक्नोलॉजी और थ्री डी प्रिंटर का ये मेल पूरी मानवता के लिए एक नया वरदान है और अगले कुछ वर्ष बाद अंग प्रत्यारोपण के लिए मरीजों को लंबा इंतजार नहीं करना पड़ेगा.

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