दुनियाभर के जाने-माने लेखकों, पत्रकारों, गांधीवादियों और शोधार्थियों ने महात्मा गांधी के जीवन पर सैकड़ों पुस्तकें लिखी हैं और यह सिलसिला आज भी अनवरत जारी है. इन सबके बीच गांधीजी के कुछ वंशजों ने भी उनके जीवन पर किताबें लिखीं, जिनमें कई किताबें दुनियाभर में पढ़ी और सराही गयी है. गांधी जयंती के मौके पर गांधीजी के जीवन पर लिखी गयी कुछ खास पुस्तकों की जानकारी दे रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार विवेक शुक्ला.
महात्मा गांधी पर लिखी गयी जीवनियों की गिनती करना शायद असंभव है. अनेक लेखकों, पत्रकारों, गांधीवादियों और उनके सहयोगियों ने गांधीजीपर सैकड़ों की संख्या में जीवनियां लिखीं हैं और यह क्रम अब भी अनवरत जारी है. अब भी उनके जीवन के किसी अनछुए पहलू पर लिखी गयी नयी किताब लगातार प्रकाशित हो रही हैं.
वैसे, माना जाता है कि गांधीजी पर पहली जीवनी लिखने का श्रेय इसाई मिशनरी जोसेफ डोक को जाता है. महत्वपूर्ण यह है कि जब डोक ने इसकी रचना की थी, तब तक बापू को ‘महात्मा गांधी’ के रूप में नहीं जाना जाता था. उस समय तक वे मोहनदास करमचंद गांधी के रूप में ही जाने जाते थे. यह उस समय की बात है, जब गांधीजी अपने वकालत के पेशे से जुड़े थे और उसी सिलसिले में वे दक्षिण अफ्रीका में रह रहे थे. यह उस दौर की बात है, जब उन्होंने भारत के स्वाधीनता संग्राम में अपनी दस्तक नहीं दी थी. दरअसल, वे जब दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों के हितों के लिए संघर्षरत थे, तब ही उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर डोक ने उन पर जीवनी लिखने का फैसला कर लिया था.
पहली जीवनी 1919 में
गांधीजी और जोसेफ डोक के बीच मैत्री और फिर घनिष्ठ संबंधों का श्रीगणोश दिसंबर, 1907 में हुआ. उस समय ये दोनों ही दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग शहर में पड़ोसी हुआ करते थे. कहा जाता है कि पहली ही भेंट के बाद दोनों का आपसे में मिलना-जुलना शुरू हो गया था. पहली मुलाकात के ही दोनों में दौरान धर्म, धर्मतंत्र और दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों की दयनीय हालत पर गंभीर चरचा हुई थी. हालांकि, गांधीजी और डोक, दोनों ही की काफी व्यस्त दिनचर्या थी, पर दोनों आपस में मिलने का वक्त प्राय: हर रोज ही निकाल लिया करते थे. उन बैठकों के दौरान तमाम मसलों पर सार्गभित संवाद होता था.
बाद में, डोक अपने मित्र (गांधीजी) के व्यक्तित्व और तमाम मुद्दों पर उनकी समझदारी से इतने अभिभूत हुए कि उन्होंने गांधीजी पर जीवनी लिखने का निर्णय लिया. जीवनी का शीर्षक था, ‘एमके गांधी—एन इंडियन पैट्रियाट इन साऊथ अफ्रीका.’ इसका पहला संस्करण वर्ष 1919 में मद्रास के एक प्रकाशक डीए नटेशन ने प्रकाशित किया. डोक ने जीवनी के लिए सामग्री गांधीजी के साथ होनेवाले नियमित सत्संग और उनसे जुड़े दूसरे लोगों के माध्यम से जुटायी थी.
जीवनी में बापू की पारिवारिक पृष्ठभूमि, बचपन और दक्षिण अफ्रीका में अंगरेजी राज और अश्वेतों की हालत पर उनकी राय को खासतौर पर जगह दी गयी. जीवनी में एक अध्याय बापू के लंदन प्रवास पर भी समर्पित था. उन्होंने लिखा कि गांधीजी ईसा मसीह की शिक्षाओं से बहुत प्रभावित हैं. इसका उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा है.
दक्षिण अफ्रीका में प्रांतीय ट्रांसवेल सरकार द्वारा लाये गये एशियाई मूल के लोगों को हर वक्त अपना पहचान पत्र अपने पास रखने की अनिवार्यता वाले कानून का गांधीजी ने प्रखर विरोध किया था. गांधीजी के नेतृत्व में चले उस आंदोलन के बारे में भी उन्होंने लिखा. हालांकि, उन दोंनों के बीच धर्म के मसले पर तीखी मतभिन्नता थी, लेकिन इससे दोनों के आपसी रिश्ते कभी प्रभावित नहीं हुए.
गांधी के लिए जनसभा
गांधीजी जब अस्वस्थ थे, तो बहुत बड़ी तादाद में उनके शुभचिंतक उनका कुशल-क्षेम जानने के लिए डोक के निवास पर पहुंचने लगे. फरवरी, 1908 में जोहान्सबर्ग में एक जनसभा का आयोजन वहां पर बसे हुए भारतीय, यूरोपीय और चीनी मूल के लोगों ने किया. जनसभा में डोक दंपति का आभार प्रकट किया गया, क्योंकि अस्वस्थ्यता की स्थिति में उन्होंने बापू की सेवा की थी. वहां पर बसे चीनी मूल के लोगों ने भी इसी मकसद से 23 मार्च, 1908 को अलग से एक सभा आयोजित की थी.
डोक का गांधी पर प्रभाव
डोक का भी व्यक्तित्व बहुआयामी था. मिशनरी होने के बावजूद वे एक मंजे हुए चित्रकार, काटरूनिस्ट और छायाकार थे. जब बापू को स्थानीय प्रशासन ने गिरफ्तार कर लिया था, तब उन्होंने उस समय बापू द्वारा प्रकाशित किये जानेवाले साप्ताहिक समाचार-पत्र ‘इंडियन ओपिनयन’ का संपादन भी किया था. प्रशासन की ओर से सख्ती के उन हालातों में यह कार्य आसान नहीं माना जा सकता. अपने मिशनरी कार्य के सिलसिले में डोक जब उत्तर-पश्चिम रोडेशिया (वर्तमान जिंबाव्वे) के दौरे पर थे, तब अचानक 15 अगस्त, 1913 को उनका निधन हो गया था.
डोक की मौत हो जाने की खबर सुन कर बापू सन्न रह गये थे. उन्होंने डोक पर लिखे एक शोक लेख में लिखा, ‘मैं डोक को कभी भूल नहीं पाऊंगा. वे मिशनरी होने के बावजूद सभी धर्मो का आदर करते थे. वे बहुत ही नेक और मानवीय शख्स थे.’ पर अफसोस कि डोक द्वारा लिखित बापू की पहली जीवनी अब नहीं मिलती. उसे राजधानी में गांधी स्मृति से लेकर अहमदाबाद के साबरमती आश्रम और मुंबई के मणि भवन तक तलाशा गया पर बात नहीं बनी.
बापू की सर्वश्रेष्ठ जीवनी
बापू पर लिखी गयी जीवनियों में लुइस फीशर लिखित जीवनी ‘द लाइफ ऑफ महात्मा गांधी’ को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है. इसके आधार पर ‘गांधी’ फिल्म भी बनी. हालांकि, कुछ लोग राजमोहन गांधी लिखित ‘मोहनदास- ए ट्र स्टोरी ऑफ ए मेन, हिज पीपल एंड एन एंपायर’ को गांधी को समझने के लिहाज से उम्दा जीवनी मानते हैं. राजमोहन गांधी बापू के सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी के पुत्र हैं.
राज्यसभा सांसद रहे राजमोहन गांधी को उनकी इस पुस्तक के लिए वर्ष 2007 में इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस ने भी सम्मानित किया. यह जीवनी कई भाषाओं और देशों में छप चुकी है. महत्वपूर्ण है कि राजमोहन गांधी ने अपने दादा के साथ-साथ अपने नाना और देश के पहले गवर्नर जनरल सी राजागोपालाचारी की भी जीवनी ‘राजाजी- ए लाइफ’ लिखी है. राजमोहन गांधी धाकड़ विद्वान हैं. वे इमरजेंसी के खिलाफ भी लड़े थे. उन्होंने वर्ष 1989 में लोकसभा का चुनाव लड़ा था, लेकिन हार गये.
नाटक भी लिखे गये
राजमोहन के अनुज रामचंद्र गांधी ने भी बापू पर कई नाटक लिखे और एक फिल्म भी बनायी. प्रख्यात नाटककार रामचंद्र गांधी ने गांधीजी की पुस्तक ‘सच से साक्षात्कार’ के छठे और दसवें अध्यायों के आधार पर एक नृत्य नाटिका ‘सनमति’ लिखी. रामचंद्र गांधी बड़े चिंतक थे. कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाते भी रहे.
अपने दोनों बड़े भाइयों राजमोहन और रामचंद्र गांधी की तरह गोपाल कृष्ण गांधी भी तगड़े लिक्खाड़ हैं. उन्होंने गांधीजी पर तीन पुस्तकें – गांधी एंड साउथ अफ्रीका, गांधी इज गोन- हू विल गाइड अस और गांधी एंड श्रीलंका लिखी. सादा जीवन और उच्च विचार को अपनानेवाले गोपाल कृष्ण गांधी पूर्व आइएएस अधिकारी हैं और पश्चिम बंगाल के गर्वनर भी रह चुके हैं. कई भाषाओं में उनके स्तरीय लेखन को बेहद लोकप्रियता हासिल हुई है. उन्होंने विक्रम सेठ लिखित प्रख्यात उपन्यास ‘सूटेबल ब्वॉय’ का हिंदी में ‘अच्छा लड़का’ नाम से अनुवाद किया.
बहरहाल, एक बात साफ है कि महात्मा गांधी के व्यक्तित्व के किसी पक्ष या उनके विचारों पर कलम चलाने की लेखकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों आदि में प्यास बुझी नहीं है. दुनियाभर के सैकड़ों लेखकों का उन पर लिखने का सिलसिला बदस्तूर जारी है. ये सभी वर्तमान में गांधी की प्रासंगिकता से लेकर उनके व्यक्तित्व के अनछुए पहलू पर लगातार नये परिप्रेक्ष्य में लिख रहे हैं. यानी एक बात साफ है कि बापू पर उनके अपने संबंधियों के अलावा तमाम दूसरे लेखक, पत्रकार और बुद्धिजीवी समय की प्रासंगिकता के मुताबिक कुछ नया और हट कर लिखते रहेंगे.
बापू के वंशज भी लिखते रहे हैं
गांधी पर लिखने में उनके परिवार के सदस्यों ने भी इंसाफ किया है. वे भी निरंतर लेखन कर रहे हैं बापू पर. इस लिहाज से शुरुआत की नीलम गांधी पारेख ने. 80 वर्षीय नीलमजी ने ‘गांधीज लॉस्ट ज्वेल’ शीर्षक से एक अहम पुस्तक लिखी. गांधीजी के सबसे बड़े और अक्सर विवादों में रहे पुत्र हरिलाल गांधी की पुत्री ने इस पुस्तक में अपने दादा और गांधी के रिश्तों को नये संदर्भों में देखने की कोशिश की है. एक प्रकार से उनकी चेष्टा रही कि हरिलाल की श्याम छवि में उजाला बिखेरा जाये. वे किताब में दावा करती हैं कि हरिलाल अपने चार भाइयों में सबसे ज्यादा कुशाग्र बुद्धि के धनी थे. पर पिता से अनेक मसलों पर विवाद के चलते वे बुरी संगत में पड़ गये. वे तमाम तरह के व्यसन के शिकार भी हुए. नीलमजी ने इस किताब में हरिलाल के अंतिन दिनों का भी विस्तार से उल्लेख किया है, जब वे फटे-चिथड़े कपड़े पहन कर अपने किसी मित्र या संबंधी के घर पहुंच जाते थे.
दक्षिण अफ्रीका में बसे बापू के संबंधी भी उन पर कलम चलाने में पीछे नहीं हैं. गांधीजी के दूसरे पुत्र मणिलाल की पुत्री इला गांधी ने अपने दादा पर कोई पुस्तक तो नहीं लिखी, पर वे उन पर लगातार निबंध या अन्य सामग्री लिखती रहती हैं. इलाजी दक्षिण अफ्रीका में सांसद भी रहीं. वह नेल्सन मंडेला की पार्टी अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस की शीर्ष नेताओं में हैं. डॉक्टर उमा धुपलिया मिस्त्री मणिलाल गांधी की पौत्री हैं. उन्होंने ‘गांधी प्रिसनर’ लिखी. इसमें उन्होंने गांधीजी के अपने चारों पुत्रों के साथ संबंधों को आधार बनाया. इन सबके बीच हुए पत्र व्यवहार के आधार पर उन्होंने बापू के अपने पुत्रों से संबंधों को नए परिप्रेक्ष्य में लिखा. इस पुस्तक को दक्षिण अफ्रीका में बहुत पसंद किया गया. नेल्सन मंडेला ने भी इसकी प्रशंसा की. डॉक्टर उमा केपटाउन यूनिवर्सिटी में इतिहास पढ़ाती हैं. उमाजी ने बताया कि साउथ अफ्रीका में गांधीजी से जुड़ी हर किताब हाथों-हाथ बिक जाती है. वहां पर उनकी जीवनी को अश्वेत अपने मित्रों को और प्रेमी-प्रेमिका एकदूसरे को भेंट करते हैं. उन्हें यकीन नहीं आता कि किसी भारतीय शख्स उनके हक के लिए इतने सशक्त तरीके से संघर्ष किया होगा.
लेट्स किल गांधी : हत्या के अनसुलझे पहलुओं को जानने की कोशिश
महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी ने कुछ साक्ष्यों और जानकारी के आधार पर एक किताब लिखी- लेट्स किल गांधी. इसमें उन्होंने गांधी की हत्या के पीछे के अनसुलङो पहलुओं और वजहों को जानने की कोशिश की है.
तुषार गांधी का कहना है कि उनकी यह किताब बापू पर देश के विभाजन और मुसलमानों का पक्षधर होने जैसे आरोप लगानेवालों के लिए करारा जवाब है. वे कहते हैं, ‘मेरी किताब में उन लोगों के आरोपों का जवाब है, जो बापू की हत्या को यह कह कर जायज ठहराने की कोशिश करते हैं कि बापू मुसलमानों के पक्षधर थे या फिर भारत के विभाजन के लिए जिम्मेदार थे. तुषार गांधी ने एक बार कहा था, ‘राजमोहन काका ने बापू के जीवन के बारे में लिखा है, लेकिन मेरी किताब बापू की हत्या और इसकी वजहों के बारे में है. तुषार कहते हैं कि मेरी किताब लोगों को चेताती है कि अब भी समय है, उठो, जागो और संभल जाओ. उनका मानना है कि इस किताब को अगर कोई सही तरीके से समझ पायेगा, तो उसे समाज में मौजूद बुराइयों से बचने की राह भी आसानी से मिल जायेगी.
विवादास्पद लेखन भी
इस बात को भी समझना होगा कि कुछ लेखकों ने महात्मा गांधी के जीवन को लेकर कुछ विवादास्पद पुस्तकें भी लिखी हैं. हालांकि इस तरह की पुस्तकें कम ही हैं और उन्हें देश-दुनिया में स्वीकृति नहीं मिल पायी है.
कुछ साल पहले ब्रिटिश लेखक जोजेफ लेलीवेल्ड की किताब ने खासा बखेड़ा खड़ा कर दिया था. लेलीवेल्ड की किताब ‘ग्रेट सोल: महात्मा गांधी एंड हिज स्ट्रगल विद इंडिया’ में उन्हें समलैंगिक के रूप में पेश किया गया था. यह किताब भारत में उपलब्ध नहीं है. ब्रिटेन के ‘डेली मेल’ अखबार ने इसकी समीक्षा को विस्तार से छापा है. उसमें किताब के हवाले से कहा गया है कि गांधीजी समलैंगिक भी थे और उनका संबंध पुरुसिया के वास्तु शिल्पकार और बॉडी बिल्डर हरमन कालेनबाख के साथ था. पर लेलीवेल्ड ने कहा,’यह कोई सनसनीखेज किताब नहीं है. मैंने नहीं कहा है कि गांधीजी का कोई पुरुष प्रेमी था.
मैंने कहा है कि वह एक वास्तु शिल्पकार के साथ चार साल तक रहे, जो बॉडी बिल्डर भी था. ये पत्र महात्मा गांधी के लिखे हुए हैं और गांधी के समग्र कार्यों (खंड 96) में भारत सरकार द्वारा प्रकाशित भी किये जा चुके हैं. वे भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार में सुरक्षित हैं. यह खंड सबसे पहले 1994 में प्रकाशित किया गया. दूसरे शब्दों में मैंने जो सबूत इस्तेमाल किये हैं, उसमें खबर जैसी कोई बात नहीं है.’