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पाकिस्तान में फिर लोकतंत्र खतरे में

जावेद नकवी वरिष्ठ पत्रकार पिछले साल 2013 में पाकिस्तान के चुनावों में धांधली की होने की बात तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के प्रमुख इमरान खान अब कर रहे हैं और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का इस्तीफा मांग रहे हैं. मेरा ख्याल है कि इमरान खान को यह बहुत पहले ही करना चाहिए था. चुनावों में धांधली […]

जावेद नकवी

वरिष्ठ पत्रकार

पिछले साल 2013 में पाकिस्तान के चुनावों में धांधली की होने की बात तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के प्रमुख इमरान खान अब कर रहे हैं और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का इस्तीफा मांग रहे हैं. मेरा ख्याल है कि इमरान खान को यह बहुत पहले ही करना चाहिए था.

चुनावों में धांधली तो जांच का मसला है और इसे कानूनी तौर-तरीके से ही हल किया जाना चाहिए. गौरतलब है कि पाकिस्तानी संसद में इमरान की इस मांग को असंवैधानिक करार दिया गया है. हालांकि, इमरान के नवाज शरीफ का इस्तीफा मांगने को संवैधानिक या असंवैधानिक तौर पर नहीं देखा जा सकता, जैसा कि पाकिस्तान सरकार में बैठे लोग कह रहे हैं, क्योंकि एक लोकतांत्रिक देश में हर किसी को यह लोकतांत्रिक अधिकार है कि अगर वह अपने नेता में कोई कमी पाता है, तो उससे इस्तीफे की मांग कर सकता है.

लेकिन लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत बातचीत भी एक ऐसा पहलू है, जहां से बहुत से मसले हल किये जा सकते हैं. फिलहाल पाकिस्तान में ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है. पाकिस्तान का लोकतंत्र कुछ ही लम्हे पहले अंडे में से निकला है. अभी तो वह एक चूजे की तरह है, जिसके परिपक्व होने में अभी लंबा वक्त लग सकता है.

ऐसे में वहां के आंतरिक हालात का अंदाजा करना हो तो मौजूदा पाकिस्तान सरकार और विपक्ष के बीच के टकराव को बारीकी से देखिए, जिसमें एक धार्मिक नेता ताहिरुल कादरी भी शामिल हैं. किसी भी लोकतांत्रिक देश में धर्म और वहां की सेना की सशक्त दखल के बीच लोकतंत्र बहुत मजबूती नहीं पा सकता है.

यही वजह है कि वहां आये दिन हिंसक गतिविधियां होती ही रहती हैं. वहीं एक दूसरे नजरिये से देखें, तो पाकिस्तानी संसद में इमरान खान की सीटें बहुत कम हैं, इसलिए वे धांधली का बहाना लेकर प्रधानमंत्री का इस्तीफा मांग कर खुद की राजनीतिक ताकत को साबित करने की कोशिश कर रहे हैं. अब उनका इरादा एक नये पाकिस्तान का है.

अभी तो यह देखना होगा कि आखिर उस एक नये पाकिस्तान का स्वरूप क्या होगा और वह किस हद तक लोकतांत्रिक मूल्यों का वाहक बन पायेगा. पाकिस्तान के मौजूदा राजनीतिक हालात के मद्देनजर जहां तक भारत पर इसके असर का सवाल है, तो उसे कुछ इस तरह से देखना चाहिए- कुछ ही दिन पहले भारत ने भारत-पाक विदेश सचिव स्तर की वार्ता को रद्द कर दिया, यह कह कर कि इस बातचीत में सिर्फ भारत और पाकिस्तान शामिल हो सकते हैं, कश्मीरी अलगाववादी संगठन नहीं.

ऐसा कर भारत ने नवाज सरकार को कमजोर तो किया, लेकिन वहीं अलगाववादी संगठनों पर बातचीत की पाबंदी लगा कर उन्हें एक तरह से हीरो बना दिया. ऐसे में इतना ही कहा जा सकता है कि अगर इस मसले का रास्ता बातचीत के जरिये नहीं निकाला गया, तो मुश्किल ही है कि यह राजनीतिक संकट हल हो पाये.

(लेखक पाकिस्तान के अंगरेजी दैनिक ‘डान’ से जुड़े हैं)

पाकिस्तान में इमरान खान और ताहिरुल कादरी के नेतृत्व में जारी आंदोलन से लोकतांत्रिक रूप से चुनी गयी नवाज शरीफ सरकार के लिए खतरा पैदा हो गया है. चुनाव में धांधली करने और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे शरीफ के इस्तीफे की मांग को लेकर बड़ी संख्या में लोग इसलामाबाद की सड़कों पर उतरे हुए हैं.

आज का नॉलेज पाकिस्तान के मौजूदा राजनीतिक संकट के विविध पक्षों पर जानकारों की राय के साथ इमरान खान और कादरी के व्यक्तित्व, राजनीति और उनके संगठनों पर केंद्रित है..

इमरान खान की मांगों की संवैधानिक वैधता

पिछले कई दिनों से पाकिस्तान में एक प्रश्न राजनीतिक विमर्श के केंद्र में है- अब क्या होगा? क्या प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और संबंधित प्रतिनिधि संस्थाएं यानी एसेंबलियां इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक -ए-इंसाफ के दबाव में इस्तीफा दे देंगे? या इमरान खान का धरना और ‘आजादी जश्न’ बेकार साबित होंगे? या तहरीके-इंसाफ का नेतृत्व और उसके समर्थक गाने व नाचने से थक कर चुपचाप समर्पण कर देंगे? या फिर तीसरी ताकत-पाकिस्तानी सेना- किसी एक के पक्ष में हस्तक्षेप करेगी?

लेकिन इस पूरे प्रकरण में एक पहलू पर सबसे कम ध्यान दिया गया है- क्या पाकिस्तान तहरीक -ए-इंसाफ की मांगें और उनके परिणाम संवैधानिक मानदंडों पर खरे उतरते हैं? इमरान खान के अनुसार, उनकी पार्टी की मुख्य मांगें इस प्रकार हैं: (1) प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और चुनाव आयोग का त्यागपत्र, (2) चुनाव-प्रक्रिया में संरचनात्मक सुधार और (3) चुनाव-सुधार के बाद आम चुनाव कराये जायें.

संवैधानिक आधार पर देखें, तो प्रधानमंत्री के त्यागपत्र की मांग करना और ऐसी मांग के बाद प्रधानमंत्री का पद छोड़ देना तथा इसके बाद नये चुनाव की प्रक्रिया का प्रारंभ होना अपने-आप में किसी संवैधानिक व्यवस्था या अनुच्छेद का उल्लंघन नहीं है. बुनियादी आधार पर, पाकिस्तानी संविधान के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19) तथा समूहबद्ध व संगठनबद्ध होने की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 16 व 17) के अधिकार पाकिस्तानी नागरिकों को अपनी बात कहने और मांगों को प्रस्तुत करने की स्वतंत्रता देते हैं.

लेकिन विडंबना यह है कि जिस तरह से प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग की जा रही है, उससे पाकिस्तानी लोकतंत्र के तमाम मूल्य विरूपित और संकटग्रस्त हो रहे हैं. मौजूदा प्रदर्शन ऐसी परंपरा स्थापित कर सकता है, जहां कोई भी राजनीतिक समूह, यहां तक कि कोई अतिवादी संगठन इस्लामाबाद के कंस्टीट्यूशन एवेन्यू में भीड़ जमा कर सरकार से हट जाने की मांग कर सकता है.

अब यह तय कैसे होगा कि किसने कितनी भीड़ जुटायी! आखिरकार, चुनावी मतदान के अतिरिक्त लोकतंत्र में राजनीतिक समर्थन को आंकने का और क्या तरीका हो सकता है! क्या हम यह आसानी से मान सकते हैं कि ऐसे प्रदर्शन शांतिपूर्ण ही होंगे और इनमें हथियारों का प्रयोग नहीं होगा?

क्या यह सच नहीं है कि जमात-उद-दावा या पाकिस्तानी तालिबान तहरीक-ए-इंसाफ से अधिक भीड़ जुटाने की क्षमता रखते हैं? अगर आज हम इमरान खान के तौर-तरीके का समर्थन करते हैं, तो कल क्या ऊपर उल्लिखित संगठनों के तरीकों की आलोचना कर सकेंगे?

लोकतांत्रिक भावना के खिलाफ

तहरीक -ए-इंसाफ कीदो अन्य मांगें- अंतरिम सरकार के अधीन चुनाव सुधार और फिर नये आम चुनाव- असंवैधानिक हैं और लोकतांत्रिक भावना के विरुद्ध हैं. उच्च अदालतों की व्याख्याओं के अनुसार, कोई अंतरिम सरकार, जिसे जनादेश प्राप्त नहीं है, संविधान व लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों के साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकती है. किसी अंतरिम व्यवस्था को संविधान संशोधन कर चुनाव आयोग की भूमिका या मौजूदा चुनाव कानूनों में बदलाव का अधिकार नहीं है. ऐसी कोई भी कोशिश ‘जनता की भावना’ की अवहेलना होगी.

ऐसे सुझाव सामने आ रहे हैं, जिनमें पाकिस्तान तहरीक -ए-इंसाफ की मांगों को राष्ट्रपति के अध्यादेश के जरिये एक ‘संवैधानिक आवरण’ देने की बात कही जा रही है. चूंकि सरकार के इस्तीफे से राष्ट्रपति की स्थिति पर कोई असर नहीं पड़ेगा और वे चुनाव सुधार-संबंधी अध्यादेश जारी कर सकते हैं, जिसे चुनाव के बाद नयी सरकार और एसेंबली मंजूरी प्रदान कर सकती है. यह तर्क भले ही व्यावहारिक और समझदारीपूर्ण लगे, पर यह निहायत ही लोकतंत्र-विरोधी है.

इस सलाह के अनुसार, जो सरकार चुनाव सुधार का लाभ उठाते हुए सत्तासीन होगी, वही इस अध्यादेश को संवैधानिक जामा पहनायेगी. यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के विपरीत है, जिसकी एक पुरानी मान्यता यह है कि कोई व्यक्ति अपने मामले में स्वयं ही न्यायाधीश की भूमिका में नहीं हो सकता है. आवश्यक रूप से, संविधान के हिसाब से, तहरीक -ए-इंसाफ की मांगों की पूर्ति के लिए एक चुनी हुई संसद का होना अनिवार्य है (मौजूदा स्थिति में इसका मतलब उस संसद से है, जिसमें पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज का बहुमत है), जो चुनाव सुधार कर आम चुनाव का आयोजन करेगी. इमरान खान ने लगातार यह कहा है कि नवाज शरीफ सरकार के चुनाव सुधार उन्हें बिल्कुल मान्य नहीं हैं.

संवैधानिक गतिरोध

इस स्थिति का सीधा परिणाम संवैधानिक गतिरोध है. उम्मीद है कि इस गतिरोध को समाप्त करने की प्रक्रिया में जो लेन-देन होगा, उसमें हम संविधान के प्रति अपनी निष्ठा का समर्पण नहीं करेंगे.

इमरान खान बड़ी संख्या में लोगों को लामबंद करने में सफल हुए हैं. यह पाकिस्तान में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए उत्साहजनक है. इन लोगों की ऊर्जा और लगन का उपयोग देश में लोकतंत्र और संविधान को मजबूत करने के लिए किया जाना चाहिए. इसकी जिम्मेवारी इंकलाब और आजादी मार्च के नेताओं पर ही है. कोई भी खाकी कदमताल की कर्कश आवाज नहीं सुनना चाहता है. क्योंकि, भले हम किसी खेमे से हों, कल आने वाली पीढ़ियों को हमें जवाब देना होगा.

(‘द नेशन’ पाकिस्तान से साभार)

Prabhat Khabar Digital Desk
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