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सांस्कृतिक आध्यात्मिकता के चित्रकार सैयद हैदर रजा
मनीष पुष्कले, चित्रकार शनिवार, 22 फरवरी को महान चित्रकार सैयद हैदर रजा (1922-2016) के 98वां जन्मदिवस के अवसर मध्य प्रदेश सरकार व मंडला के प्रशासनिक सहयोग से वहां ‘रजा दीर्धा’ को लोकार्पित किया गया है. एक छोटे से कस्बे में अपने चित्रकार के प्रति यह सम्मान का अप्रतिम उदहारण है. विशेषकर ऐसे आधुनिक समय में […]
मनीष पुष्कले, चित्रकार
शनिवार, 22 फरवरी को महान चित्रकार सैयद हैदर रजा (1922-2016) के 98वां जन्मदिवस के अवसर मध्य प्रदेश सरकार व मंडला के प्रशासनिक सहयोग से वहां ‘रजा दीर्धा’ को लोकार्पित किया गया है.
एक छोटे से कस्बे में अपने चित्रकार के प्रति यह सम्मान का अप्रतिम उदहारण है. विशेषकर ऐसे आधुनिक समय में जब अ-स्थायित्व का भाव पर्याप्त रूप से स्थायी हो गया है, यह प्रयत्न हमारी लोक चेतना में अपने आदर्शों को पुनः स्थापित करने का प्रयास है. ऐसा लगता है कि हमारे समाज के आधुनिक विमर्श ने बिना किसी असहजता के ‘क्षण-भंगुर और ‘अस्थायी’ को एक ही मान लिया है. हमारा आधुनिक लोक, वह चाहे ग्रामीण या शहरी हो, समय के अस्थायी उन्माद में अपनी नित धराशायी होती चेतना के प्रति उदासीन है. आधुनिक उन्माद हमारे पारंपरिक उत्साह को लगातार विस्थापित कर रहा है.
लेकिन विडंबनाओं के इस ज्वार से हटकर कुछ सजग स्थान, संस्थाएं और लोग भी हैं, जो बेहद सूक्ष्म स्तर पर विस्थापन की इस प्रक्रिया को ठिठकाने का प्रयास करते हैं, उसे प्रश्नांकित करते हुए विमर्श रचते हैं. ये इस अस्थायी उन्माद के समक्ष उसके प्रतिपक्ष के रूप में स्थायी उत्साह की जमीन तैयार करते हैं. इसी क्रम में एक सजग स्थान है मंडला.
वह अभी भी आधुनिकता और विकास के कथित उन्माद की मुख्यधारा से कटा या बचा हुआ स्थान है. वहां के बाजार, वन, खेत आदि आज भी साठ के दशक की याद दिलाते हैं. सघन वन, घाटों और नदी के घुमावदार मोड़ों से घिरा मंडला अपनी प्राकृतिक स्थिति के कारण मुख्यधारा से तो कटा रहा, पर नर्मदा के तट पर होने के कारण उसका आध्यात्मिक महत्व हमेशा रहा है. मंडला हिंदू आस्था का केंद्र रहा है.
आज भी सुबह-शाम रपटा घाट पर धार्मिक अनुष्ठान करते तीर्थयात्रियों को देखा जा सकता है. शाम में घाट पर तैरते आरती के दिये लोक के अंधेरे में टिमटिमाते आस्था के प्रतीकों से दिखते हैं. वैसे तो नगर में हिंदू बहुसंख्यक हैं, लेकिन मुस्लिम तबके की भी अच्छी आबादी है. मंडला की हवा सांप्रदायिकता की दुर्गंध से बची हुई है. संभवतः दोनों समुदायों के बीच अगर किसी प्राकृतिक स्रोत ने आत्मीय सामंजस्य और संवाद बना और बचा कर रखा हुआ है, तो वह नर्मदा ही है. वहां मैंने मुस्लिम समुदाय के लोगों को नर्मदा को ‘नर्मदा जी’ ही कहते हुए सुना है.
प्रख्यात चित्रकार रजा का बचपन इसी मंडला में गुजरा था. उनके बचपन के मंडला की कल्पना करना कठिन नहीं है. यह सुखद है कि मंडला का लोक अब रजा के प्रति सजग हो रहा है. वे अब बड़ी उत्सुकता और आश्चर्य से रजा को देखते हैं और उनसे प्रेरित होते हैं. उन्हें हैरत है कि कैसे तीस के दशक में उनके इतने छोटे, लगभग नगण्य स्थान से निकलकर एक व्यक्ति ने देश ही नहीं, पूरी दुनिया में अपना विशिष्ट स्थान बनाया.
रजा की इस जीवन यात्रा को अगर गौर से देखा जाये, तो वह अपने-आप में बेहद रोचक, लेकिन संघर्षों से भरी यात्रा है. जिस प्रकार से वे अपने औचित्य की खोज में बबरिया और मंडला जैसी जगहों की अंधेरी गलियों से निकल कर पेरिस जैसे बड़े शहर की चकाचौंध से भरी सड़कों तक पहुंचे, यह मंडला के किशोरों व युवाओं के लिए बड़ा स्वप्न देखने और उसे पाने के लिए अथक परिश्रम करने की प्रेरणा के लिए काफी है. वर्ष 2016 में रजा का देहांत हुआ था. उनकी इच्छानुसार नर्मदा के किनारे, कान्हा के जंगलों और पहाड़ों से घिरे इस मंडला में ही उनके पिता की कब्र के बगल में उन्हें सुपुर्दे-खाक किया गया था. उनके पिता यहां वन विभाग में रेंजर हुआ करते थे.
रजा ने अपनी सच्ची व समूची कमाई से एक संस्था की स्थापना की थी, जिसका मुख्य उद्देश्य भारतीय कला और विमर्श का संवर्धन और योग्य कलाकारों का प्रोत्साहन था.
यह रजा का स्वाभाविक संकोच और उनकी सरल विनम्रता ही थी कि वे उसे कुछ और नाम देना चाहते थे. लेकिन उनके अभिन्न मित्र और भारतीय कला व साहित्य की अचूक समझ रखनेवाले अशोक वाजपेयी के सतत आग्रह के समक्ष रजा साहब को एक दिन झुकना ही पड़ा. इस प्रकार संस्था का नाम ‘रजा फाउंडेशन’ रखा गया.
अशोक वाजपेयी के अथक प्रयासों, उनकी दूरदृष्टि और अनुभवों से यह संस्था अपने औचित्य में सिर्फ फल-फूल ही नहीं रही है, बल्कि इसने अपने सीमित संसाधनों से बड़े आयोजनों के द्वारा सरकारी अकादमियों को पीछे छोड़ा है. वर्ष 2017 से रजा की स्मृति में मंडला में एक सालाना आयोजन शुरू किया गया है. दो-तीन साल के अंदर ही इस आयोजन ने मंडला के लोगों को अपने से जोड़ लिया है और इसमें बड़ी जन भागीदारी होती है.
मंडला अपनी पवित्र लोक-चेतना के कारण नवाचार के बोध में एक उदहारण के रूप में भारत के नक्शे पर अब दूसरी तरह से उभर रहा है. इसकी माटी से पनपे एक कलाकार की मेहनत, कमाई और इरादों से लैस संस्था ‘रजा फाउंडेशन’ अब योग्य कलाकारों को ही नहीं, बल्कि योग्य स्थानों को भी नयी पहचान दिलाने की ओर अग्रसर है. और ये ही वे स्थान होंगे, जहां से अस्थायी उन्माद के समक्ष उसके प्रतिपक्ष के रूप में नवाचारों से समाज के लिए स्थायी उत्साह की जमीन लगातार तैयार होती रहेगी.
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