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वैदः आत्मसंदेह का आख्यानकार
अशोक वाजपेयी वरिष्ठ साहित्यकार यथार्थवाद के साथ जुड़ा एक दुर्गुण है उसकी गुरु-गंभीरता और विनोदहीनता. वैद साहब का गद्य इसके बरअक्स विनोद और विट से भरपूर है.भाषा से ऐसी खिलवाड़ कथा-गद्य में शायद ही किसी और कथाकार ने इस हद तक की हो, जैसी कि वैद ने. वैद साहब के यहां भाषा हर समय चपल-चरण […]
अशोक वाजपेयी
वरिष्ठ साहित्यकार
यथार्थवाद के साथ जुड़ा एक दुर्गुण है उसकी गुरु-गंभीरता और विनोदहीनता. वैद साहब का गद्य इसके बरअक्स विनोद और विट से भरपूर है.भाषा से ऐसी खिलवाड़ कथा-गद्य में शायद ही किसी और कथाकार ने इस हद तक की हो, जैसी कि वैद ने. वैद साहब के यहां भाषा हर समय चपल-चरण है- इसमें कई बार कविता जैसी लयात्मकता, अनुप्रास आदि होते हैं. कई बार वह यथार्थवादी गंभीरता को मुंह चिढ़ाता गद्य लगता है. इस बात की विस्तार से पड़ताल होना बाकी है कि कई मायनों में वैद साहब का गद्य हिंदी के चालू कथा-गद्य शैलियों का प्रतिपक्ष है. उसे अगर इस तरह पढ़ा जाता है, तो हिंदी गद्य के वितान और संभावनाओं का अधिक पूर्ण चित्र उभर सकता है.
अच्छी कविता की ही तरह अच्छा गद्य भी भाषा को वहां ले जाता है, जहां वह पहले न गयी हो. वैद आधुनिक भारतीय व्यक्ति के अंतर्लोक और मायालोक की परतें खोलते हैं और ऐसा करते हुए हमें दुखद-सुखद अचरज से भर देते हैं. उनकी भाषा वह खोलती-उजागर करती है, जो हमारी अंतड़ियों और खून में घटता है, लेकिन जिससे हम औरों से ही नहीं, खुद अपने से छपाते हैं. हमारी असली सच्चाई घटनाओं और छवियों के अलावा न जाने कितने स्वप्नों-दु:स्वप्नों में सनी-लिथड़ी सच्चाई है और उसे वैद अपने कथालोक में ईमानदारी, बेबाकी और ‘मुनासिब बेरहमी’ से खोजते-पाते और विन्यस्त करते हैं.
उनका आत्म-संशयग्रस्त आत्म जिसे जितना संदेह दूसरों पर है, उससे कहीं अधिक अपने पर. एक स्तर पर वैद को आत्मसंदेह का ऐसा आख्यानकार कहा जा सकता है, जो सारी आत्मवंचनाओं को, आधुनिक व्यक्ति-मन के सारे परदों को एकबारगी चीर कर अपना गल्प गढ़ते हैं. इसमें वे आधुनिक साहित्य की कई युक्तियों का सहारा लेते हुए कभी-कभार दास्तानों की सी रवानगी पैदा करते हैं. संलाप-प्रलाप, बातचीत और बकवास, चिंताओं और अटकलों, यादों और संदेहों का एक रेला सा वे लाते हैं.
उनकी रचना का प्रभाव भले ही नाटकीय हो वे भावुकता, लिजलिजी सहानुभूति आदि से बराबर बचते हैं. उनका कथा-शास्त्र अतिरेक का शास्त्र है. इस मायने में वे अपने को प्रयोग और प्रयास की कगार पर बार-बार ले जानेवाले लेखक हैं. कमाल यह है कि कगार पर कौशल और एक तरह की अनिवार्य लेखकीय चतुराई से खड़े रहते हैं: न वे गिरते हैं, न आपको गिरने देते हैं.
(‘अगले वक्तों के हैं ये लोग’, सेतु प्रकाशन से साभार)
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