<figure> <img alt="शाहीन बाग़ में प्रदर्शन" src="https://c.files.bbci.co.uk/5583/production/_110719812_613ab7b6-2a5b-4ef8-a0b6-12fe878ed76b.jpg" height="549" width="976" /> <footer>Getty Images</footer> </figure><p>दिल्ली के शाहीन बाग़ में प्रदर्शनकारी कुछ टीवी चैनलों के पत्रकारों को देखते ही ‘गोदी मीडिया गो बैक’ का नारा लगाते हैं. लेकिन कुछ पत्रकारों और चैनलों का स्वागत भी करते हैं और उनके सामने अपनी बात खुलकर रखते भी हैं.</p><p>हिंदी के दो चर्चित पत्रकारों ज़ी न्यूज़ के सुधीर चौधरी और न्यूज़ नेशन से जुड़े दीपक चौरसिया को भी ऐसे ही नारों का सामना करना पड़ा. दीपक चौरसिया से तो धक्कामुक्की तक की गई.</p><p>जब सुधीर चौधरी और दीपक चौरसिया के साथ ऐसा व्यवहार हुआ तो मीडिया के प्रति ग़ुस्से और नाराज़गी का सवाल उठा. लेकिन ये पहली बार नहीं था जब नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ चल रहे विरोध प्रदर्शनों को कवर करने गए पत्रकारों को भीड़ के ग़ुस्से का सामना करना पड़ा हो. </p><p>इन प्रदर्शनों के दौरान मीडिया के एक वर्ग के प्रति ग़ुस्सा साफ़ दिखाई दे रहा है. कुछ चैनलों के माइक आईडी दिखते ही भीड़ ‘गोदी मीडिया गो बैक’ का नारा लगा देती है तो वहीं कई वेबसाइटों और चैनलों का शुक्रिया अदा करते बैनर भी प्रदर्शनों के दौरान दिखे हैं.</p><p>लेकिन जिस शाहीन बाग़ में दीपक चौरसिया और सुधीर चौधरी को घुसने नहीं दिया गया वहीं से आजतक की अंजना ओम कश्यप, एबीपी के श्रीवर्धन त्रिवेदी और एनडीटीवी के रवीश कुमार लाइव कार्यक्रम कर चुके हैं. </p><p>शाहीन बाग़ में प्रदर्शन कवर करने के लिए जब मैं पहली बार गया तो बाहर लगी बैरीकेडिंग के पास ही मुझे रोक दिया गया. पत्रकार के तौर पर परिचय बताने पर चैनल का आईकार्ड दिखाने के लिए कहा गया. जब बीबीसी का परिचय पत्र दिखाया तो जाने दिया गया. </p><p>इस दौरान एक चैनल की महिला पत्रकार को बैरीकेडिंग के पास ही रोक दिया गया. शाहीन बाग़ में कई ऐसे पत्रकार साथी भी मिले जो अपने चैनल की आईडी छुपाकर या किसी वेबसाइट या यूट्यूब चैनल का आईकार्ड दिखाकर ख़बर संकलन कर रहे थे.</p><p>शाहीन बाग़ के अपने अनुभव के बारे में बताते हुए ज़ी न्यूज़ के संपादक सुधीर चौधरी ने बीबीसी से एक लिखित जवाब में कहा, "शाहीन बाग़ का माहौल हैरान कर देने वाला था. मुझे लगा जैसे मैं भारत में नहीं बल्कि किसी दूसरे देश में हूँ. ऐसा देश जहां हमारा स्वागत नहीं है. ये जगह संसद भवन और सुप्रीम कोर्ट से मात्र 13-14 किलो मीटर है, देश की राजधानी दिल्ली में है फिर भी यहाँ देश का ना क़ानून चलता है ना संविधान."</p><p>सुधीर कहते हैं, "हमारे लिए पूरा माहौल द्वेषपूर्ण लगा जो लोकतांत्रिक परंपरा का हिस्सा नहीं है. गो बैक के नारे लगे जैसे हम कहीं बाहर से आए हैं. हवा में एक अजीब सी शत्रुता थी."</p><p>वहीं न्यूज़ नेशन के दीपक चौरसिया कहते हैं, "मैं शाहीन बाग़ में प्रदर्शन कर रही महिलाओं और बच्चे के मुद्दों को समझना चाहता था. मेरे वहां पहुंचने के बारे में अनाउंस करके जानकारी भी दी गई. शुरू में माहौल ठीक था. लेकिन जैसे ही मैंने अपना शो शुरू किया, कुछ लोग आए जो गोदी मीडिया चिल्लाने लगे और कहने लगे कि इन्हें भगाओ. अचानक माहौल उत्तेजक और तनावपूर्ण हो गया. मेरे साथ दो कैमरामैन थे जिन्हें लोगों ने मारना शुरू कर दिया. मुझे धक्के मार कर वहां लगी बैरीकेड से बाहर निकाला गया. हमारे कैमरा और कार्ड तोड़ दिए गए."</p><p>मीडिया के एक वर्ग के प्रति इस ग़ुस्से की वजह क्या है? दिल्ली विश्वविद्यालय में पत्रकारिता एव साहित्य पढ़ाने वाले और ‘मंडी में मीडिया’ किताब के लेखक विनीत कुमार कहते हैं, "सिर्फ़ शाहीन बाग़ ही नहीं, बल्कि अन्य जगहों पर भी पत्रकारों के प्रति भड़का ग़ुस्सा इस बात का संकेत है कि समाज के एक वर्ग में ये सोच बन गई है कि मीडिया उनके हक़ की बात नहीं करेगा. वो ऐसे मीडिया को विलेन के तौर पर देखने लगे हैं. उन्हें इस मीडिया से उम्मीद नहीं दिखती."</p><p>पहले दिन से शाहीन बाग़ के प्रदर्शनों से जुड़े तासीर अहमद दीपक चौरसिया के कैमरे तोड़ने के आरोप को नकारते हुए कहते हैं, "किसी कैमरे के तोड़े जाने की जानकारी हमें नहीं हैं. दीपक चौरसिया के साथ जो हुआ नहीं होना चाहिए थे. लेकिन दीपक को सोचना चाहिए कि उनके साथ ही ऐसा क्यों हुआ. बाक़ी पत्रकार भी यहां से रिपोर्ट कर रहे हैं. उन्हें कोई दिक्कत नहीं है."</p><p>वहीं एबीपी के वरिष्ठ पत्रकार श्रीवर्धन त्रिवेदी ने शाहीन बाग़ की कवरेज के अपने अनुभव को बताते हुए कहा, "मुझे वहां किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं हुई. लोगों ने मुझसे खुलकर बात की. किसी तरह का विरोध नहीं किया बल्कि स्वागत ही किया. मुझे किसी तरह की कोई समस्या नहीं हुई. लोगों ने वहां आने के लिए शुक्रिया ही अदा किया. मुझे एक पल के लिए भी नहीं लगा कि मैं कहीं और आ गया हूं."</p><p>श्रीवर्धन कहते हैं, "मैं ये समझने गया था कि समाज का एक वर्ग क्यों इतने दिनों से सड़क पर बैठा हुआ है. ऐसी क्या वजह है कि इतनी बड़ी तादाद में लोग प्रदर्शन कर रहे हैं. शाहीन बाग़ एक बड़ा मुद्दा भी बना हुआ है. मुझे लगा कि वहां जाना चाहिए और लोगों की बात सुननी चाहिए. मैं ख़ुद समझना चाहता था कि ज़मीनी हक़ीक़त क्या है, लोग क्यों इतने डरे हुए हैं, या उन्हें डराया गया है."</p><p>वहीं मीडिया के एक वर्ग के प्रति लोगों के ग़ुस्से के सवाल पर त्रिवेदी कहते हैं, "मीडिया को लेकर आम तौर पर लोगों का रवैया ऐसा नहीं होता, ख़ास तौर पर वो लोग मीडिया का विरोध नहीं करते जो किसी आंदोलन को चला रहे हों. मीडिया के वहां पहुंचने से उनकी आवाज़ मज़बूत ही होती है. ऐसे में जो विरोध हमें दिख रहा है उसके जायज़ कारण भी हो सकते हैं."</p><p>विनीत कुमार कहते हैं, "ये कारोबारी मीडिया पर लोगों के भरोसे के ख़त्म होने का मामला है. बार-बार ये कहा जा रहा है कि लोकतंत्र ख़तरे में है या लोकतंत्र पर हमला है. दीपक चौरसिया, सुधीर चौधरी या देश का कोई भी नागरिक लोकतंत्र का हिस्सा है लेकिन सिर्फ़ वो ही लोकतंत्र नहीं है. जब ये पत्रकार ये कह रहे हैं कि उन्हें शाहीन बाग़ में घुसने नहीं दिया जा रहा है उसी समय देश के दर्जनों अख़बारों, टीवी चैनलों और वेबसाइटों के पत्रकार शाहीन बाग़ से रिपोर्टिंग कर रहे हैं. इसका मतलब ये है कि शाहीन बाग़ के प्रदर्शनकारी मीडिया से तो बात करना चाह रहे हैं लेकिन जो मीडिया उनकी छवि को ख़राब कर रहा है उससे वो बात नहीं करना चाहते."</p><p>वहीं तासीर अहमद कहते हैं कि शाहीन बाग़ के प्रदर्शनकारियों को मीडिया के एक हिस्से पर भरोसा नहीं क्योंकि वह ख़बरों को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहा है. तासीर कहते हैं, "कई टीवी चैनलों के पत्रकार शाहीन बाग़ से ख़बर लेकर कुछ जाते हैं और चलाते कुछ और हैं. उन पर हमें भरोसा नहीं है. आजकल सबको जानकारी है. लोग समझते हैं कि ख़बर क्या है और क्या चलाया जा रहा है. डबिंग करके जिन्ना वाली आज़ादी का नारा टीवी पर चलाया गया. कई तरह के झूठे आरोप लगाए गए. पाकिस्तान तक से प्रदर्शनों को जोड़ दिया. जब मीडिया ये सब करेगा तो उस पर भरोसा कौन करेगा?"</p><p>तासीर कहते हैं, "मीडिया का काम परख कर, जाँच कर ख़बरें चलाना है, लेकिन शाहीन बाग़ में चल रहे प्रदर्शनों के बारे में खुलकर झूठ फैलाया जा रहा है. ज़िम्मेदार मीडिया का ये काम होता है कि वो सिर्फ़ बयानों के आधार पर नहीं बल्कि पूरी जाँच करके ख़बर चलाए. लेकिन आज कल मीडिया में सिर्फ़ बयान दिखाए जा रहे हैं."</p><p>ये पूछे जाने पर कि शाहीन बाग़ की महिलाओं के पैसे लेकर प्रदर्शन करने की ख़बर चैनलों पर दिखाई गई, क्या ये गु़स्से की वजह है. दीपक चौरसिया कहते हैं, "इससे जुड़े वीडियो पहले भाजपा के आईटी सेल प्रभारी अमित मालवीय और प्रवक्ता संदीप पात्रा ने शेयर किए थे. मीडिया ने उन्हें बाद में चलाया?"</p><p>क्या मीडिय को ये वीडियो चलाने से पहले संपादकीय फ़िल्टरों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए था, इस सवाल पर चौरसिया कहते हैं, "मीडिया का काम दोनों पक्षों को रखना होता है, बीजेपी क्या कह रही है और शाहीन बाग़ के प्रदर्शनकारी क्या कह रहे हैं, मीडिया ने सभी पक्षों को दिखाया है."</p><figure> <img alt="शाहीन बाग़ में प्रदर्शनकारी" src="https://c.files.bbci.co.uk/9015/production/_110658863_49a8992c-9c4b-4e4f-9372-ba864634ff13.jpg" height="549" width="976" /> <footer>AFP</footer> </figure><p>शाहीन बाग़ के प्रदर्शनकारियों पर सवाल करते हुए दीपक चौरसिया कहते हैं, "शाहीन बाग़ में जो महिलाएं और बच्चे प्रदर्शन कर रहे हैं उनके मन में एक अविश्वास भरा हुआ है. उन्हें दिक्क़त सीएए और एनआरसी से कम है, मोदी और अमित शाह से ज़्यादा है. मुझे लगता है कि समाज के अंदर विभाजन पैदा हो गया है जिसके चलते कोई किसी पर भरोसा नहीं कर रहा है और हर किसी को शक की निगाह से देख रहा है. सीएए के बाद ये माहौल ज़हर भरकर पैदा किया गया है."</p><p>शाहीन बाग़ में रिपोर्टिंग कर रहे पत्रकारों को हो रही दिक्क़तों के सवाल पर चौरसिया कहते हैं, "जब समाज बंटा होता है तो रिपोर्टर को इस तरह की परेशानियों का सामना करना ही पड़ता है. लेकिन शाहीन बाग़ की परिस्थितियां दूसरी हैं. यहां कोई सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ है, ये कोई संघर्ष क्षेत्र नहीं है, शाहीन बाग़ देश का एक हिस्सा है. यहां संविधान और लोकतंत्र बचाने की लड़ाई लड़ी जा रही है, मुझे कम से कम ये भरोसा था कि यहां पत्रकारों को सम्मान मिलेगा. लेकिन यहां पत्रकारों को सम्मान नहीं मिल रहा है और मेरे नज़रिए से ये लड़ाई विभाजनकारी लड़ाई है. मैं शाहीन बाग़ को अब एक आंदोलन के बजाए एक ऐसा विचार समझता हूं जो देश को शायद ग़लत दिशा में ले जाए."</p><figure> <img alt="शाहीन बाग़ में प्रदर्शनकारी" src="https://c.files.bbci.co.uk/DE35/production/_110658865_4ec6756b-4bba-43d9-b2ec-94b195b5b483.jpg" height="549" width="976" /> <footer>AFP</footer> </figure><p>वहीं विनीत कुमार का मानना है कि मीडिया रोज़मर्रा की रिपोर्टिंग में जनता के मुद्दों से दूर रहता है और जब शाहीन बाग़ जैसा कोई प्रदर्शन होता है तो इवेंट पत्रकारिता करता है. </p><p>विनीत कुमार कहते हैं, "रूटीन के तौर पर ये चैनल न मज़ूदरों की बात करते हैं, न किसानों की बात करते हैं, न महिलाओं की बात करते हैं, न नागरिक अधिकारों की बात करते हैं और न ही हशिए पर गए समाज की बात करते हैं. लोगों को लगता है कि जब ये मीडिया साल भर रूटीन के तौर पर उनकी बात नहीं करता और कोई इवेंट होने पर जब अचानक उनकी बात करेगा तो कैसे उनके मुद्दे समझेगा और कैसे उनके हक़ की बात करेगा. इस मीडिया के पास फ़ौलोअप नहीं है. रोज़मर्रा के बुलेटिन में जब इस वर्ग को शामिल नहीं किया जा रहा है तो कैसे ये मीडिया पर भरोसा करेंगे?"</p><p>ये पूछे जाने पर कि कई लोगों का ये मत है कि जो काम दीपक चौरसिया अब कर रहे हैं वो पत्रकारिता नहीं है, दीपक कहते हैं, "मैं अपनी आलोचना का स्वागत करता हूं, लेकिन मैं एक ऐसा पत्रकार हूं जो पूरी तरह से तटस्थ नहीं रह सकता. मैंने हर परिस्थिति में रिपोर्टिंग की है. एक पत्रकार के तौर पर जो मेरी ज़िम्मेदारी है उसे मैं निभाउंगा. जो देश के लिए दीर्घकालिक तौर पर सही है, मैं उसके हिसाब से अपने विचारों को रखता हूं."</p><p>क्या एक पत्रकार पूरी तरह तटस्थ हो सकता है. इस सवाल पर विनीत कुमार कहते हैं, "दीपक चौरसिया का ये कहना बिलकुल जायज़ है कि वो एक तटस्थ पत्रकार नहीं हैं. कोई भी पत्रकार या लेखक तटस्थ नहीं होता है, लेकिन सवाल ये है कि वो पत्रकार किसके साथ खड़ा है. अगर वो सत्ता के साथ खड़ा है तो उसकी पत्रकारिता पर सवालिया निशान है. पत्रकारिता हर हाल में समाज के वंचित, ग़रीब, और सताए गए लोगों के पक्ष में होती है."</p><figure> <img alt="शाहीन बाग़ में प्रदर्शन" src="https://c.files.bbci.co.uk/D27D/production/_110658835_42841778-96f5-4bc8-940b-858ac976fe05.jpg" height="549" width="976" /> <footer>Reuters</footer> </figure><p>हमने सुधीर चौधरी से पूछा कि क्या शाहीन बाग़ के लोगों की मीडिया के एक वर्ग के प्रति नराज़गी उनके लिए लोगों के टूटते भरोसे का संकेत नहीं है? </p><p>इस सवाल के जवाब में चौधरी ने कहा, "इसकी वजह असहनशीलता है. ये प्रदर्शनकारी सिर्फ़ उन पत्रकारों को पसंद करते हैं जो यहाँ आकर उनका मनोबल बढ़ा रहे हैं. उनकी मुहिम के पक्ष में बोलते हैं और उन्हें अपना समर्थन देते हैं. जो पत्रकार इनसे सवाल पूछते हैं उनपर आरोप लगाते हैं. ये भरोसा टूटने का संकेत नहीं बल्कि असहनशीलता का संकेत है. अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार का अपमान है. लोकतंत्र का अर्थ ही विभिन्नता में एकता है. एक ग़लत नैरेटिव सेट किया जा रहा है."</p><p>सुधीर चौधरी के इस जवाब पर विनीत कुमार कहते हैं, "जैसे ही आप इसे असहनशीलता का परिचायक कहते हैं, इसका मतलब है कि आपकी भाषा पत्रकार की भाषा नहीं है, ये सत्ता की भाषा है. पत्रकार की भाषा सहमति और असहमति की होती है, विभाजन की भाषा नहीं होती. मीडियाकर्मियों ने अपने भीतर दिमाग़ी तौर पर एक विभाजन कर लिया है और वो उसे अपनी पत्रकारिता के ज़रिए लोगों पर थोप रहे हैं."</p><p>पत्रकारिता जगत के कई लोगों ने भी सुधीर चौधरी पर आरोप लगाए हैं कि उनके कार्यक्रमों से समाज में बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों की खाई बढ़ी है. इन आरोपों के जवाब में चौधरी ने कहा, "एक पंथ निरपेक्ष राष्ट्र में ना कोई बहुसंख्यक है ना कोई अल्पसंख्यक. नेता ग़लत व्याख्या करके एक खाई पैदा करते आए हैं. ज़ी न्यूज़ जैसे चैनल ने इस ग़लतफ़हमी को दूर किया है. हमारी नज़र में हर भारतीय बराबर है, उसके अधिकार और कर्तव्य भी समान हैं."</p><p>वहीं दीपक चौरसिया का कहना है कि वो अब भी शाहीन बाग़ के लोगों के बीच जाकर बात करना चाहते हैं, बशर्तें वो उन्हें वहां आने दें. शाहीन बाग़ प्रदर्शनों से जुड़े तासीर अहमद ने कहा, "दीपक चौरसिया अगर बहस करना चाहते हैं तो घर पर या टीवी स्टूडियो में करे. मंच पर हम उनकी सुरक्षा की गारंटी नहीं ले सकते. हमारे पास सुरक्षा नहीं है, भीड़ में सभी लोगों को हम नियंत्रित नहीं कर सकते. लोगों में मीडिया के एक वर्ग के प्रति ग़ुस्सा है. ये पत्रकारों को सोचना चाहिए कि उनके प्रति लोगों में ग़ुस्सा क्यों है."</p><p>शाहीन बाग़ और नागरिकता संसोधन क़ानून के प्रदर्शनों के दौरान पत्रकारिता पर उठे सवालों पर श्रीवर्धन त्रीवेदी कहते हैं, "मैं वहां अपना कोई नज़रिया तय करके या एजेंडा तय करके नहीं गया था. मैं वहां बैठे लोगों का एजेंडा समझने के लिए गया था. एक पत्रकार के तौर पर मैं वहां बैठे लोगों की बात सुनने के लिए गया था. मैं वहां अपनी बात कहने के लिए नहीं बल्कि उनकी बात सुनने के लिए गया था."</p><p>त्रिवेदी कहते हैं, "पत्रकारिता सिर्फ़ ये तय करना नहीं है कि क्या दिखाया जाए बल्कि ये तय करना भी है कि क्या ना दिखाया जाए. जो देशहित और समाजहित में न हो उसे न दिखाना भी पत्रकारों की ज़िम्मेदारी है. आज के दौर में ज़िम्मेदारी के ये भाव थोड़ा कम हो रहा है."</p><p><strong>(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप </strong><a href="https://play.google.com/store/apps/details?id=uk.co.bbc.hindi">यहां</a><strong> क्लिक कर सकते हैं. आप हमें </strong><a href="https://www.facebook.com/bbchindi">फ़ेसबुक</a><strong> और </strong><a href="https://twitter.com/BBCHindi">ट्विटर</a><strong> पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)</strong></p>
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शाहीन बाग़ः क्या निशाने पर हैं पत्रकार?
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