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समकालीनता को चित्रित करतीं क्षेत्रीय फिल्में

बॉलीवुड से इतर क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों में तकनीकी और कथ्य के स्तर पर ऐसे प्रयोग हो रहे हैं, जिनकी धमक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महसूस की जा रही है. ये फिल्में बहुस्तरीय और बहुआयामी हैं, जो भारतीय सिनेमा को भी संवृद्ध कर रही है. अरविंद दासलेखक एवं पत्रकार इस साल दादा साहब फाल्के […]

बॉलीवुड से इतर क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों में तकनीकी और कथ्य के स्तर पर ऐसे प्रयोग हो रहे हैं, जिनकी धमक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महसूस की जा रही है. ये फिल्में बहुस्तरीय और बहुआयामी हैं, जो भारतीय सिनेमा को भी संवृद्ध कर रही है.

अरविंद दास
लेखक एवं पत्रकार

इस साल दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित मलयालम के चर्चित फिल्म निर्देशक अदूर गोपालकृष्णन की एक फिल्म-सुखयांतम देखी थी. यह फिल्म तीन छोटी कहानियों के इर्द-गिर्द बुनी गयी है, जिसके केंद्र में आत्महत्या है. पर हर कहानी का अंत सुखद है.हास्य का इस्तेमाल कर निर्देशक ने समकालीन सामाजिक-पारिवारिक संबंधों को सहज ढंग से चित्रित किया है. यह एक मनोरंजक फिल्म है, जो बिना किसी ताम-झाम के प्रेम, संवेदना, जीवन और मौत के सवालों से जूझती है.
खास बात यह है कि ‘सुखयांतम’ डिजिटल प्लेटफॉर्म के लिए बनायी गयी है. इसकी अवधि महज 30 मिनट है. अदूर गोपालकृष्णन ने कहा था कि कथ्य और शिल्प को लेकर उन्होंने उसी शिद्दत से काम किया है, जितना वे फीचर फिल्म को लेकर करते हैं. अपने पचास साल के करियर में पहली बार अदूर ने डिजिटल प्लेटफॉर्म के लिए निर्देशन किया है.
हाल के वर्षों में नयी तकनीक, इंटरनेट पर फिल्म के प्रसारण की संभावना ने न सिर्फ सिद्ध फिल्मकारों, बल्कि युवा फिल्मकारों की अभिव्यक्ति को भी गहरे प्रभावित किया है. लिजो जोस पेल्लीसेरी की मलयालम फिल्म ‘जलीकट्टू’ इसका सफल उदाहरण है. पिछले दिनों गोवा में संपन्न हुए भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में इस फिल्म के लिए पेल्लीसेरी को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार मिला. जलीकट्टू की सिने भाषा समकालीनता में लिपटी है.
इसमें कथानक और चरित्र-चित्रण पर कोई जोर नहीं है, और न संवाद प्रमुख है. पहाड़, जंगलों में जो ध्वनि हम सुनते हैं उसका सहज संयोजन फिल्म के वातावरण को रचने में किया गया है. सिनेमेटोग्राफी इस फिल्म को उत्कृष्ट कला के रूप में स्थापित करती है. भैंस की मांस के बहाने प्रकृति और मनुष्य के संबंधों और मानवीय हिंसा का चित्रण है.
इसी तरह हाल ही में रिलीज हुई भाष्कर हजारिका की असमिया फिल्म ‘आमिस’ भी मांस के इर्द-गिर्द घूमती है. इस फिल्म में मांस एक रूपक है जो समकालीन भारतीय राजनीति और सामाजिक परिस्थितियों को अभिव्यक्ति करने में सफल है. पर फिल्म का ताना-बाना मानवीय प्रेम को केंद्र में रख कर बुना गया है. सिनेमा गुवाहाटी में अवस्थित है, जिसे खूबसूरती के साथ चित्रित किया गया है.
सिनेमा चूंकि श्रव्य-दृश्य माध्यम है, इसलिए महज कहानी में घटा कर हम इसे नहीं पढ़ सकते, यह फिल्म अपने ‘अकल्पनीय कथानक’ की वजह से चर्चा में है. खान-पान को लेकर विकसित संबंध को हमने ‘लंच बाक्स’ फिल्म में भी देखा था, पर आमिस के साथ किसी भी तरह की तुलना यहीं खत्म हो जाती है.
इस फिल्म का मुख्य पात्र सुमन एक शोधार्थी है, जो उत्तर-पूर्व में मांस खाने की संस्कृतियों के ऊपर शोध (पीएचडी) कर रहा है. निर्मली पेशे से डॉक्टर है और स्कूल जाते बच्चे की मां है. वह अपने वैवाहिक जीवन से नाखुश है. उसके जीवन में सुमन का प्रवेश होता है और दोनों के बीच तरह-तरह के मांस खाने को लेकर मुलाकातें होती है, प्रेम पनपता है- शास्त्रीय शब्दों में जिसे परकीया प्रेम कहा गया है.
फिल्म खान-पान की संस्कृति को लेकर समकालीन राजनीतिक-सामाजिक शुचिता पर चोट करने से आगे जाकर लोक में व्याप्त तांत्रिक आल-जाल में उलझती जाती है. प्रेम के स्याह पक्ष को चित्रित करते हुए यह फिल्म आखिर में एब्सर्ड की तरफ मुड़ जाती है. असमिया फिल्मों के करीब 85 वर्ष के इतिहास में इस फिल्म को लेकर दर्शकों-समीक्षकों के बीच तीखी बहस जारी है.
बहरहाल, बॉलीवुड से इतर क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों में आजकल तकनीकी और कथ्य के स्तर पर कई ऐसे प्रयोग हो रहे हैं, जिनकी धमक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महसूस की जा रही है. ये सभी फिल्में बहुस्तरीय और बहुआयामी हैं, जो भारतीय सिनेमा को भी संवृद्ध कर रही है.

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