पुष्पेश पंत
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शौकीनों की पसंद : डक के लजीज जायके
पुष्पेश पंत हिं दुस्तानी खाने की अंतरराष्ट्रीय पहचान जुड़ी है ‘तंदूरी मुर्ग’ के साथ. कुछ ऐसा रुतबा है इस ‘शाही’ अंदाज में पेश होनेवाले कबाब का कि किसी और चिड़िया की हिम्मत इसके आगे पंख फैलाने की नहीं होती. एक जमाना था, जब तीतर-बटेर इससे बेहतर (नाजुक और नफीस) समझे जाते थे, लेकिन आज तो […]
हिं दुस्तानी खाने की अंतरराष्ट्रीय पहचान जुड़ी है ‘तंदूरी मुर्ग’ के साथ. कुछ ऐसा रुतबा है इस ‘शाही’ अंदाज में पेश होनेवाले कबाब का कि किसी और चिड़िया की हिम्मत इसके आगे पंख फैलाने की नहीं होती. एक जमाना था, जब तीतर-बटेर इससे बेहतर (नाजुक और नफीस) समझे जाते थे, लेकिन आज तो अंधे के हाथ भी बटेर नहीं लग सकती- इनको पकड़ना और पकाना गैर-कानूनी करार दिया जा चुका है.
पालतू जापानी बटेरों में वह स्वाद कहां, जिसके दीवाने शौकीन खानेवाले हुआ करते थे? बहरहाल, हमारे एक मेहरबान मेजबान मित्र ने हमें हाल ही में ‘बतख मुसल्लम’ खिलाकर याद दिला दिया कि मुर्गाबियां और भी हैं दुनिया-जहान में मुर्गे तंदूरी के सिवा!
अंग्रेजों के राज में गोरे हुक्मरानों की चापलूसी के लिए बड़े-बड़े राजा महाराजा ‘डकशूट’ का हांका लगवाया करते थे, जिसमें एक ही दिन में सैकड़ों पंछी अपने प्राण गंवा देते थे. निश्चय ही इसका प्रयोजन किसी की भूख मिटाना नहीं था- ताकतवर शिकारी के अहंकार की तुष्टि भर था. हमें लगता है कि इस कारण भी आम हिंदुस्तानी बतखों को खाने से हिचकिचाता रहा है.
उसकी नजर में यह सिर्फ फिरंगी साहब लोगों का भोजन था. इस गलतफहमी से छुटकारा पाने की जरूरत है. भारतवर्ष के लगभग हर हिस्से में बतख खायी जाती है. इसके दर्शन सिर्फ शाही दस्तरखानों में ही नहीं होते, बल्कि वनवासी जनजातियां भी अलग-अलग तरीके से इसका आनंद लेती हैं.
असम में तरी वाला बतख का शोरबा पकाया जाता है और इसका रोस्ट भी. केले के पत्तों में मसाले दार बतख का कीमा खूब ललचाता है. चाय बागानों में ऐशो-आराम की जिंदगी बिताने के आदी गोरे साहबों के खानसामाओं ने असम की जायकेदार चाय का पुट भी यहां की बतख रोस्ट को दिया है.
आदिवासी नमक, मिर्च और नींबू का ही इस्तेमाल करते हैं और इस पक्षी का कुदरती जायका बरकरार रखते हैं. उसके पड़ोसी बंगाल में जिसे ‘हंस का कस्सा मांस’ कहा जाता है, वह वास्तव में बतख ही है. महाराष्ट्र के राजसी खानों में बतख का रस्सा भी एक है.
पेशवाओं के वंशज आदित्य मेहेंदेले ने अपनी पाक पुस्तक में इसको बनाने का रोचक नुस्खा लिखा है. कश्मीर के पंडित वाजवान का एक अनमोल रत्न ‘पंछी दम पोख्त’ है, जो बतख ही है. सुदूर दक्षिण में केरल के सुरियानी अर्थात सीरियन ईसाई समुदाय में खास पर्व पर ‘डक रोस्ट’ पकाने और खिलाने की परंपरा है.
तमिलनाडु की चेट्टनाडु रसोई के लिए भी यह अनजान नहीं है. राजधानी के पंच सितारा होटल अंदाज में काम करनेवाले जरमन शेफ एलेक्स ने बतख के कीमे के समोसे आलू बुखारे की चटनी के साथ परोस कर भारतीय ग्राहकों को आश्चर्यचकित कर दिया था.
दुनिया के अन्य देशों में मुर्गी की तुलना में बतख नायाब समझी जाती है. सबसे मशहूर ‘पीकिंग डक’ है, जिसमें बतख के हर हिस्से को अलग-अलग परोसा जाता है. कुरकुरी बाहरी खाल से लेकर भीतर के मुलायम मांस तक हर बार एक नया जोड़ीदार चटनी या सॉस के रूप में प्रकट होता है.
फ्रांस में जबरन मोटी की गयी बतख की चरबीदार कलेजी की चटनी ‘पाते फौइ ग्रा’ को खानपान के शौकीन कावियार तथा जंगली खुंब जैसे महंगे दुर्लभ पदार्थों की सूची में रखते हैं. फिलहाल भारत में इसका आयात प्रतिबंधित है, क्योंकि पशु-पक्षियों के प्रति अत्याचार का विरोध करनेवालों के अनुसार इसके उत्पादन की प्रणाली क्रूर है.
कुछ लोगों की राय है कि फार्म में पाली गयी बतखें उतनी स्वादिष्ट नहीं होतीं, जितनी जंगली. दूसरी तरफ पश्चिम में अनेक मिशिलिन तारे से अलंकृत रेस्तराओं के मशहूर बावर्चियों का मानना है कि पाली बतखों को आप मनचाहा चारा- बेरियां, फल आदि खिला कर इनके मांस का जायका बदल सकते हैं.
रोचक तथ्य
अंग्रेजों के दौर में आम हिंदुस्तानी की नजर में बतख सिर्फ फिरंगी साहब लोगों का भोजन था.
बंगाल में जिसे ‘हंस का कस्सा मांस’ कहा जाता है, वह वास्तव में बतख ही है.
मशहूर बावर्चियों का मानना है कि पाली बतखों को आप मनचाहा चारा-बेरियां, फल आदि खिला कर इनके मांस का जायका बदल सकते हैं.
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