अरविंद दास
पत्रकार एवं लेखक
पिछले दिनों दिल्ली में ‘रिवायत’ नाम से एक लोक उत्सव का आयोजन किया गया. आश्चर्य की बात यह थी कि इसमें दास्तानगोई को भी शामिल किया गया था.
दास्तानगोई नाटकीय अंदाज में कहानी कहने की एक मनोरंजक विधा है. पिछले दशक में जब उर्दू के चर्चित आलोचक और ‘कई चांद थे सरे आसमां’ के लेखक शम्सुर्रहमान फारूकी और अदाकार महमूद फारूकी ने इस विधा में नया रंग भरा तब लोगों की नजर इस पारंपरिक कला की ओर गयी. मध्यकाल में अमीर हम्जा की दास्तानें दास्तानगो के बीच काफी पसंद की जाती थीं.
तिलिस्म और ऐय्यारी कहानियों को रोचक बनाती थी और सुननेवालों को बांधकर रखती थी. फारूकी ने भी अपनी पहली प्रस्तुति में दास्तान-ए-अमीर हम्जा के किस्सों में से ‘तिलिस्म-ए-होशरुबा’ को चुना था. देवकी नंदन खत्री के उपन्यास ‘चंद्रकांता संतति’ की लोकप्रियता ऐय्यारी और तिलिस्म की वजह से हुई थी, जिसे पढ़कर पाठकों के ‘होश उड़ जाते थे’ और वे उपन्यास के अगले अंक का बेसब्री से इंतजार करते थे!
नये अवतार में दास्तानगोई में हम भारत की सामासिक संस्कृति की झलक पाते हैं. उर्दू-फारसी की इस शैली में जब महमूद फारूकी और दारेन शाहिदी ने चर्चित रचनाकार विजयदान देथा की कहानी- ‘चौबोली’ सुनायी, तो दर्शकों के सामने भाषा आड़े नहीं आयी.
जाहिर है राजस्थानी लोक कहानी ‘चौबोली’ को आधार बनाकर ‘दास्तान शहजादी चौबोली’ की मंच पर प्रस्तुति होगी, तो लोक रंग और राग तो उसमें आयेंगे ही. इस दास्तान में अमरबेल की तरह एक कहानी की डाल पर दूसरी, दूसरी के ऊपर तीसरी, तीसरी के ऊपर चौथी कहानी रची-बसी है और दर्शक-श्रोता की उत्सुकता इस बात को जानने में हमेशा रहती है कि आगे क्या?
नब्बे के दशक के मध्य में एनएसडी के जाने-माने अदाकार पीयूष मिश्रा भी विजयदान देथा की एक अन्य चर्चित कहानी ‘दुविधा’ (इस पर मणि कौल और अमोल पालेकर ने फिल्म भी बनायी) को मंच पर पेश किया करते थे, पर नाटकीय अंदाज के बावजूद दास्तानगोई में नाटकीय साजो-सामान का इस्तेमाल नहीं होता. असल में, दास्तानगोई में गीत-संगीत का इस्तेमाल नहीं किया जाता है. संभव है कि आनेवाले समय में दास्तानगो इस प्रयोग को अपनी अदायगी में शामिल करें.
बकौल फारूकी दिल्ली में वर्ष 1928 में मीर बाकर अली की मौत के साथ ही मुगल काल से चली आ रही दास्तानगोई की समृद्ध परंपरा समाप्त हो गयी. वे आखिर महान दास्तनागो थे. जामा मस्जिद के आसपास वे दास्तानें सुनाया करते थे.
परंपरा के रूप में एक दास्तनागो बैठकों, महफिलों और सार्वजनिक जगहों पर लोगों को किस्से सुनाया करते थे, लेकिन आजकल दो दास्तानगो प्रस्तुति के दौरान मौजूद रहते हैं. मंच पर सफेद चादर और मसनद, अंगरखे में दास्तानगो, पानी पीने के लिए कटोरे और जलती मोमबत्तियां समां बांधती हैं.
हालांकि, पंद्रह वर्ष के बाद भी दास्तानगोई लोक या लोगों के करीब नहीं पहुंच पायी है. देश-विदेश के महानगरों में साहित्यिक और सांस्कृतिक समारोहों के दौरान ही ज्यादातर इसे देखने को मिलता है.
जेएनयू में हिमांशु वाजपेयी और अंकित चढ्ढा ने ‘दास्ताने-सेडिशन’ को अनूठे अंदाज में पेश किया था. कला की हर विधा की तरह दास्तानगोई भी अपने समय और समाज की चिंताओं से जुड़ी है. दास्तानगोई की प्रस्तुति के दौरान दास्तानगो राजनीतिक और सामाजिक टिप्पणी करने से नहीं चूकते, जो इस पारंपरिक विधा को समकालीन बनाता है और दर्शकों के साथ उनका संवाद कायम रहता है.