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अटल-आडवाणी युग का उत्थान और फिर पतन

भारतीय राजनीति में कई लीडर उभरे और इतने शक्तिशाली हुए कि उनका विकल्प कोई नहीं दिखता था, लेकिन कुछ समय बाद उनका पतन हो गया. इसे एक युग के रूप में देखा जाता है, जैसे गांधी युग, नेहरू युग, इंदिरा युग. हालांकि यह एक सच्चाई है कि उत्थान और पतन का दौर हर युग में […]

भारतीय राजनीति में कई लीडर उभरे और इतने शक्तिशाली हुए कि उनका विकल्प कोई नहीं दिखता था, लेकिन कुछ समय बाद उनका पतन हो गया. इसे एक युग के रूप में देखा जाता है, जैसे गांधी युग, नेहरू युग, इंदिरा युग. हालांकि यह एक सच्चाई है कि उत्थान और पतन का दौर हर युग में आया. आज जबकि अटल-आडवाणी युग के पतन की बात हो रही है तो एक बार इस युग के उत्थान और पतन की चर्चा भी जरूरी है.

अटल-आडवाणी और जोशी इस युग की पहचान थे. अटल जी का वर्ष 2018 में निधन हो गया, आडवाणी जी 91 साल के हैं और जोशी जी 85 साल के. ऐसे में यह युग आज के दौर के लिए अप्रसांगिक सा हो गया है. लेकिन एक दौर था जब इस तिकड़ी की तूती बोलती थी और हर कोई इनकी नजर में आना चाहता था.

65 साल का साथ था अटल-आडवाणी का

अटल आडवाणी की दोस्ती भारतीय राजनीति में एक मिसाल है. इन दोनों ने राजनीति में लगभग 65 साल साथ बिताया और एक दूसरे का साथ परछाई की तरह दिया. इस जोड़ी को तिकड़ी बनाया मुरली मनोहर जोशी ने. वे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे और पार्टी को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान भी दिया. अटल-आडवाणी की पहली मुलाकात 1950 के दशक में हुई थी, उस वक्त वाजपेयी जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ राजस्थान गये हुए थे. जिस वक्त अटल-आडवाणी की मुलाकात हुई दोनों जनसंघ के प्रचारक थे. कुछ समय बाद आडवाणी को दिल्ली बुलाया गया और उस वक्त वाजपेयी सांसद थे, बस यहीं से उनका साथ हुआ जो 65 सालों तक चला. आडवाणी ने हमेशा अटल का साथ दिया, जब जनसंघ के नेता बलराज मधोक उनपर हमला बोलते थे उस वक्त भी आडवाणी उनके साथ थे. आडवाणी जब पार्टी के अध्यक्ष बने तो उन्होंने मधोक को पार्टी से निकाल दिया और वाजपेयी का साथ दिया. इन दोनों के बीच अनबन भी हुई लेकिन इनकी दोस्ती पर खतरा कभी नहीं आया. एक दौर ऐसा भी था जब यह कहा जाता था कि आडवाणी भाजपा का असली चेहरा हैं वाजपेयी तो सिर्फ मुखौटा हैं, बावजूद इसके इन दोनों की इस्पात जैसी दोस्ती नहीं हिली. आडवाणी ने पार्टी को दो सांसदों से निकालकर सरकार बनाने की स्थिति तक पहुंचाया, इस दौर में अटल-आडवाणी-जोशी अपने चरम पर थे और उनका विकल्प कोई नहीं दिखता था.

2013 से शुरू हुआ अटल-आडवाणी युग का पतन

2004 में पार्टी लोकसभा का चुनाव हार गयी और स्वास्थ्य कारणों से 2009 के बाद वे सक्रिय राजनीति से दूर होते गये. बढ़ती उम्र ने आडवाणी को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया और भाजपा में नया नेतृत्व उभरने लगा. 2013 में जब नरेंद्र मोदी को भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया, तो यह टिप्पणी आम हो गयी कि आडवाणी अब पीएम इन वेटिंग ही रह जायेंगे और हुआ भी वही. धीरे-धीरे आडवाणी की पार्टी पर पकड़ ढीली होती गयी और आज यह स्थिति है कि कभी पार्टी के सिरमौर रहे आडवाणी जी आज पार्टी में अलग-थलग हैं. मुरली मनोहर जोशी की भी कमोबेश यही स्थिति है, जबकि उन्होंने पार्टी को शिखर पर पहुंचाने में लीडिंग भूमिका निभाई थी.

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