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यथार्थ के नाटकीय मंचन से दर्शकों का जुड़ाव

अमितेश, रंगकर्म समीक्षक रंगमंच वर्तमान में घटित होनेवाली कला है और इस कारण यह वर्तमान में हस्तक्षेप भी करता है. इससे अपेक्षा भी की जाती है कि यह अपने समय के सवालों को संबोधित करे और उस पर बहस करे. जोर देकर कहना चाहिए कि रंगकर्म ऐसी कला है, जो अपने समय की सत्ता से […]

अमितेश, रंगकर्म समीक्षक
रंगमंच वर्तमान में घटित होनेवाली कला है और इस कारण यह वर्तमान में हस्तक्षेप भी करता है. इससे अपेक्षा भी की जाती है कि यह अपने समय के सवालों को संबोधित करे और उस पर बहस करे. जोर देकर कहना चाहिए कि रंगकर्म ऐसी कला है, जो अपने समय की सत्ता से सच कहता है या अपने दौर की परिघटनाओं पर अपनी राय रखता है. ऐसा रंगमंच जो केवल कला और मनोरंजन के लिए होता है, उसको रंगकर्म मानने में ही रंगकर्मियों को आपत्ति होने लगती है. सजग रंगकर्मी अपने हालात पर नजर रखकर उसे अपने रंगकर्म में उतारता है.
हाल में ऐसी कुछ प्रस्तुतियां देखीं, जिसमें एकदम अभी के हालात को अपना कथ्य बनाया गया था. ऐसी ही एक प्रस्तुति है दानिश हुसैन निर्देशित इब्ने इंशा लिखित ‘किस्सा उर्दू की आखिरी किताब का’. निर्देशक ने मशहूर उर्दू शायर इंशा की रचनाओं के जरिये देश के मौजूदा हालात को दिलचस्प अंदाज में पेश किया है, तीखे तंज के साथ. प्रस्तुति में दानिश हुसैन खुद अभिनय कर रहे थे, उनका साथ दे रहे थे यासिर खान.
दोनों ने किस्सागोई और अभिनय के सहारे व्यंग्य को ऐसे बरता है कि दर्शक अभिप्राय तक आसानी से पहुंचते हैं. धर्म, सत्ता, शिक्षा व्यवस्था के साथ देश में फैल रहा तरह-तरह का उन्माद नाटक के तंज के निशाने पर आता है. सबसे मजेदार हैं वे सवाल जो दर्शकों से बीच-बीच में पूछे जाते हैं. अभिनय को संगीत का भी साथ मिला है.
प्रस्तुति में इतिहास के ऐसे दौर की मजाहिया यात्रा भी है, जिसे आज एक खास निगाह से देखा जा रहा है. इतिहास और ज्ञान के अनुशासनों पर मनमुताबिक कब्जा और व्याख्या करने की हनक के दौर में अभिव्यक्ति पर हमले का जो खतरा है, वह नाटक के क्लाइमेक्स में रोचक अंदाज में सामने आता है. पटना में चल रही प्रस्तुति के बीच एक नाटकीय एक्ट को एक दर्शक यथार्थ समझकर उसे रोकने मंच पर भी पहुंच गयी.
कथ्य वर्तमान से जुड़ा होता है, तो दर्शक भी उसे रीसीव करते हैं. बेगूसराय में चल रहे सातवें रंग-ए-माहौल की प्रस्तुति के दौरान यह दिखा. प्रवीण गुंजन निर्देशित ‘बंद अकेली औरत’ में एक अकेली औरत जो पुरुष के शक और उत्पीड़न से घिरी है, उसकी पीड़ा को दर्शक तल्लीनता से देख रहे थे, तो वहीं दिलीप गुप्ता निर्देशित ‘नेटुआ’ में नायक झमना, जो स्त्री वेश धर के अपने नृत्य से पुरुषों का मनोरंजन करता है, के प्रतिरोध का दर्शकों ने जोश से स्वागत किया और उसके संघर्ष से अपने को जोड़ा.
इसी तरह संजय उपाध्याय निर्देशित ‘हसीनाबाद’ में राजनीति के उस खेल को दर्शकों ने सराहा, जिसमें राजनीतिक जीत के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाये जाते हैं, किसी को फर्श से अर्श पर लाया जाता है, तो किसी को फर्श से अर्श पर. जाति, धर्म, पैसे, जीत, हार, रिश्वत आदि का जो खेल चलता है, उसे दर्शक बतौर नागरिक बखूबी समझते हैं. इसलिए नाटक में आये इस तरह के कार्यव्यापार पर अपना विशेष उत्साह प्रदर्शित करते हैं.
बिहार के नवादा जिले के गांव गोंदर बिगहा में रंगकर्मी बुल्लु कुमार ने हृषिकेश सुलभ की कहानी ‘अगिन जो लागी नीर में’ की प्रस्तुति की. इसमें कस्बाई और ग्रामीण लड़कियों की पनप रही इच्छाओं और उसके पारंपरिक समाज से हो रहे टकराव का चित्रण है. इस यथार्थ के मंचीय निरूपण को लगभग हजार की संख्या में आये ग्रामीण दर्शकों ने सराहा.
आरा में रंगकर्मियों ने वर्तमान राजनीति पर पक्ष रखने के लिए श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास ‘राग दरबारी’ की चार दिनों तक प्रस्तुति की. दिल्ली में अनुराधा कपूर निर्देशित प्रस्तुति ‘नाले वाली लड़की’ की भरपूर चर्चा है, जिसने लड़कियों पर बढ़ी हिंसा को अपना कथ्य बनाया था, जिसमें पीड़ित परिवार को न्याय व्यवस्था और सामाजिक रवैये से जूझना पड़ता है.
आशय यह कि दर्शक जिस यथार्थ में रह रहे हैं, उसका उद्घाटन नाटकीय मंचन में देखते हैं, तो उससे अधिक जुड़ाव भी महसूस करते हैं. इसलिए रंगकर्मियों को अपने समय के यथार्थ की पड़ताल करते रहना चाहिए.

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