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उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में दम तोड़ती खेती

सरयू नदी के किनारे ख़ूबसूरत उपजाऊ खेतों में, उत्तराखंडी लोक वाद्य ‘हुड़के’ की थाप और ‘हुड़किया बौल’ का मधुर संगीत. ‘हुड़के’ की इस थाप पर सामूहिक रूप से धान के पौंधे रोप रही महिलाएं और हल जोतते पुरूष. हरे भरे जंगलों से घिरी घाटी के खेतों में ‘रोपाई’ का यह नज़ारा है, बागेश्वर ज़िले के […]

सरयू नदी के किनारे ख़ूबसूरत उपजाऊ खेतों में, उत्तराखंडी लोक वाद्य ‘हुड़के’ की थाप और ‘हुड़किया बौल’ का मधुर संगीत. ‘हुड़के’ की इस थाप पर सामूहिक रूप से धान के पौंधे रोप रही महिलाएं और हल जोतते पुरूष. हरे भरे जंगलों से घिरी घाटी के खेतों में ‘रोपाई’ का यह नज़ारा है, बागेश्वर ज़िले के बिलौना गांव का.

मिलजुल कर खेती करने के ऐसे नज़ारे उत्तराखंड में आम हैं. लेकिन अब पलायन और सिमटती खेती के शिकार इन गांवों में ‘रोपाई’ करने ज़्यादा लोग नहीं जुटते, क्योंकि कई परिवार गांव छोड़ चुके हैं और कई खेती.

बिलौना गांव की दया देवी कहती हैं, ‘पहले रोपाई करने पूरा गांव जुटता था और मेले जैसा माहौल होता था, लेकिन अब गांव खाली हो गए हैं. जितने लोग हैं बस वही आ जाते हैं.’

इन ख़ूबसूरत नज़ारों के बीच, गाते-बजाते, उत्साह के साथ खेती करने वाले इन किसानों की ज़िंदगी की दुश्वारियां भी, ‘हुड़के’ की थाप के किन्हीं अंतरालों में मौजूद हैं, जिन्हें पिछले दिनों उत्तराखंड हाईकोर्ट ने एक जनहित याचिका में सुना है.

हाईकोर्ट ने चिंता जताई

नैनीताल के एक सामाजिक कार्यकर्ता रघुवर दत्त की ओर से दाख़िल इस जनहित याचिका पर फ़ैसला करते हुए उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने प्रदेश की बदहाल खेती और किसानों के हालात पर चिंता जताई है.

अपने आदेश में पहाड़ी ज़िलों से हुए किसानों के पलायन के चिंताजनक आंकड़ों को शामिल करते हुए कोर्ट ने कहा है, ‘वह समय आ गया है जब उत्तराखंड के किसानों के अधिकारों को मान्यता देते हुए अब तक चली आ रही पूरी प्रक्रिया को उलट दिया जाना चाहिए.’

अपने आदेश में अदालत ने एक रिपोर्ट का ज़िक्र करते हुए कहा, ‘उत्तराखंड के पहाड़ी इलाक़ों में मौजूद खेती की ज़मीन में से केवल 20 प्रतिशत पर ही खेती शेष रह गई है, उसके अलावा 80 प्रतिशत खेती की ज़मीन या तो बंजर है या उसका दूसरे कार्यों के लिए प्रयोग किया जा रहा है.’

इस आदेश में यह भी दर्ज है कि बीते दिनों में तकरीबन सवा दो लाख से अधिक लोग, खेती छोड़कर गांवों से पलायन कर चुके हैं, और पिछले कुछ सालों में क़र्ज में डूबे 4 किसानों ने आत्महत्या भी की है.

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खेती क्यों छोड़ रहे हैं किसान?

आख़िर पहाड़ी किसान लगातार खेती से क्यों दूर जा रहे हैं? अल्मोड़ा ज़िले के डोबा गांव के काश्तकार गोपाल गुरूरानी किसानों की समस्याएं बताते हैं, ‘पहाड़ों में लोग खेती से पीछे इसलिए हट रहे हैं, क्योंकि पहाड़ी क्षेत्रों में मंडियां नहीं हैं. किसान अपने उत्पादों को कहां बेचेगा? मंडियां तराई क्षेत्रों में हैं जहां तक ढुलान का खर्चा उसके मुनाफे से अधिक पड़ जाता है. उस पर जंगली जानवरों का भी आतंक है, खास तौर पर जंगली सुअर. ऐसे में किसान कैसे खेती करेगा?’

गुरूरानी कहते हैं, ‘सभी किसान इससे परेशान हैं. मैं अपने खेतों में खूब मेहनत करता हूं और इतनी मेहनत करने के बाद भी कमाई कुछ नहीं होती. आय के कोई स्रोत नहीं बनते. पूरे साल के लिए परिवार के खाने भर को भी उपज पूरी नहीं पड़ती.’

कॉलेज की अपनी पढ़ाई के बाद गांव लौटकर खेती से रोजगार चलाने की मुहिम में जुटे पिथौरागढ़ ज़िले के हटकेश्वर गांव के युवा काश्तकार सुरेंद्र बिष्ट कहते हैं, ‘उत्तराखंड की जो पढ़ी-लिखी युवा पीढ़ी है, उसका कृषि से रूझान बिल्कुल ख़त्म हो गया है. क्योंकि कृषि में जितना हम श्रम और समय देते हैं उसकी अपेक्षा में उत्पादन नहीं मिल पाता है.’

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खेती की जोत के लगातार सिकुड़ते जाने को भी बिष्ट खेती से ख़त्म होती रुचि की वजह मानते हैं, ‘पीढ़ी दर पीढ़ी बटवारे के चलते किसानों की खेती के लिए जोत सिमटती जा रही है. एक छोटे से खेत को दो या तीन भाई टुकड़ों में जोत रहे हैं. ऐसे में वे कैसे अपना परिवार पालेंगे? साथ ही उत्तराखंड बनने के बाद पिछले 18 सालों में भी यहां कोई चकबंदी नहीं हुई है. ना स्वैच्छिक और ना ही सरकारी प्रयासों से.’

उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज़ के निदेशक प्रो. गिरिजा पांडे, इन हालातों के इतिहास में झांकते हुए कहते हैं, ‘पिछले छह दशकों से उत्तराखंड में कोई भूमि का बंदोबस्त (लैंड सैटेलमेंट) नहीं हुआ है. जबकि यह हर 20 सालों में होना चाहिए. मुझे लगता है यह सबसे बड़ी दिक्कत है क्योंकि जब आपको मालूम ही नहीं है कि ज़मीन की स्थिति क्या है तो कैसे कोई नीति बनाई जा सकती है.’

प्रो. पांडे कहते हैं, ‘उत्तराखंड के बारे में कहा जाता है कि 12.5-13 प्रतिशत भूमि पर खेती होती है. लेकिन इसमें से अधिकांश हिस्सा मैदानी इलाक़ों में है. पहाड़ी इलाक़ों में बेहद सीमित, तकरीबन 5-6 प्रतिशत खेती की ज़मीन है. तो पर्वतीय समाज के पास तो कृषि के लिए ज़मीन है ही नहीं. ऐसे में कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि यह समाज अपने अस्तित्व के लिए कृषि पर निर्भर रहेगा? किसी किसान के पास अगर अधिकतम काश्तकारी है तो 2 हैक्टेयर ज़मीन की है. और आम तौर पर तो बेहद न्यूनतम भूमि किसानों के पास है.’

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तेज़ी से होता पलायन

हालांकि, उत्तराखंड उच्च न्यायालय में दायर की गई याचिका वर्ग 4 की ज़मीनों के हस्तांतरण के मसले पर थी, जिससे 54 हज़ार किसान प्रभावित हैं.

कोर्ट ने राज्य सरकार को आदेश दिया है, ‘8 मार्च 1985 के सरकारी आदेश का पालन करते हुए, गवर्मेंट ग्रांट एक्ट 1985 के तहत, 6 माह के भीतर सभी पर्वतीय क्षेत्रों में कब्ज़ेदार किसानों को पट्टे आबंटित किए जाएं.’

उधर, पलायन आयोग के मुताबिक उत्तराखंड में 2011 की जनगणना के बाद से अब तक 734 गांव पूरी तरह जनसंख्या शून्य हो गए हैं, वहीं 565 ऐसे गांव हैं जिनकी जनसंख्या 50 प्रतिशत से कम हो गई है. और यह सिलसिला थमता नहीं नज़र आता.

सिमटती खेती और ज़रूरी सुविधाओं के अभाव के चलते, जिनके पास किसी भी तरह क्षमता थी, लगभग वे सभी पहाड़ के अपने गांवों को छोड़कर जा चुके हैं, जो शेष हैं वे अपनी ज़रूरतों के लिए पहाड़ के सीने को अब भी जोत रहे हैं.

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