पांडुआ के इस प्राचीन मंदिर की 500 साल पुरानी कथा, जहां अब श्रद्धा और विश्वास का है बोलबाला
मुरली चौधरी, हुगली
पश्चिम बंगाल के पांडुआ क्षेत्र में स्थित सिमलागढ़ की दक्षिणा काली आज श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक हैं. लेकिन इस स्थान का इतिहास पहले कुख्यात था, क्योंकि यहां कभी नरबलि की परंपरा प्रचलित थी. मंदिर की स्थापना लगभग 500 साल पहले हुई थी, शेरशाह सूरी के जीटी रोड बनने से पहले. उस समय यह इलाका घने जंगलों और श्मशान भूमि से घिरा था. लोग यहां आने से डरते थे. लोक कथाओं के अनुसार, एक कपालिक साधक तालाब किनारे झोपड़ी में पंचमुंडी आसन पर बैठकर मां काली की साधना किया करते थे. डाकू लोग भी किसी डकैती से पहले यहां नरबलि देकर आशीर्वाद लेते थे. प्रसिद्ध रघु डाकू ने भी इसी स्थान पर तपस्या की थी. समय के साथ बदलाव आया. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जीटी रोड के महत्व के कारण लोग इस इलाके में आने लगे और मां के प्रति आस्था भी बढ़ी. कहा जाता है कि लक्ष्मण भट्टाचार्य के पूर्वजों ने पूजा शुरू की थी. किंवदंती है कि तांत्रिक नटबर भट्टाचार्य ने एक दिन मंदिर के सामने मानव-मस्तक बिखरे देखे और पूजा अधूरी छोड़ लौट आये. कुछ दिन बाद मां ने स्वप्न में उन्हें बताया कि नरबलि बंद हो और अब केवल बकरे की बलि दी जाये. आज सिमलागढ़ काली के मंदिर में हर दिन नित्य पूजा होती है. काली पूजा के अवसर पर 108 प्रकार के भोग चढ़ाये जाते हैं, जिसमें संदेश और मछली की कालिया देवी को सबसे प्रिय हैं. भक्त दूर-दूर से आते हैं और अपनी मनोकामना पूर्ण करने के लिए मंदिर के पास पेड़ पर ईंट का टुकड़ा बांधते हैं. समय के साथ तालपत्रों की झोपड़ी वाला मंदिर अब पक्का और भव्य रूप ले चुका है.मिट्टी की मूर्ति की जगह कष्टि पत्थर की प्रतिमा स्थापित है. मंदिर के चारों ओर मिठाई और प्रसाद की दुकानों की कतार है. वर्तमान पुजारी अनामिक चट्टोपाध्याय कहते हैं कि मां सिमलागढ़ काली अत्यंत जाग्रत देवी हैं और जीटी. रोड से गुजरने वाला कोई चालक बिना प्रणाम किये नहीं जाता. कहा जाता है कि पहले जब डाकू असफल होते, तो क्रोध में मंदिर तोड़ देते थे, लेकिन मां स्वप्न में मिस्त्रियों को आदेश देतीं और मंदिर पुनः बन जाता था. आज भी श्रद्धालु मानते हैं कि सच्चे मन से मां सिमलागढ़ काली को पुकारो, तो उनकी मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है.
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