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सौ रुपये ट्रैक्टर बिक रहा फॉसिल्स युक्त मोरम
मंडरो से लौट कर जीवेश 11.07 करोड़ वर्ष पुराने फाॅसिल्स. आज भी उपेक्षित, हो रही जेसीबी से अवैध खुदाई साहिबगंज के मंडरो का 11.07 करोड़ वर्ष पुराना विश्व धरोहर फॉसिल्स पार्क खतरे में है. सरकारी दावं-पेच में यह उपेक्षित है. दूसरी ओर 2600 वर्ग किलोमीटर में फैले फॉसिल्स पर माफियाओं की नजर है. पार्क स्थल […]
मंडरो से लौट कर
जीवेश
11.07 करोड़ वर्ष पुराने फाॅसिल्स. आज भी उपेक्षित, हो रही जेसीबी से अवैध खुदाई
साहिबगंज के मंडरो का 11.07 करोड़ वर्ष पुराना विश्व धरोहर फॉसिल्स पार्क खतरे में है. सरकारी दावं-पेच में यह उपेक्षित है. दूसरी ओर 2600 वर्ग किलोमीटर में फैले फॉसिल्स पर माफियाओं की नजर है. पार्क स्थल के रूप में सरकार द्वारा चिह्नित तारा पहाड़ पर जेसीबी से खुदाई जारी है.
गांव के लोग महज सौ रुपये में एक ट्रैक्टर फॉसिल्स युक्त मोरम बेच रहे हैं. तारा पहाड़ से दर्जनों ट्रैक्टर से फॉसिल्स व मोरम ढोया जा रहा है. इसका उपयोग बगल के जिला गोड्डा के ठाकुरगंज में सड़क निर्माण में किया जा रहा है. पहाड़ पर बिखरे पड़े विशालकाय फॉसिल्स भी अब नहीं दिखते.
तालाब की खुदाई जारी है. इलाके की सुरक्षा का जिम्मा वन विभाग ने तारा पहाड़ के गांववालों के हवाले कर दिया है. किसी को पहाड़ पर आते देख गांववाले पास आ कर बताते हैं कि वो फॉसिल्स की सुरक्षा करते हैं, पर हकीकत में ऐसा नहीं है. पहाड़ पर ही जेसीबी से खुदाई और ट्रैक्टर से ढ़ुलाई गांववालों की ही निगरानी में हो रही है.
जमीन के मालिक चंदू पहाड़िया को यह भी नहीं मालूम कि कितना ट्रैक्टर माल जा रहा है. कहते हैं कि वह प्रति ट्रैक्टर एक सौ रुपये लेते हैं, पर पढ़े लिखे नहीं हैं, इस कारण गिनती में उन्हें दिक्कत होती है. पता चला कि जो भी गिनती उन्हें ठेकेदार के लोग बता देते हैं, उतने पैसे वह ले लेते हैं. खुदाई से फॉसिल्स को खतरा पर कहते हैं कि वह खुद चेक कर फॉसिल्स को बचा लेते हैं, पर सच्चाई यह है कि वह जेसीबी से मिनटों में ट्रैक्टर लोड होते भी ठीक से नहींदेख पाते.
ठेकेदार के लोग उन्हें अलग रखते हैं. कंकड़ रख ट्रैक्टर का फेरा गिनने का उनका गणित भी गड़बड़ा देते हैं. ट्रैक्टर चला रहे मो जोहरीन अंसारी के अनुसार उसे प्रति फेरा 500 रुपये मिलते हैं, दूसरी ओर जेसीबी के चालक प्रमोद के अनुसार उसको प्रति घंटा एक हजार रुपये मिलते हैं.
वह दस मिनट में एक ट्रैक्टर फॉसिल्स व मोरम ट्रैक्टर में भर देता है. तारा पहाड़ पर इधर-उधर बिखरे विशाल फॉसिल्स भी अब नहीं दिखते. जो कुछ बचे हुए हैं, उन्हें भी माफिया गायब करने में लगे हैं. कुछ को तोड़ पर सड़क पर फेंक दिया गया है, ताकि सुविधानुसार उन्हें ले जा सकें. महाराजपुर के पास रेल पटरी के किनारे भी जीवाश्म फेंके हुए हैं.
भूगर्भशास्त्री डॉ रणजीत कुमार सिंह के अनुसार सब कुछ नष्ट हो रहा. डॉ सिंह बताते हैं कि पांच माह पहले जो फॉसिल्स दिख रहे थे, वो भी अब नहीं हैं. उनके अनुसार संरक्षण की सही व्यवस्था नहीं होने के कारण सब नष्ट हो रहा. केंद्र सरकार के पहल पर राज्य सरकार से इसके संरक्षण के लिए मिले 1.56 करोड़ रुपये भी सरकारी कमजोरी के कारण लौट गये. अक्तूबर महीने में राष्ट्रपति को भी यहां लाने की कोशिश थी, पर अब सब पर पानी फिर गया. जिलाधिकारी उमेश प्रसाद सिंह भी चिंतित हैं. उन्होंने इसकी सुरक्षा तत्काल कराने का भरोसा दिलाया.
तीन साल पहले हुआ था नोटिफाइड : विश्व में दक्षिण अफ्रीका के बाद सबसे ज्यादा फॉसिल्स मंडरो में ही है.इसके संरक्षण के लिए केंद्र सरकार ने भारतीय भू वैज्ञानिक सर्वेक्षण केंद्र, कोलकाता को 11 दिसंबर 2012 में लिखा था. कोलकाता के वैज्ञानिकों ने सर्वे कर 26 जून 2014 को जारी अपने पत्र में मंडरो को धरोहर घोषित कर दिया. अपनी अनुशंसा में केंद्र ने लिखा कि उस इलाके के साथ न तो छेड़छाड़ हो और न ही कोई चीज वहां से हटाया जाये. केंद्र ने इसे न सिर्फ इसे भू वैज्ञानिकों के लिए महत्वपूर्ण बताया, बल्कि इसे उत्तर-पूर्वी भारत का एक मात्र महत्वपूर्ण राष्ट्रीय भू धरोहर घोषित किया.
(साथ में साहिबगंज से सुनील)
कहते हैं जिलाधिकारी : फॉसिल्स की चोरी व अवैध उत्खनन पर जिलाधिकारी उमेश प्रसाद सिंह चिंता जाहिर करते हैं. कहते हैं कि हर हाल में इसकी सुरक्षा होगी और इसके लिए वह एसपी व वन विभाग के पदाधिकारी को पत्र लिख रहे हैं.
कहते हैं डीएफओ : डीएफओ केके तिवारी के अनुसार काम का बंटवारा नहीं होने के कारण अभी तक इस संबंध में कुछ नहीं हुआ है. श्री तिवारी के अनुसार आठ माह पहले तय हुआ था कि इसके विकास का जिम्मा वन विभाग का होगा. फिर जनवरी 16 में मुख्य सचिव व वन सचिव के बीच रांची में बैठक हुई.
इसमें तय हुआ कि पर्यटन विभाग किसी कंसल्टेंट की मदद से फॉसिल्स पार्क का डीपीआर बनवायेगा. डीपीआर बनने के बाद उस पर वन विभाग काम करेगा, पर अभी तक कुछ तय नहीं हुआ है. इस कारण पूरा मामला लटका हुआ है. उन्होंने कहा कि इस दौरान उन्होंने कोशिश की है कि गांव के लोग ही इलाके की रक्षा करें.
कहते हैं तारा पहाड़ के ग्रामीण : 15 घर का गांव है तारा पहाड़. अधिकतर लोग गरीब हैं. वन विभाग द्वारा बनाये गये कथित निगरानी दल का मुखिया छोटू पहाड़िया के अनुसार वो लोग सरकारी आश्वासन से तंग आ गये हैं. कहते हैं कि गांव के लोगों के पास पीला कार्ड है, पर मात्र छह माह ही चावल मिलता है. धरोहर घोषित करने के बाद उन्हें खेती भी नहीं करने दिया जाता है. कहा जाता था कि इलाका विकसित होगा, तो फायदा होगा. पर सालों बाद भी कुछ नहीं हुआ. अब उन लोगों के सब्र का बांध टूट रहा. पेट के खातिर सब करना पड़ता है.
पार्क पर कब-कब हुआ शोध : यहां के जीवाश्म कितने महत्वपूर्ण हैं, इसका पता इसी से चलता है कि अभी तक यहां पर कई देशों के भू-वैज्ञानिक शोध कर चुके हैं. साहेबगंज कॉलेज के भू-विज्ञान विभाग के सहायक प्राध्यापक डॉ रणजीत कुमार सिंह के अनुसार राजमहल के जीवाश्मों के बारे में पहली बार इंग्लैंड के ओल्डहैम व मॉरिस ने वर्ष 1863 में अपने व्यवस्थित अध्ययन के जरिये दुनिया को बताया. ऑस्ट्रेलिया के फीस्टमैंटल (1877) ने अपने सर्वे में टेरिडोफाइट की 21, साइकाडेसी की 26 और कोनिफर्स की पांच प्रजातियां इस इलाके में मौजूद थीं.
इसके अलावा अपने देश से भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण केंद्र (कोलकाता), आइआइटी (खड़गपुर), इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ माइंस (धनबाद), बीरबल साहनी संस्थान पेलियोबॉटनी (लखनऊ), इसके अलावा अन्य कई संस्थानों के भू-वैज्ञानिकों ने यहां का सर्वे किया. उनके शोध पत्र भी प्रकाशित हुए और राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इससे नाम भी कमाया. 1869 से 1874 के बीच एक अंगरेज भू-वैज्ञानिक बी बॉल ने यहां के जीवाश्म पर काम किया और उसने ‘जीओलॉजी ऑफ राजमहल हिल्स’ नामक पुस्तक लिखी. इस किताब को इस क्षेत्र के मार्गदर्शक के रूप में मानते हैं भू वैज्ञानिक.
अभी तक 47 की हुई है पहचान : साहिबगंज कॉलेज के भू-वैज्ञानिक डॉ रणजीत कुमार सिंह के अनुसार अभी तक सिर्फ 47 जीवाश्मों की ही पहचान हुई है. वो कहते हैं कि खुली आंखों से दिखनेवाले फॉसिल्स विश्व में सिर्फ इसी इलाके में हैं. यहां के अलावा सिर्फ दक्षिण अफ्रीका में ऐसे जीवाश्म हैं. डॉ सिंह के अनुसार अगर यहां भू वैज्ञानिक तरीके से खुदाई व शोध हुआ तो सैकड़ों जीवाश्म मिलेंगे.
यह होता, तो बदल जाती सूरत : कागजों में तो यहां के फॉसिल्स पर काफी काम हुआ, पर जमीनी स्तर पर कुछ नहीं हुआ. यहां पर जमीन का अधिग्रहण कर उसे घेरे में ले लिया जाता तो आज स्थिति कुछ और होती. यहां भू-वैज्ञानिक तरीके से खुदाई और संग्रहालय का निर्माण होता तो फायदा होता. झारखंड सरकार गंभीर होती, तो भी इस मामले में काम हो गया होता.
कैसे पहुंचें जीवाश्म पार्क : मंडरो साहिबगंज जिला मुख्यालय से 39 किलोमीटर दूर है. यहां से सड़क मार्ग से बस या निजी वाहन द्वारा जाया जा सकता है. रेल मार्ग से भागलपुर- साहिबगंज रेल खंड पर मिर्जा चौकी रेलवे स्टेशन पर उतर कर सड़क मार्ग से जाया जा सकता है. मिर्जा चौकी से लगभग 14 किलोमीटर की दूरी है.
इन इलाकों में फैले हैं जीवाश्म : राजमहल पर्वत शृंखला के मंडरो, भूतहा, बनचप्पा, चुनाखारी, गिलामरी, धौकुटी, गरमीपहाड़, अमजोला, सकरीगली घाट, महादेवगंज, महाराजपुर, खैराबनी, बलभद्री, सीतलपुर, गौरो संताली, केंदुआ, निपनिया, नून पहाड़, अंबाजोर, बड़ी धुबा, गुम्मा पहाड़, कलकीपाड़ा, खैरकासोल, खटंगी पहाड़ी, सिलंगी में जीवाश्म बहुतायत मात्रा में हैं. पर सिर्फ मंडरो को संरक्षित करने की बात की जा रही है.
यहां से ले जाकर बन गया दूसरा शहर
यहां पर शोध करने आये बीरबल साहनी संस्थान पेलियोबॉटनी (लखनऊ) के डॉ बीरबल साहनी ने 1930-40 के बीच यहां के 14 जीवाश्मों की पहचान की थी. लखनऊ स्थित इस शोध संस्थान के संग्रहालय में यहीं के जीवाश्म हैं और उसका नाम हो रहा है, जबकि मंडरो आज भी उपेक्षित है.
डॉ रणजीत कुमार िसंह, भू-वैज्ञािनक
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