रांची. लातेहार के चंदवा प्रखंड में बसे तोड़ार गांव की पहचान अब सिर्फ पहाड़ और पगडंडियों से घिरे एक आदिवासी गांव के रूप में नहीं है, बल्कि यह गांव अब जंगल बचाने के आंदोलन की मिसाल बन चुका है. करीब 70 घरों वाले इस गांव में गंझू भोक्ता समुदाय के लोग रहते हैं. चंदवा से होते हुए जब अमझरिया घाटी के रास्ते तोड़ार की ओर बढ़ते हैं, तो एक बड़ा फर्क साफ नजर आता है. आसपास के इलाकों में जहां जंगल की आग ने हरियाली को राख कर दिया है, वहीं तोड़ार गांव की सीमा में घुसते ही पेड़ों की घनी छांव और ताजा हरियाली आंखों को राहत देती है.
इस बदलाव के पीछे हैं इस गांव की महिलाएं. उनकी पहल और दृढ़ संकल्प से आज करीब 944 हेक्टेयर जंगल सुरक्षित है. यहां सखुआ, केंद, महुआ और अन्य बहुमूल्य पेड़ प्रजातियां सुरक्षित हैं. 2019 में जंगल बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ता सुधीर मुंडा की पहल पर यहां के लोगों को जंगल की रक्षा के लिए संगठित किया गया. गांव में ””वनाधिकार समिति”” और ””वन पालन समिति”” का गठन हुआ. इन दोनों समितियों की कमान महिलाओं के हाथों में है. संगीता देवी वनाधिकार समिति की अध्यक्ष हैं और दूसरी समिति का नेतृत्व भी एक महिला कर रही हैं.छह वर्षों में एक भी बार जंगल में आग नहीं लगी
पिछले छह वर्षों में एक भी बार जंगल में आग नहीं लगी. सिर्फ आग ही नहीं, पेड़ों की कटाई पर भी पूरी तरह रोक लगी है. गांव ने सामुदायिक वनाधिकार पट्टा के लिए आवेदन भी सरकार को भेजा है. इस संगठित प्रयास का असर सिर्फ जंगल पर नहीं, गांव की अर्थव्यवस्था पर भी दिख रहा है. महुआ और सरईदाना की बिक्री से गांव की आमदनी बढ़ी है. सरईदाना से तेल निकालने का काम शुरू हुआ है.डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है

