रांची़(प्रवीण मुंडा). गोस्सनर कलीसिया छोटानागपुर की सबसे पुरानी कलीसिया है. आज भी इस कलीसिया से जुड़े कई स्मारक और पुराने अवशेष हैं, जो यहां के रोचक इतिहास के साक्षी हैं. इनमें एक है मुर्दा घंटा टावर. आज इस टावर का सिर्फ चबूतरा ही बचा है. यह चबूतरा बेथेसदा बालिका उच्च विद्यालय के सामने स्थित पुराने कुएं की बगल में है. यहां पर आज भी लोग फुर्सत में बैठते हैं, पर उन्हें नहीं मालूम कि इस जगह का ऐतिहासिक महत्व क्या है.
टावर के निचले हिस्सा एक गोल चबूतरा था
1845 में जब जर्मन मिशनरी रांची पहुंचे, तो सबसे पहले उन्होंने मॉडरेटर बंगला के पास अपना तंबू लगाया था. इसके बाद धीरे-धीरे उस इलाके में चर्च, स्कूल और आवासीय इमारतों का निर्माण शुरू हो गया. उसी दौर में एक मुर्दा घंटा टावर भी बनाया गया था. उस टावर के निचले हिस्सा एक गोल चबूतरा था. बीच में लकड़ी के एक विशाल खंभे पर घंटा बांधा गया था. जब भी कोई शवयात्रा कब्रिस्तान के पास से गुजरती थी, तो उस घंटा को बजाया जाता. इससे आसपास के लोगों को सूचना मिल जाती थी कि किसी का निधन हुआ है और उसे दफन संस्कार के लिए कब्रिस्तान ले जाया जा रहा है. गौरतलब है कि ईसाई समाज में किसी के निधन होने पर रिवाज है कि लोगों को घंटा बजाकर इसकी सूचना दी जाती है. सेवानिवृत बिशप जोनसन लकड़ा ने कहा कि घंटा की एक खास लय होती है. इसे रूक-रूक कर बजाया जाता है. इसको सुनकर ही लोगों का पता चल जाता है कि किसी का निधन हुआ है. जहां तक मुर्दा घंटा टावर की बात है, तो काफी पहले उसका इस्तेमाल हुआ करता था.घंटा बजाने से सही समय पर सूचना मिल जाती थी
कुछ लोगों का कहना है कि पहले जनसंख्या कम थी और लोग दूर-दूर रहा करते थे. ऐसे में घंटा बजाने से उन्हें सही समय पर सूचना मिल जाती थी. कुछ लोगों का मानना है कि आजादी से पहले तक यह घंटा लोगों तक निधन की सूचना पहुंचाता रहा. उसके बाद इसका इस्तेमाल कम होने लगा. अब वहां पर वह खंभा और घंटा नहीं है, पर चबूतरा अभी भी मौजूद है. कुछ वर्ष पहले इस चबूतरे के जीर्णोद्धार की योजना बनायी गयी थी. लेकिन कहा गया कि आसपास कई शिक्षण संस्थान हैं. इसलिए घंटा टावर के माध्यम से सूचना देने का विचार छोड़ दिया गया.डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है