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झारखंड: संकट में गांधी के सपनों में बसनेवाले बुनकर, जूझ रहे हैं आर्थिक तंगी से, कभी पलता था लाखों लोगों का पेट

हाथ से बनाये गये इनके उत्पादों का अच्छा बाजार भी था. आज यह काम कोल्हान, पलामू, दक्षिणी और उत्तरी छोटानागपुर प्रमंडल के करीब 6000 परिवारों तक सिमट कर रह गया है.

मनोज सिंह, रांची :

आज बुनकरों का हुनर संकट में है, हाथ खाली हैं और जीवन में अंधेरा पसरा है. जैसे-तैसे आजीविका चल रही है. ऐसी हालत देख बुनकरों की नयी पीढ़ी भी इस काम से भाग रही है. एक वक्त था जब लगभग पूरे झारखंड प्रक्षेत्र (तब अविभाजित बिहार) में बुनकरों का काम होता है. 1980 के बाद संताल परगना को छोड़ शेष जिलों में करीब 30 हजार से अधिक लोग इस काम में लगे थे, जिससे करीब दो लाख लोगों का पेट पलता था.

हाथ से बनाये गये इनके उत्पादों का अच्छा बाजार भी था. आज यह काम कोल्हान, पलामू, दक्षिणी और उत्तरी छोटानागपुर प्रमंडल के करीब 6000 परिवारों तक सिमट कर रह गया है. करीब 72 सोसाइटी चल रही हैं. कई मोहल्ले के लोग सीधे तौर पर इस पेशे से जुड़े हैं. इनके उत्पाद पर जीएसटी तो लगता, लेकिन राज्य सरकार से मदद ‘नहीं के बराबर’ मिल रही है. केंद्र से मिलनेवाला सहयोग भी बंद है.

बुनकरों की आर्थिक तंगी कायम :

सोसाइटी के इरबा स्थित सेंटर पर काम करनेवाली अजमेरी खातून रोजाना आठ घंटे काम करके 400 से 500 रुपये ही कमा पाती हैं. कहती हैं : आज की महंगाई के हिसाब से ये पैसे कम हैं. हालांकि, संस्था हर तरह की मदद करती है. जरूरत में हमलोगों के साथ खड़ी रहती है. सफीना, सबीला खातून जैसी कई महिलाएं इस पेशे से जुड़कर घर को सहयोग कर रही हैं.

संस्थाओं के सामने भी बढ़ी चुनौती : बुनकरों को एकजुट कर रोजगार उपलब्ध करानेवाली संस्थाओं के सामने भी संकट है. काम की कमी के कारण पैसे की तंगी है. इससे नयी तकनीक से जोड़ने में परेशानी हो रही है. बाजार में टिके रहने के लिए मेहनत करनी पड़ रही है. ‘द छोटानागपुर हैंडलूम एंड खादी वीवर्स को-ऑपरेटिव यूनियन लि, इरबा’ राज्य में बुनकरों को संगठित कर रोजगार देने में लगी हुई है.

दिया जाता है चार माह का प्रशिक्षण :

इरबा स्थित सोसाइटी में बुनकरों को चार माह का प्रशिक्षण दिया जाता है. इस दौरान प्रशिक्षण पानेवालों को रोजाना 200 रुपये स्टाइपेंड भी दिया जाता है. प्रशिक्षण, उत्पादन और प्रबंधन का काम देखनेवाले बताते हैं कि यह काम मेहनत और तकनीकी के मेल का है. 10 में से चार या पांच लोग ही इसमें दक्ष हो पाते हैं. कुछ बीच में ही प्रशिक्षण छोड़कर चले जाते हैं. इरबा के माध्यम से चलनेवाली बुनकर सोसाइटी को नयी तकनीक से जोड़ने की कोशिश हो रही है. पुरानी मैनुअल मशीन के साथ-साथ आठ नयी ऑटोमेटिक मशीनें भी लायी गयी हैं. एक मैनुअल मशीन आठ घंटे में तीन-चार चादर तैयार करती है, जबकि ऑटोमेटिक मशीन आठ से 10 चादर तैयार करती है. इससे कमाई बढ़ सकती है. लेकिन, मशीन की लागत अधिक होने से सोसाइटी की पहुंच से दूर हो जा रही है.

ऑनलाइन सेल में भी आ रहे उत्पाद :

बुनकरों के उत्पाद अब ऑनलाइन सेल में भी आ रहे हैं. इसके लिए ऑनलाइन मार्केटिंग करनेवाली संस्थाओं से संपर्क किया गया है. इसके अतिरिक्त रांची, कोलकाता और बोकारो में एक्सक्लूसिव यूनिट हैं. आठ चलंत वाहन हैं. एयरपोर्ट, धनबाद और जमशेदपुर में एक-एक बिक्री केंद्र खोलने की योजना है.

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