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झारखंड के आंदोलनों के इतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता

यह साल स्वतंत्र भारत का एक स्वर्णिम साल है, जब देश की आजादी के 75 साल पर हम जश्न मना रहे हैं। यह साल, यह अवसर हमारे लिए बहुत खास है। खास दो अर्थों में है। एक तो यह कि हम आजादी के 75 साल पूरे होने के उत्सव में बौद्धिक रूप से शामिल हो रहे हैं

यह साल स्वतंत्र भारत का एक स्वर्णिम साल है, जब देश की आजादी के 75 साल पर हम जश्न मना रहे हैं। यह साल, यह अवसर हमारे लिए बहुत खास है। खास दो अर्थों में है। एक तो यह कि हम आजादी के 75 साल पूरे होने के उत्सव में बौद्धिक रूप से शामिल हो रहे हैं। दूसरा यह कि देश की आजादी में अपने प्राण न्योछावर करने वाले उन शहीदों, नायकों, उनके आंदोलन और उनकी भूमिकाओं को हम इस मौके पर तलाश कर  सामने ला रहे हैं, जिन्हें आजादी के 75 साल बाद भी इतिहास में जगह नहीं मिली.

पाश्चात्य इतिहासकारों ने उनकी अनदेखी की। उन्हें नीचा दिखाया। उनका अपमान किया।  आजाद भारत में भी 75 सालोंं में कमो-बेस वहीं साम्राज्यवादी इतिहास, खंडित तथ्य और वही कहानियां हमारे बौद्धिक विमर्श में शामिल रहीं, हम उन्हें ही पढ़ते–पढ़ाते रहे। इन भूलों को हम अब सुधार रहे हैं। इस दृष्टि से यह साल, आने वाले साल, यह कार्यक्रम और यह सत्र बहुत ही महत्वपूर्ण है।

यह सत्य तो यह है कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और उसमें भी आदिवासियों की भूमिका को लेकर इतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता है। इतिहास पुनर्लेखन के लिए  व्यापक दृष्टि अपनाने की आवश्यकता है। हम आदिवासियों की बात करें, तो भारत के वर्तमान और भविष्य आदिवासी समाज के बिना पूरा नहीं होता। हमारी आजादी की लड़ाई का भी पग-पग, इतिहास का  पन्ना-पन्ना आदिवासी वीरता से भरा पड़ा है।

1857 की क्रांति से भी पहले, विदेशी हुकूमत के खिलाफ आदिवासी समाज ने संग्राम का बिगुल फूंका था। गुलामी के शुरुआती सदियों से लेकर 20वीं सदी तक, आप ऐसा कोई भी कालखंड नहीं देखेंगे, जब आदिवासी समाज ने स्वाधीनता संग्राम की मशाल को थामे न रखा हो, किंतु दुर्भाग्य से आदिवासी समाज के इस संघर्ष और बलिदान को आज़ादी के बाद लिखे गये इतिहास में जो जगह मिलनी चाहिए थी, वह नहीं मिली।

माननीय प्रधानमंत्री जी अगर यह कहते हैं  कि आदिवासियों को इतिहास में वह जगह नहीं मिली, जो मिलनी चाहिए थी, तो इसका सीधा-सा अर्थ यह है के हमारे इतिहासकारों को आजादी के बाद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और उसके नायकों और खासकर आदिवासी आंदोलनों और उनके नायकों के प्रति जिस दृष्टि और जिस सोच का परिमार्जन करना था, वह नहीं किया गया, जबकि स्वतंत्र राष्ट्र और उसके घटक समाज की उनसे यह अपेक्षा थी।

प्रधानमंत्री जी ने इसी माह की पहली तारीख को राजस्थान के मानगढ़ धाम में आदिवासी संघर्ष और शहादत को नमन करते हुए यह कहा कि आदिवासियों को इतिहास में वह जगह नहीं मिली, जो उन्हें मिलनी चाहिए थी। निश्चित तौर पर यह इस बात का संकेत है आजादी के बाद हमारे इतिहासकारों को भारत के स्वतंत्रता संग्राम, उसके नायकों और विशेषकर आदिवासी आंदोलनों और आदिवासी नायकों को लेकर जो काम करना चाहिए था, वह नहीं किया गया। ऐसे में यह साल बड़ा हमत्व रखता है कि हम इन गलतियों को सुधारें।

उदाहरण के लिए अभी तब हम यह पढ़ते रहे, हमें यह पढ़ाया जाता रहा कि भारत की स्वतंत्रता का पहला संग्राम 1857 में हुआ था।  हमें यह पढ़ाया गया कि 1857 का जो विद्रोह था, वह सिपाही विद्रोह था। आज यह प्रमाणित है कि ये  दोनों ही बातें गलत है।

एक तो देश की आजादी की लड़ाई 1857 में नहीं, उससे भी करीब सौ साल पहले शुरू हुई। दूसरी बात यह कि 1857 की घटना विद्रोह,  नहीं समर थी और तीसरी बात यह कि वह केवल सिपाहियों का प्रतिरोध नहीं था, बल्कि वह बड़ी जनक्रांति थी, जिसमें सिपाही भी थे, राजा भी थे, जमींदार भी थे और आदिवासी समाज भी था। ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव और वीर शेख भिखारी जैसे क्रांतिकारी किसी सेना के सिपाही नहीं थे। देश की आजादी के इतिहास में ऐसी अनेक भूलें हमें मिलती हैं, जिनका निराकरण किया जाना अभी बाकी है.

झारखंड, बंगाल, बिहार और उड़ीसा के संदर्भ में देखें, तो यहां आजादी की लड़ाई की पृष्ठभूमि तो 1765 में उसी दिन तय हो गई थी, जिस दिन मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय से ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने बंगाल की दीवानी हासिल की और बादशाह व मुर्शिदाबाद के नवाब की पेंशन राशि तय कर दी। इसके बाद कंपनी ने धन संग्रह के लिए आदिवासियों पर लगान तय  करना और लगाम कसना शुरू किया। उनके जल, जंगल और जमीन के अधिकार को छीनना आरंभ किया।

उन पर अत्याचार और उनका शोषण  शुरू हुआ। बंगाल प्रेसीडेंसी के इस आदिवासी क्षेत्र में, जो आज का झारखंड है, इसके दो साल बाद ही अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई शुरू हो गयी।  1767 में ही धालभूम में विद्रोह हुआ। तब से लेकर 20वीं शताब्दी के प्रथम दशक तक इस क्षेत्र में करीब सौ विद्रोह हुए, जिनका एक ही उद्देश्य था अंग्रेजों को भगाना। दुर्भाग्य से पाश्चात्य लेखकों और इतिहासकारों ने इन आंदोलनों के प्रति जो दृष्टिकोण अपनाया, वह न तो समग्रता का था, ना ही उसमें निष्पक्षता थी।

इसका कारण भी था। एक तो वे कंपनी और बाद में अंग्रेज सरकार के मुलाजिम थे। दूसरा उन्हें बौद्धिक स्वतंत्रता भी नहीं थी। तीसरी बात कि उन्हें इन आंदोलनों और इनके प्रभावों की वास्तविकता को  दिखाना ही नहीं था, एक विद्रोह का दूसरों से अंतर्संबंध बताना नहीं था, क्योंकि यह पहले कंपनी और बाद में और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जाता था। इसलिए स्वाभाविक था कि उन्हें स्पष्टता और समग्रता के साथ इसे प्रस्तुत नहीं करना था।

दुर्भाग्य यह हुआ कि आजादी के पूर्व और आजादी के बाद, दोनों ही काल खंडों में भारतीय इतिहासकारों ने भी उन्हीं साम्राज्यवादी इतिहासकारों की दृष्टि और उनके निष्कर्षों का अनुसरण किया, जिसका परिणाम हुआ कि आजादी की लड़ाई की पूरी तस्वीर हमारे सामने नहीं आई। खास कर आदिवासी समाज की लड़ाई का इतिहास।

भारत की आजादी में झारखंड के आंदोलनों के इतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता है। इस आवश्यकता के तीन आयाम हैं–

1. पहला यह कि हमारे अनेक नायकों और उनके संघर्षों की गौरव गाथा इतिहास में दर्ज नहीं है। उन्हें शोध के जरिए और इतिहास के पुनर्लेखन के जरिए सामने लाने की आवश्यकता है।

 2. दूसरा यह कि आजादी की लड़ाई में झारखंड के इतिहास को लेकर तथ्यात्मक भ्रांतियां और अशुद्धियां भरी पड़ी हुई है, जिनका निराकरण आवश्यक है।

 3. तीसरा यह कि इतिहास की इन घटनाओं को देखने की जो दृष्टि रही है, उसे बदलने की जरूरत है।

 हम पहले की बात करें, तो हम देखेंगे कि कई ऐसे वीर स्वतंत्रता सेनानी और शहीद हैं, जो अपने क्षेत्र और समाज के गौरव हैं। वहां उनकी पूरी प्रतिष्ठा है। उनके त्याग और बलिदान के श्रुति–साक्ष्य हैं, किंतु क्षेत्र विशेष से इतर उनकी और उनके त्याग की चर्चा नहीं है। उदाहरण के लिए मानगढ़ धाम हो ही ले लें।  राजस्थान के बांसवाड़ा जिले का यह पहाड़ी क्षेत्र संत गोविंद गुरु और उनके अनुयायियों के बलिदान के लिए पूज्य है।

यहां इस्ट इंडिया कंपनी से मुक्ति के लिए गोविंद गुरु और 1500 भीलों को  ब्रिटिश सेना ने मौत के घाट उतार दिया था।  यह जलियांवाला बाग के बलिदान से भी बड़ा था और उससे भी पहले का है, किंतु भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में उसका उल्लेख नगण्य है। झारखंड में ऐसे अनेक वीर सपूत हैं, जिनके त्याग और बलिदान की गौरव गाथा उनके समाज और क्षेत्र विशेष में तो अस्तित्व रखती है, किंतु इतिहास की किताबों में उनका जिक्र नहीं है।

उदाहरण के लिए 1855–56 के संताल विद्रोह की वीरांगना फूलो-झानो, 1854 के संताल आंदोलन के नायक मोरगो मांझी, उसके बाद के आंदोलनों के नायक  लुबिया मांझी और बैरू मांझी, फत्तेह संताल आदि। हम संताल विद्रोह की ही बात करें, तो 1854 से लेकर 1917-18 तक छाेटानागपुर-संताल परगना से लेकर मयूरभंज तक कम-से-कम नौ-दस बार संतालों ने विद्रोह किये, लेकिन इतिहास की किताबों में नहीं जगह नहीं मिली। लोकगीतों और लोक कथाओं में इनसे जुड़े साक्ष्य हैं, जिन्हें संकलित,  विश्लेषित और सत्यापित करने की  आवश्यकता है।

दूसरा आजादी की लड़ाई में झारखंड के इतिहास को लेकर तथ्यात्मक भ्रांतियां और अशुद्धियां भरी पड़ी हैं, जिनका निराकरण आवश्यक है। आप देखेंगे कि सूचनाओं का तात्कालिक स्रोत जो गूगल है, वहां पर एक बौद्धिक पोलूशन है, ज्ञान का पोलूशन है और मैंने देखा है कि अधिकांश लोग झारखंड के आंदोलन के इतिहास को ले कर वहीं से सामग्री प्राप्त कर रहे हैं। इसे ठीक करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए सफाहोड़ आंदोलन और इसके प्रणेता भागीरथ मांझी को ले लें। भगीरथ मांझी को तिलकामांझी का पुत्र बताया जाता है, जबकि वास्तविकता यह है तिलकामांझी और भागीरथ मांझी में कोई रक्त संबंध नहीं था।

तिलकामांझी पहाड़िया थे, जबकि भागीरथ मांझी संताल थे। तिलका मांझी का जन्म भागलपुर जिले के तिलकपुर में हुआ था, जबकि भागीरथ मांझी का जन्म गोड्डा जिले के पथरगामा प्रखंड के तरडीहा गांव में हुआ। तिलकामांझी को 1785 में फांसी दी गयी  और उनकी शहादत के प्राय: 80 साल बाद सफाहोड़ आंदोलन आरंभ हुआ। भगीरथ मांझी के पिता नाम लिटा हांसदा था। हांसदा संतालों का पारिस यानी गोत्र होता है।

तरडीहा में  भगीरथ मांझी की पांचवी और छठी पीढ़ी आज भी है। उनके सबसे छोटे पाते चंदर हांसदा तरडीहा पंचायत के कई टर्म मुखिया रहे। उनके प्रपौत्र यानी परपोते मुनीलाल हांसदा, जिनके उम्र करीब 65 वर्ष है, गोड्डा व्यवहार न्यायालय में अधिवक्ता हैं। मुनीलाल हांसदा की पुत्रवधू लिलीसी हेम्ब्रम महेश लिट्टी पंचायत, गोड्डा की 2015 से 2021 तक मुखिया रहीं। इतने सुस्पष्ट और सुलभ प्रमाण होने के बाद भी  भागीरथ मांझी को लेकर भ्रामक जानकारी तथाकथित इतिहास लेखन में मौजूद है।

सिदो-कान्हू को  लेकर भी भ्रांतियां हैं। सर्वप्रथम तो सिदो को सिद्धू कहा और लिखा गया है।  यहां तक कि दुमका में जो आज की तिथि में सिदो–कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय है,  1992 में जब इसकी स्थापना हुई थी, तब से लेकर झारखंड राज्य निर्माण के आरंभिक वर्षों तक इसका नाम सिद्धू-कान्हू विश्वविद्यालय था, जबकि स्पष्ट है कि सिद्धू पंजाबी का शुक्र है और 1855-56 के संताल विद्रोह के नायक का नाम सिदो था, सिद्धू नहीं।

झारखंड राज्य निर्माण के बाद इस भूल का सुधार किया गया और इसका नाम सिदो–कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय हुआ।  सिदो-कान्हू, दोनों दो व्यक्ति थे, जबकि कुछ स्थानों पर दोनों को एक ही मान लिया गया, दोनों की गिरफ्तारी की तिथि को एक मान ली गई, दोनों को फांसी देने की तिथि और स्थान भी एक ही मान लिया गया, जबकि यह सब अलग-अलग है। ऐसा इसलिए कि इन विषयों पर समग्रता से काम नहीं हुआ

इसी प्रकार  धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा गिरफ्तारी 3  फरवरी, 1900 लिखा जाता है जबकि भारत के गृह विभाग के अधिकारी जेपी हेवेट और ब्रिटेन में भारतीय मामलों के विदेश मंत्री के बीच हुए पत्राचार से प्रमाणित होता है कि बिरसा मुंडा की गिरफ्तारी 3 नहीं 5 फरवरी 1900 में हुई।

 तीसरा सबसे महत्वपूर्ण है यह है कि स्वतंत्रता की लड़ी गयी लड़ाई और खास कर झारखंड के आंदोलनों  के ऐतिहासिक मूल्यों के विवेचना की दृष्टि।  हम देखेंगे अंग्रेज प्रशासन और साम्राज्यवादी अंग्रेज लेखकों–इतिहासकारों ने किस प्रकार से इन आंदोलनों के महत्व को कमतर करके देखा है। आंदोलनों के नायकों के प्रति अनादर का भाव व्यक्त किया है। उदाहरण के लिए 1769-1778 में क्रांतिवीर रघुनाथ महतो के नेतृत्व में हुए विद्रोह को हम आज भी चुआड़ विद्रोह के नाम से लिखते, पढ़ते और पढ़ाते आ रहे हैं। स्पष्ट है कि चुआड़ कोई जाति या स्थान नहीं था,

बल्कि शोषण से मुक्ति के लिए लड़ा गया एक ऐसा आंदोलन था, जिसकी अपेक्षा ना तो ईस्ट इंडिया कंपनी को थी और ना ही कंपनी के पिट्ठू बंगाली जमींदारों को । तब बंगाली जमींदारों–साहूकारों के बहकावे में आकर अंग्रेजों ने इसे चुआड़ आंदोलन कह दिया, जबकि यह एक प्रकार की गाली है। अंग्रेजों के पिट्ठू जमींदारों ने आंदोलनकारियों के प्रति नफरत व्यक्त करने के लिए उन्हें चुआड़ कहा। वास्तव में यह गाली ही है।

आजादी के 75 साल बाद भी हम इसे ‘जंगल महल स्वतंत्रता आंदोलन’ या कुड़मी आंदोलन नहीं कह सके, हम भी इसे चुआड़ आंदोलन ही कहते रहे हैं। यह कैसी बौद्धिक विडंबना है कि एक तरफ इस विद्रोह के नायक रघुनाथ महतो के प्रति पूरे झारखंडी समाज में आदर का भाव है, उनकी प्रतिमा स्थापित है, हम उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, रघुनाथपुर का नामकरण ही उनके नाम पर हुआ, किंतु हम इस महानायक के आंदोलन को चुआड़ का आंदोलन कह रहा है। तो क्या हम उनका अपमान नहीं कर रहे?

इसी प्रकार जावरा पहाड़िया ही तिलका मांझी हैं, तो बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर संताल परगना के पेज 67 पर एल एस एस ओ’’मैली ने उन्हें डकैत की संज्ञा दी और हम बाद के इतिहास लेखन में इसकी आवृत्ति कर रहे हैं।

 उसी प्रकार से 1855–56 के विद्रोह को लेकर जो पाश्चात्य इतिहासकारों ने साम्राज्यवादी दृष्टिकोण अपनाया और हम उसका अनुसरण करते गये।

उसी प्रकार फ्रांसिस बी ब्रेडले–बर्ट ने 1905 में लंदन से छपी अपनी पुस्तक स्टोरी ऑफ इंडिया अपलैंड में  कहा कि संताल विद्रोह हिंदुओ के खिलाफ था।

डब्लू डब्लू हंटर ने कहा कि संताल विद्रोह अंग्रेजों के खिलाफ नहीं था, बल्कि यह महाजनों और जमींदारों के खिलाफ विद्रोह था। ब्रेडले हंटर को अपना गुरु मानता था। डब्ल्यू डब्ल्यू हंटर ने संथाल विद्रोह में सांप्रदायिकता को शामिल कर इस आंदोलन को बदनाम करने का प्रयास किया। दुर्भाग्य से दशकों तक इसका कहीं कोई विरोध नहीं हुआ

जबकि यह तथ्यात्मक साक्ष्य है कि संताल विद्रोह न केवल संतालों का विद्रोह था, बल्कि यह जनजातियों के साथ–साथ दलितों, पिछड़ों, मोमिनों और अन्य अभवंचित समाज का मुक्ति संघर्ष था।

दरअसल, अभी तक जितने भी जनजातीय इतिहास और संस्कृति के क्षेत्र में काम हुए हैं, वे साम्राज्यवादी विदेशी लेखकों के दृष्टिकोण पर आधारित अथवा उनसे प्रभावित हैं। मैंने पहले ही कहा कि यह ब्रिटिश साम्राज्यवादी लेखकों की अपनी बाध्यता थी कि उनमें से ज्यादातर अंग्रेज अधिकारी थे, इसलिए उन्हें लिखने की स्वतंत्रता नहीं थी, बौद्धिक स्वतंत्रता नहीं थी और जिन्होंने इससे आगे बढ़ कर लिखा-काम किया,

तो वे अपने ही वर्ग में आलोचना के  शिकार हुए।  उदाहरण के लिए, नदिया डिवीजन के कमिश्नर एसी बिडवेल ने  संथाल विद्रोह को लेकर जब तथ्यात्मक रिपोर्ट की, तब डब्ल्यू डब्ल्यू हंटर उससे नाराज हो गए और यहां तक कह दिया कि संताल विद्रोह की एक वजह बिड़वेल भी हैं। नतीजा यह हुआ कि बिडबेल की रिपोर्ट साम्राज्यवादी इतिहासकारों की किसी पुस्तक में नहीं है, उसे दबा दिया गया।

हालांकि कुछ अंग्रेज लेखकों ने उदारता भी दिखाई। जैसे मैकफर्सन ने अपनी रिपोर्ट में 1855–56 के संताल विद्रोह के संदर्भ में संतालों की बहादुरी की प्रशंसा की।  लॉर्ड रिपन, कैनिंग जैसे ऑफिसर थे, जो उदार थे, किंतु इनके लिखे साक्ष्य की अनदेखी की गयी.

आज सबाल्टर्न स्टडीज का आइडियल सेक्टिनेट कहता है कि स्रोत को लार्जर प्रोस्पेटिव, व्यापक संदर्भ देखना होगा। केवल कोलोनियल या आर्काइवल स्टडी एक एच्टीच्यूड को रिप्रजेट करता है, इसमें समग्रता नहीं है। इसलिए साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक दासता वाली मानसिकता से निकल कर राष्ट्रवादी इतिहास लेखन की दृष्टि अपनाने की आवश्यकता है, जिसमें जातीय  गौरव को राष्ट्रीय गौरव  का विषय बनाने और अपने नायकों की गौरव गाथा के प्रति नयी चेतना  की प्रतिबद्धता निहित हो।

इसमें लोकवृत्त के माध्यम से इतिहास के अनजाने,-अनदेखे सत्य को जानने-समझने की पहल करनी होगी। इसमें आर्काइवल स्रोत के साथ ही  लोकगाथा, लोकगीत और लोकस्मृतियों को भी इतिहास लेखन का आधार बनाना होगा और क्षेत्रीय इतिहासकारों के शोध कार्यों को भी सम्मिलित करना होगा।

अंत में मैं प्रधानमंत्री जी की इन पंक्तियों को उद्धूत करना चाहूंगा कि आजादी के इस अमृत वर्ष में आज देश उन गलतियों  को सुधारना और उन कमी को पूरा करना चाहता है, जिन्हें साढ़े सात दशक पहले ही सुधारा और पूरा किया जाना चाहिए थ। हम आदिवासी समाज, संघर्ष और उनके  के बलिदानों के ऋणी हैं। हम सब इस काम का हिस्सा बने हैं, यह हमारे लिए आत्मगौरव का विषय है।

डॉ. आर. के. नीरद

niradrk@gmail.com

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