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वायु प्रदूषण झारखंड में मौत का तीसरा सबसे बड़ा कारण

झारखंड बायो डायवर्सिटी बोर्ड द्वारा 22 मई को आयोजित कार्यक्रम में राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने कहा था कि अब रांची पहले जैसी नहीं रही. अविभाजित बिहार की ग्रीष्मकालीन राजधानी कही जानेवाली रांची के लोग आज गर्मी से परेशान हैं. सिर्फ राज्यपाल ही नहीं, यहां वर्षों से रह रहे लोगों भी यही मानते हैं. इधर, झारखंड […]

झारखंड बायो डायवर्सिटी बोर्ड द्वारा 22 मई को आयोजित कार्यक्रम में राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने कहा था कि अब रांची पहले जैसी नहीं रही. अविभाजित बिहार की ग्रीष्मकालीन राजधानी कही जानेवाली रांची के लोग आज गर्मी से परेशान हैं. सिर्फ राज्यपाल ही नहीं, यहां वर्षों से रह रहे लोगों भी यही मानते हैं. इधर, झारखंड के अन्य प्रमुख शहरों जमशेदपुर, धनबाद, देवघर आदि का भी यही हाल है.
बढ़ती आबादी के कारण तेजी से हो रहा शहरीकरण, घटते जंगल, बढ़ता प्रदूषण, भूगर्भ जल का बेतहाशा दोहन इस समस्या की मूल वजह है. प्रस्तुत है पर्यावरण से हो रही छेड़छाड़ और उसके दुष्प्रभावों के प्रति सचेत करती प्रभात खबर टोली की यह विशेष रिपोर्ट़
ऐसे बढ़ी रांची की आबादी
वर्ष आबादी वृद्धि
1901 477249 …
1911 557488 16.81%
1921 536346 (-3.79)%
1931 629863 17.44%
1941 673376 6.91%
1951 748050 11.09%
1961 894921 19.63%
1971 1164661 30.14%
1981 1481303 27.87%
1991 182771 22.72%
2001 2350245 28.59%
2011 2914253 24.00%
मनोज सिंह
रांची : वायु प्रदूषण झारखंड में मौत का तीसरा सबसे बड़ा कारण है. यहां कुल मौत की करीब 8.9 फीसदी मौत वायु प्रदूषण से होती है. भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की ओर से 2017 में जारी आकड़ों में कहा गया है कि राज्य में सबसे अधिक मौत कुपोषण से होती है. मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण गंदगी से होनेवाली बीमारियां हैं. ब्रिटिश जर्नल लैंसेट कमीशन ने अपने सर्वे में कहा है कि झारखंड में एक लाख मौत में से 100 की मौत का कारण वायु प्रदूषण है.
वायु प्रदूषण पर काम करने वाली संस्था सेंटर फॉर इनवायरमेंट एंड एनर्जी डेवलपमेंट (सीड) ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि रांची का मौसम 2012 की तुलना में कुछ सुधरा है. इसके बावजूद यहां वायु प्रदूषण की स्थिति तय मानक या सुरक्षित मानक से करीब 2.5 गुना अधिक है. यहां पीएम-10 की मात्रा अभी भी सामान्य से अधिक है. संस्था का मानना है कि इस दिशा में कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया, तो राजधानी रांची भी रहने लायक नहीं रहेगी. भारत सरकार के नेशनल एयर मॉनिटरिंग प्रोग्राम (एनएएमपी) के तहत राज्य के नौ स्थानों पर हवाओं की मॉनिटरिंग हो रही है. इसमें धनबाद में तीन, जमशेदपुर में दो तथा रांची, झरिया, सरायकेला और पश्चिमी सिंहभूम में एक-एक स्टेशन पर वायु की मॉनिटरिंग हो रही है.
इसके तहत हवा में पीएम-10, सल्फर डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड देखा जा रहा है. यह कार्यक्रम भारत सरकार चला रही है. रांची में अलबर्ट एक्का चौक पर एक एयर क्वालिटी मॉनिटरिंग यूनिट की स्थापना की गयी है. इसके अनुसार, वायु में वार्षिक रूप से पीएम-10 की मात्रा बढ़ी है.
वर्ष पीएम-10 की मात्रा
2012 202
2013 177
2014 197
2015 220
2016 196
2017 143
(मिलीग्राम में)
25 फीसदी की दर से बढ़ रही है राजधानी की आबादी
राजधानी की आबादी करीब 25 फीसदी की दर से बढ़ रही है. 1901 में रांची की आबादी चार लाख 77 हजार थी. 2011 की जनगणना में यह करीब 29 लाख से अधिक हो गयी है. अगली जनगणना में यहां की आबादी करीब 35 लाख के आसपास हो जायेगी.
1951 तक राजधानी में आबादी का दबाव बहुत कम था. इस समय 10 से 11 फीसदी की दर से आबादी बढ़ रही थी. 1961 में आबादी की वृद्धि दर करीब 20 फीसदी रही. इसके बाद करीब 30 फीसदी की दर से वृद्धि हुई. बढ़ती आबादी का दबाव जनजीवन पर है. राजधानी के चारों ओर आज कंक्रीट की ऊंची-ऊंची दीवारें बन गयी हैं. बड़े-बड़े भवनों में दर्जनों एसी दिखते हैं. यह राजधानी की हकीकत बयां करती है.
धनबाद की सांसों में घुल रहा प्रदूषण का ‘जहर’
धर्मेंद्र प्रसाद गुप्त
धनबाद : नपीस इंडिया ने कुछ माह पूर्व देश के सबसे प्रदूषित शहरों पर अपनी वार्षिक रिपोर्ट का तीसरा संस्करण जारी किया था. इसमें झरिया को देश का सबसे प्रदूषित शहर बताया गया. सर्वेक्षण देश के 319 शहरों पर आधारित था. इस सूची में धनबाद नौवें स्थान पर था. सूची में साल 2017 में शहरों का औसत पॉर्टिकल मैटर (सूक्ष्म धूल-कण) 10 दर्ज किया गया.
झरिया का औसत पीएम 10 स्तर 295 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर रहा. यह देश भर में सबसे अधिक था. वहीं, धनबाद का पीएम 238 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर तथा सिंदरी का 158 माइक्रोग्राम दर्ज किया गया.
विश्व के 55 देशों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाली इस संस्था की रिपोर्ट में कहा गया था कि राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) शहरों का प्रदूषण स्तर 30 प्रतिशत भी कम करने में सफल होता है, तब भी झरिया, धनबाद, सिंदरी जैसे शहर राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता के मानकों को पूरा ही नहीं कर पायेंगे. ग्रीनपीस ने झारखंड के शहरों की हवा को गंभीर रूप से प्रदूषित बताया है.
2024 तक हालात और भी बदतर होंगे : रिपोर्ट के अनुसार, 2024 तक प्रदूषण 30 प्रतिशत कम होने पर भी ये शहर राष्ट्रीय मानक से अधिक प्रदूषित हवा की चपेट में होंगे. संस्था की सलाह थी कि पर्यावरण मंत्रालय 2017 के डाटा के आधार पर धनबाद सहित अन्य शहरों को वायु प्रदूषण की दृष्टि से देश के अयोग्य शहरों की सूची में शामिल कर एनसीएपी के तहत काम करे. प्रदूषण के मुद्दे पर बीते 30 अप्रैल को भौंरा इलाके में जनाक्रोश भड़कने की घटना और ग्रीनपीस की रिपोर्ट कम से कम स्थिति की भयावहता पर अपनी मुहर लगाती हैं.
निरसा शहर फ्लाइएश से परेशान : कभी झारखंड के प्रमुख वाणिज्यिक शहरों में शुमार झरिया आज अवसान की राह पर है. भूमिगत आग, भू-धंसान, प्रदूषण और विस्थापन यहां के जनजीवन को प्रभावित कर चुका है. बावजूद बेपरवाह यह शहर खुद में मस्त रहता है. यहां से लगभग 30 किमी दूर ऐतिहासिक जीटी रोड के किनारे बसा निरसा शहर फ्लाइएश से परेशान है. जब एश का गुबार आबोहवा में फैलता है, तो दिन बादलों से घिरे होने का एहसास कराता है.
प्रदूषण जनित बीमारियों की चपेट में आ रहे लोग : पिछले चार दशक से कतरास कोयलांचल में अपनी सेवा दे रहे डॉ उमाशंकर सिंह प्रदूषण के सवाल पर काफी गंभीर दिखने लगते हैं. वह मानते हैं कि समस्या बेहद गंभीर है.
उनके पास हर दिन प्रदूषण जनित बीमारियों की चपेट आये दर्जनों मरीज पहुंचते हैं. डॉ सिंह कहते हैं, ‘मेरे पास हर दिन आनेवाले मरीजों में सांस की बीमारी, अस्थमा, टीबी, एलर्जी से पीड़ित की संख्या ज्यादा होती है. इनमें बच्चे भी हैं.’ वे कहते हैं, ‘जॉन्डिस भी मरीजों में घर कर रही है.’ जॉन्डिस होने की वजह प्रदूषण, के सवाल पर वे कहते हैं, ‘खदानों से उड़ने वाली डस्ट पानी में मिल जाती है. आम आदमी यही पानी पीकर बीमार बन रहा है.’
शहरीकरण ने बिगाड़ा बाबा नगरी का स्वरूप
देवघर : जी से हो रहे शहरीकरण और बढ़ती आबादी के साथ देवघर का स्वरूप ही बदल गया है. खासकर झारखंड राज्य अलग होने के बाद देवघर की आबादी में बेतहाशा वृद्धि हुई है. वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार, देवघर जिले की आबादी 11,65390 थी. वर्ष 2011 में हुई जनगणना में चार प्रतिशत बढ़ कर आबादी 14,92,073 हो गयी है. वहीं, पिछले आठ साल से जनगणना नहीं हुई है.
आबादी बढ़ने के साथ देवघर में तेजी से पेड़ों की कटाई हुई, छोटे-बड़े वाहनों की संख्या बढ़ी, वहीं 15 हजार नये बोरिंग किये गये. इस अव्यवस्था में यहां के पुराने तालाब, जोरिया व नदियों का भी अस्तित्व समाप्ति के कगार पर पहुंच गया. साथ ही शहरी क्षेत्र व नदियों का जलस्तर तेजी से घटा है. पिछले पांच-छह वर्षों के दौरान देवघर में नये आवासीय परिसर, भूमिगत पार्किंग, व्यापारिक केंद्र खोलने व मार्गों को चौड़ा करने के लिए ढाई हजार से अधिक छोटे-बड़े पेड़ों की कटाई की गयी है. इन्हीं पांच वर्षों के प्रदूषण के आंकड़ों का विश्लेषण किया जाये, तो पता चलता है कि इस दौरान हरियाली घटने से देवघर में वायु प्रदूषण करीब 70 फीसदी बढ़ा है.
काटने से पहले वृक्षों लगाने की योजना अधर में : भारतीय वन सर्वेक्षण देहरादून की 2017 की रिपोर्ट अनुसार झारखंड में वनावरण के मामले में देवघर की स्थिति सबसे खराब है. देवघर में वन क्षेत्र भूमि मात्र 8.23 प्रतिशत है. शहरी क्षेत्र में कंस्ट्रक्शन के दौरान पेड़ाें की कटाई तो कर दी गयी. लेकिन, उस अनुसार पेड़ नहीं लगाये गये हैं.
पांच वर्ष पहले सर्कुलर रोड की चौड़ाई के लिए 480 पेड़ों की कटाई यह कहकर कर दी गयी कि दोगुना पेड़ सड़क किनारे लगाये जायेंगे, लेकिन यह केवल कागजी घोषणा बनकर रह गयी. आज तक पेड़ नहीं लगाये गये. खोरीपानन-जसीडीह व चौपा से हंसडीहा एनएच में बड़ी संख्या में पेड़ों की कटाई हुई, एक भी पेड़ दोबारा नहीं लगाये गये. नगर निगम के अनुसार, शहरी क्षेत्रों में 51 हजार की संख्या में मकान का निर्माण हाे चुका है. भारतीय वन सर्वेक्षण, 2018 की रिपोर्ट के अनुसार इसमें महज 5500 मकान के परिसर में ही पौधारोपण किया गया है.
शहरी क्षेत्र में पांच वर्ष में 40 फीट गिरा जलस्तर : नगर निगम के अनुसार देवघर शहरी क्षेत्र एरिया में पांच वर्ष के दौरान 40 फीट जलस्तर गिर गया है. प्रति वर्ष सात से आठ फीट जलस्तर गिर रहा है. नगर निगम की टीम को चापानलों की बोरिंग हर वर्ष बढ़ानी पड़ रही है व पाइप की संख्या भी अधिक लग रही है. शहर से सटी नदियों के जलस्तर का भी यही हाल है. पांच वर्ष में अजय व डढ़वा नदी का जल स्तर 20 फीट गिर गया. हर वर्ष चार से पांच फीट जलस्तर नीचे भाग रहा है.
शहर में बड़ी संख्या में जामुन, पीपल, वट वृक्ष थे. पूरा शहर जंगलों के बीच बसा था. धीरे-धीरे पेड़ कटते गये. जंगल खत्म हो गया. इसका असर तापमान पर भी पड़ा. शहर में आबादी तेजी से बढ़ी है. बाहर से आकर भी लोग बसे हैं. पहले 30 हाथ खुदाई करने पर कुआं में पानी आ जाता था. इसमें साल भर पानी रहता था. अब 150 सौ फीट में भी पानी की गारंटी नहीं है.
जगदीश मुंदड़ा, बंपास टाउन निवासी
मैंने 1974 में रांची वेटनरी कॉलेज में शिक्षक के रूप में योगदान दिया था. 2001 में सेवानिवृत्त हुआ. रांची आने के बाद मैं डोरंडा में रहता था. हर दिन डोरंडा से कांके स्थित रांची वेटनरी कॉलेज आता था.
हर दिन बैग में एक अतिरिक्त सेट कपड़ा लेकर आते थे. डोरंडा से कांके आने के दौरान या जाने के दौरान हर दिन बारिश होती थी. बारिश से भीगने के कारण कपड़ा बदलना पड़ता था. कॉलेज के किसी हॉस्टल में पंखा नहीं था. वर्तमान सीएम आवास से आगे कुछ आबादी थी. पेड़ पौधों से घिरा हुआ इलाका था. आज स्थिति बदल गयी है. कांके व उसके आसपास के इलाके के लोग गर्मी से परेशान हैं. गांव के लोग पानी के लिए तरस रहे हैं. मात्र 40 साल में यह बदलाव आश्चर्यजनक है. अाज बिजली नहीं रहती है, तो गर्मी समझ में आ जाती है. पहले बिजली की जरूरत सिर्फ रोशनी के लिए पड़ती थी.
डॉ एसके सिन्हा, पूर्व व्याख्याता, रांची वेटनरी कॉलेज
बढ़ता गया शहर, घटते गये जंगल, बदरंग हो गयी लौहनगरी
जमशेदपुर : पिछले 50 साल की तुलना में ‘लौहनगरी’ के नाम से जाना जानेवाले शहर जमशेदपुर का काफी विस्तार हुआ है. आबादी बढ़ने और शहर के विस्तार के साथ-साथ शहर और शहर से सटे आसपास के इलाके में जंगल-पेड़ कम होते गये. इनकी जगह बहुमंजिला भवनों ने ले लिया है.
पहले जहां शहर में काफी कम गाड़ियां थीं और लोग साइकिल से ड्यूटी जाते थे, वहीं अब गाड़ियों की संख्या बढ़ कर लगभग साढ़े चार लाख हो गयी है. इससे शहर में ध्वनि और वायु प्रदूषण की समस्या भी हो रही है.
मौजूदा समय में इस शहर में 400 से 1000 फीट बोरिंग करने पर भी पानी नहीं मिल रहा है. जबकि पूर्व में महज कुछ फीट पर ही कुओं में पानी मिल जाता था. आबादी बढ़ने, जंगल-पेड़ कम होने, कंक्रीट का जाल फैलने और गाड़ियों की संख्या बढ़ने के कारण प्रत्येक वर्ष शहर के तापमान में वृद्धि हो रही है. लोग हर साल असहनीय गर्मी झेल रहे हैं. आज यह शहर ‘डे जीरो’ की सूची में शामिल हो चुका है. ‘डे जीरो’ का मतलब है होता है ‘वह दिन जब नल से जल आना बंद हो जायेगा और पीने के लिए लोग पानी की एक-एक बूंद को तरसेंगे’.
शहर के हर हिस्से में थे पेड़ व खाली जमीन अब खड़ा हो चुका है कंक्रीट का जंगल
मानगो पोस्ट ऑफिस रोड के रहने वाले 76 वर्षीय अवधेश तिवारी के अनुसार वे 1961 में छपरा से जमशेदपुर आये थे. वर्ष 1962 में राज्य ट्रांसपोर्ट में नौकरी शुरू की. शुरू में वे कंपनी एरिया में रहते थे.
वर्ष 1978 में मानगो में आकर रहने लगे. उस समय पूरे शहर में पेड़ ही पेड़ थे, साथ ही खाली जमीन भी थी. मानगो में जवाहर नगर के आगे जंगल था. कोई इस ओर आना नहीं चाहता था. मानगो चौक के पास एक बड़ा कुआं था, जिसमें काफी ऊपर तक पानी रहता था. अधिकांश लोग कुएं के पानी का ही इस्तेमाल करते थे. घर-घर में कुआं होता था. गाड़ियां काफी कम थीं और अधिकांश लोग साइकिल से ड्यूटी जाते थे.
धीरे-धीरे शहर का विस्तार का विस्तार हुआ और आबादी बढ़ती गयी. पहाड़ की तलहटी तक घर बन गये हैं. इससे शहर से पेड़-जंगल कम होते गये. आज कुछ हिस्सों को छोड़ कर अधिकांश क्षेत्रों में पेड़ गायब हो चुके हैं. जंगल-पेड़ के साथ-साथ कुआं-तालाब भी गायब हो गये. अब तो कई जगहों पर 1000 फीट तक बोरिंग करने पर भी पानी नहीं मिलता है.

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