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गुरु अजर्न देव जी : सरल धर्म-मार्ग

-जसबीर सिंह- गुरु अजर्न देव जी ने कहा -सरब धरम महि श्रेष्ठ धरम/हरि को नाम जप, निरमल करम. अर्थात् वही धर्म श्रेष्ठ है जो हमें हरि के नाम से जोड़ता है और हरि के नाम से तभी जुड़ा जा सकता है, जब हमारे कर्म निर्मल हों, पवित्र हों, सरल हों. निर्मल चरित्र वह चरित्र है […]

-जसबीर सिंह-

गुरु अजर्न देव जी ने कहा -सरब धरम महि श्रेष्ठ धरम/हरि को नाम जप, निरमल करम. अर्थात् वही धर्म श्रेष्ठ है जो हमें हरि के नाम से जोड़ता है और हरि के नाम से तभी जुड़ा जा सकता है, जब हमारे कर्म निर्मल हों, पवित्र हों, सरल हों. निर्मल चरित्र वह चरित्र है जहां व्यक्ति अपना जीविकोपाजर्न सत्य के मार्ग पर चल कर अजिर्त करता है – अर्थात् जिस माध्यम से हम रोजी-रोटी कमाते हैं वह भी शुद्ध एवं पवित्र होने चाहिए. अपनी अजिर्त आय से न केवल अपना पेट भरता है बल्कि उसका कुछ अंश दीन-हीन की सहायता के लिए बिना यह भाव के इस्तेमाल करता है. सत्य के मार्ग को कभी भी नहीं त्यागता, न किसी को भय देता और न भय मानता है. मानव-मानव में भेद नहीं करता – सबों को उचित सम्मान देता है –

अपका कथन है : ‘एक पिता एकस के हम बारिक’ एवं ‘बुरा भला कहु किसको कहिए सगले जीव’ साथ ही, ‘ना कोई बैरी नहीं बिगाना, सगल संघ हमको बन आयी.

गुरुजी ने मानव-मात्र को जो अति महत्वपूर्ण सीख दी – वह है स्वयं को प्रभु के चरणों में बिना किसी शर्त के पूर्णरूपेण समर्पित करना-अपनी दिमागी कसरत को त्याग कर-जो कुछ भी प्रभु कर रहा है उसको उसका आदेश मान कर दु:ख-सुख से परे तटस्थ भावना के साथ स्वीकार करना-जहां मनुष्य को दु:ख-सुख प्रभावित नहीं करते – वह सदैव अडोल रहता है. अगर-मगर की भावना के साथ प्रभु को नहीं पाया जा सकता. प्रभु प्राप्ति के मार्ग में सबसे बड़ी कठिनाई हमारी सांसारिक चतुराई है – निश्छलता त्याग कर हम दिमागी जोड़-तोड़ करते हैं और प्रभु से दूर हो जाते हैं. निश्चय ही प्रभु प्राप्ति का मार्ग इससे अवरुद्ध होता है. सशर्त ईश्वर की प्राप्ति असंभव है. धर्म का निचोड़ इन शब्दों से भी व्यक्त होता है: ‘हारिये न हिम्मत, बिसारिये न हरि नाम/ जाही विधि राखे राम, ताही विधि रहिए’

गुरु अजरुन देव जी को असहनीय कष्ट दिये गये – कई प्रकार की यंत्रणाएं दी गयीं, पर आप ऐसे क्षणों में भी अटूट आस्थावश अडोल रहे और प्रभु स्मरण से जुड़े रहे और ये कष्ट भी उन्हें विचलित नहीं कर सके.

गुरु जी की शिक्षा का मूल मंत्र है हर प्राणी को ईश्वर की ’रजा’ में रहना चाहिए. वह ‘करतारपुरुख’ जो भी कर रहा है उसे मनुष्य उसे उसका ‘प्रसाद’ मान कर सहर्ष स्वीकार करना चाहिए. इसी प्रसंग में आपने कहा और संपूर्ण जीवन में इसका निर्वाह भी किया: ‘तेरा कीया मीठा लागे/ हरि नाम पदारथ नानक मांगे.’

(लेखक महाप्रबंधक (सेवानिवृत्त) स्टेट बैंक ऑफ इंडिया हैं.)

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