मेदिनीनगर : घाटे का सौदा है. पिछली बार काफी मेहनत की थी. पूंजी भी लगी थी. उम्मीद की गयी थी कि पूंजी के साथ मुनाफा भी आयेगा. मुनाफा छोड़ दीजिए, पूंजी भी रिटर्न नहीं हुई. प्रतिष्ठा कितना मिला यह तो जगजाहिर है. पहले जो दुआ-सलाम भी कर दिया करते थे, वह भी अब दुश्मनी भरी नजरों से देखते हैं. फायदा कुछ नहीं और लोगों से दुश्मनी क्यों लें? बेहतर है कि चुनाव लड़ने का मोह ही छोड़ दिया जाये.
यही सोच लेकर इस बार कई प्रत्याशी चुनाव नहीं लड़ रहे हैं. जब लोग उनसे चुनाव नहीं लड़ने का कारण पूछ रहे हैं तो अपना अनुभव लोगों से शेयर भी कर रहे हैं. कई लोग ऐसे थे जो डीलर थे, या गांव-घर में दुकान चलाते थे. लोगों के बीच लोकप्रिय थे. अपनी लोकप्रियता का पैमाना नापने के लिए पंचायत चुनाव लड़ गये. कई लोग जीत भी गये. जीतने के बाद दौरी-दुकान का काम ठप हो गया. मुखिया जी के घर लोग आने लगे, काम की अपेक्षा लेकर.
दुकान बंद कर मुखिया जी ब्लॉक और जिला दौड़ने लगे. मुखिया जी व्यवसायी थे तो पहले तकादा लेकर लोगों के घर जाते थे. स्थिति बदली अब लोग तकादा लेकर मुखिया जी के घर पहुंच जा रहे हैं. किसी तरह कष्ट में पांच साल बीता. फिर चुनाव की डुगडुगी बजी, तो मुखिया जी ने एलान कर दिया कि राजनीति से तौबा, यह घाटे का सौदा है. जो लगा रहे हैं, वह भी वापस नहीं आ रहा है.
बाल-बच्चे का भविष्य भी देखना है. यह मुखियागीरी से अच्छी दुकानदारी ही है. यह वाकया पड़वा प्रखंड की एक पंचायत से जुड़ी हुई है. पंचायत चुनाव की चर्चा शुरू होने के बाद जब मुखिया जी ने चुनाव नहीं लड़ने का एलान कर दिया, तो यह चर्चा में है.