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अपनी सीट को जागीर समझते हैं नेता, कड़िया ने छोड़ दी खूंटी, परिवार के लिए नहीं मांगा कुछ
जनसंघ के समय से परिवारवाद के खिलाफ लड़े, खुद भी निभाया आनंद मोहन रांची : दो-चार बार एक सीट से जीतनेवाले नेता अपनी सीट को जागीर समझने लगते है़ं अपनी राजनीतिक जमीन परिवार के हाथों सौंपते है़ं पत्नी, बेटा, बहू से लेकर अपने सगे- संबंधी के लिए जगह बनाते है़ं देश के कई राजनीतिक नायकों […]
जनसंघ के समय से परिवारवाद के खिलाफ लड़े, खुद भी निभाया
आनंद मोहन
रांची : दो-चार बार एक सीट से जीतनेवाले नेता अपनी सीट को जागीर समझने लगते है़ं अपनी राजनीतिक जमीन परिवार के हाथों सौंपते है़ं पत्नी, बेटा, बहू से लेकर अपने सगे- संबंधी के लिए जगह बनाते है़ं
देश के कई राजनीतिक नायकों भी परिवार का मोह नहीं छोड़ पाये, लेकिन झारखंड में भाजपा के वरिष्ठ और दिग्गज नेता कड़िया मुंडा ने राजनीति में लंबी लकीर खींची़ नया प्रतिमान गढ़ा, नया आदर्श प्रस्तुत किया. पार्टी ने उम्र को फैक्टर मान कर टिकट काटा, तो कड़िया ने भी अपनी जमीन खूंटी को झटके में छोड़ दिया़ कोई मोह-ममता नही़ं
बेटे, बेटी, बहू और दूसरे किसी संबंधी के लिए पार्टी से सीट नहीं मांगी़ कड़िया देश के उन गिने-चुने नेताओं में हैं, जिनके पास लंबा और गौरवपूर्ण संसदीय अनुभव है़ं जनसंघ से स्थापना काल से जुड़े रहे़ जनसंघ और भाजपा की जड़ें मजबूत करने में अपनी भूमिका निभायी़ वर्ष 1971 से अपनी चुनावी यात्रा शुरू की़ 48 वर्षों के राजनीतिक सफर में बेदाग, विवादों से दूर रहे़ राजनीति को खाने-कमाने का जरिया कभी नहीं बनाया़ ईमानदारी और निष्ठा के साथ पार्टी और संसदीय क्षेत्र की सेवा की़ कभी अपने ऊपर दाग नहीं लगने दिया़
कड़िया सांसद रहे, तो उनका परिवार खेती-बारी कर अपना पेट चलाता रहा़ बेटी सब्जी बेचती़ सांसद कड़िया ने कभी अपने सगे-संबंधी को जगह पकड़ाने के लिए अपने सियासी रसूख बेजा इस्तेमाल नहीं किया. कड़िया के परिवार के लोग भी चकाचौंध से दूर रहे़
कड़िया वर्ष 1971 में पहला चुनाव हारे़ पहली बार 1977 में चुनाव जीत कर आये़ फिर वर्ष 1989 से 1999 तक लगातार पांच बार सांसद रहे़ इसके बाद फिर 2009 और 2014 में लगातार लोकसभा का चुनाव जीतते रहे. अपने राजनीतिक जीवन में मात्र तीन चुनाव हारे़ लोकसभा में चुनाव हारे, तो लोगों ने विधानसभा पहुंचाया़ कड़िया एकीकृत बिहार में 1982 से 1984 तक विधायक रहे, फिर 2005-2009 तक झारखंड में विधायक रहे़
झारखंड को वो दिन भी याद है, जब राज्य गठन के बाद कड़िया मुंडा का नाम पहले मुख्यमंत्री के लिए जोर-शोर से चला़ रसियन हॉस्टल में भाजपा विधायकों की बैठक हुई़ बैठक में बाबूलाल मरांडी विधायक दल के नेता चुने गये़ गोविंदाचार्य ने जब घोषणा की, तो कड़िया को लेकर कई तरह के राजनीतिक कयास लगाये जाने लगे़ कड़िया इधर-उधर नहीं डोले़ कड़िया ने पार्टी का फैसला माना़ उस समय अटल – आडवाणी जैसे नेता कड़िया के नजदीकी ही नहीं, प्रशंसकों में शुमार थे़
लेकिन गोविंदाचार्य को भरोसा था कि वह कड़िया की थोड़ी बहुत नाराजगी रही भी, तो दूर कर लेंगे़ कड़िया पार्टी के सच्चे सिपाही की तरह अपनी जवाबदेही निभाते रहे़ आज जब पार्टी ने खूंटी से कड़िया की जगह अर्जुन मुंडा को टिकट दिया है, तो भी माथे पर शिकन नहीं है़
अर्जुन मुंडा को आशीर्वाद दिया, अपने लोगों को उनके लिए काम करने का निर्देश दिया़ आज के बदलते दौर में ऐसी राजनीति नहीं दिखती है़ ऐसे नेताओं से प्रेरणा लेकर किसी भी पार्टी के कार्यकर्ता को काम करने का जज्बा मिलता है. जनप्रतिनिधियों पर लोगों का विश्वास बढ़ता है़
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