राधेश्याम, तलगड़िया : चास प्रखंड के बेलुंजा गांव में दुर्गा पूजा का इतिहास दशकों नहीं, बल्कि करीब 403 साल पुराना है. इसकी शुरुआत तत्कालीन जमींदार हरिप्रसाद दुबे ने की थी. यहां की पूजा राजसी परंपरा से होती है. कलश स्थापना के साथ ही बेलुंजा व आसपास के क्षेत्र भक्तिमय माहौल में हो जाता है.
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पुत्री के रूप में प्रकट होकर मां दुर्गा ने दिये थे दर्शन
राधेश्याम, तलगड़िया : चास प्रखंड के बेलुंजा गांव में दुर्गा पूजा का इतिहास दशकों नहीं, बल्कि करीब 403 साल पुराना है. इसकी शुरुआत तत्कालीन जमींदार हरिप्रसाद दुबे ने की थी. यहां की पूजा राजसी परंपरा से होती है. कलश स्थापना के साथ ही बेलुंजा व आसपास के क्षेत्र भक्तिमय माहौल में हो जाता है. नियमित […]
नियमित बलि देने की भी परंपरा है. परंपरा के अनुसार एक ही पटरा में मां दुर्गा, मां सरस्वती, लक्ष्मी, भगवान गणेश, कार्तिक, जया विजया व महिषासुर की मूर्तियों का निर्माण होता है. मूर्तिकार परेशचंद्र वैष्णव इस काम को अंतिम रूप देने में लगे हैं.
मंदिर के रंग-रोगन व सजावट का कार्य भी चल रहा है. पूजा को लेकर स्व. दुबे के वंशज अनिमा दुबे, ब्रजगोपाल दुबे, सुनील दुबे, नेपाल चंद्र दुबे, सनातन दुबे, महादेव दुबे, कालीदास दुबे, विश्वनाथ दुबे, बैद्यनाथ, अमित दुबे, जगन्नाथ, राधा मोहन, सुमित दुबे, नित्य पुजारी, काजल तिवारी जुटे हैं.
पुत्री के रूप में मां ने दिया था दर्शन : मान्यता है कि बेलुंजा में मां दुर्गा ने स्वयं पुत्री के रूप में प्रकट होकर हरिप्रसाद दुबे को दर्शन दिया था. बेलुंजा गांव से दक्षिण में 500 मीटर दूर एक खेत के समक्ष महिषकुड़ी नाम का दह है.
वहां पानी निरंतर बहता था. दुगा्र पूजा के एक माह पूर्व पश्चिम बंगाल से गांव में शाखा बेचने के लिए शांकुड़ी ब्राह्मण आते थे. वे उसी दह से गुजर रहे थे. उसी समय मां बालिका के रूप में आयी और उसे आवाज देकर बुलाया और कहा : ओ शांकुड़ी ब्राह्मण आमाखे शांखा पराइदेन. ब्राह्मण ने उसे शांखा पहना दिया.
पैसा मांगने पर मां ने कहा कि बेलुंजा में मेरे पिता हरिप्रसाद दुबे रहते हैं. वहां जाकर पैसा ले लेना. घर के दक्षिण ओर मिट्टी की हाड़ी में मुठी चावल व पैसा रखा है. ब्राह्मण घर पहुंच कर पैसा मांगने लगे. हरिप्रसाद दुबे ने कहा कि मेरी कोई पुत्री नहीं है. इस पर ब्राह्मण उन्हें दह के पास ले गये. आवाज लगायी कि दर्शन दो बालिका नहीं तो में झूठा कहलाउंगा.
इस पर दह से दो हाथ ऊपर उठा कर मां ने शांखा दिखा दिया. यह देख कर हरिप्रसाद दुबे व शांकुड़ी ब्राह्मण भावुक हो गये. ब्राह्मण को हरिप्रसाद दुबे ने चांदी का रुपया और वस्त्र देकर सम्मान पूर्वक विदा किया. उसी रात को मां दुर्गा हरिप्रसाद दुबे के सपने में आयी और कहा कि मुझे स्थापित कर मेरी पूजा करो. इसके बाद उन्होंने पत्थर का भव्य मंदिर का निर्माण कराया और पूजा की शुरुआत की.
खड्ग स्पर्श से होती है संतान प्राप्ति
बेलुंजा दुर्गा मंदिर को लेकर भक्तों में मान्यता है कि नवमी पूजा बलि के बाद खड़ग का स्पर्श करने पर नि:संतान को संतान प्राप्त होती है. बलि के बाद ब्राह्मण जब खड़ग को धोने के लिए रामशायर तालाब जाते हैं, तब महिलाएं नया वस्त्र पहन कर कतारबद्ध खड़ी हो जाती हैं.
महिलाएं पूजा-अर्चना कर घर लौट कर पहने हुए नये वस्त्र को संदूक में भर कर रख देती हैं. जब संतान प्राप्ति होती है तब उस वस्त्र को छठी के दिन स्नान कर पहनती हैं और मन्नत को पूरी करती है. बच्चे का मुंडन भी किया जाता है. सप्तमी, अष्ठमी, नवमी व विजया दशमी में बेलुंजा और आसपास के 20-25 गांव के हजारों लोगों की भीड़ होती है. यहां मेला भी लगता है.
पुष्प गुच्छ गिरने पर होती है संधि बलि
मंदिर में मां दुर्गा की चरण पर पुष्प गुच्छ महाअष्ठमी में चढ़ाया जाता है और पुष्प गुच्छा गिरने के बाद ही संधि बलि दी जाती है. पंजिका के अनुसार निर्धारित समय पर ही पुष्प गुच्छ गिरता है. बेलुंजा दुबे परिवार का काशीपुर स्टेट राजा परिवार से निकटस्थ संबंध था. आज भी दुबे परिवार राजा परिवार के नाम से जाना जाता है.
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