कोचस. मौजूदा दौर में भोजपुरी भाषी क्षेत्रों की होली की पारंपरिक मिठास धीरे-धीरे कम हो रही है. पारंपरिक होली गीत अब लुप्त हो रहे हैं. कुछ वर्ष पहले तक वसंत पंचमी के दिन से ग्रामीण होली की तैयारी में जुट जाते थे. आमलोगों में इस त्योहार को लेकर काफी उत्साह रहता था, लेकिन अब पुरानी होली मनाने की परंपरा सिमटी जा रही है. लोगों का कहना है कि गांवों में पुरानी संस्कृति के अनुसार, शाम ढलते ही चौपालों पर बड़े बुजुर्ग होली, फगुआ और जोगीरा आदि गाकर होली पर्व का स्वागत करते थे. इसमें राधाकृष्ण का प्रेम प्रसंग, श्रीराम की बाल लीलाओं के साथ-साथ शृंगार और विरह के अलावा देवी-देवताओं की लीलाओं का प्रसंग होता था. पारंपरिक होली गायन में बड़े बुजुर्ग, युवा और बच्चे सब एक साथ बैठते थे. इस दौरान घर की महिलाएं भी चौखट की ओट से पारंपरिक होली गीत सुनती थीं. समय के साथ-साथ स्वस्थ पारंपरिक फाग गीतों की परंपरा भी लुप्त होती जा रही है. इसकी जगह युवाओं में फूहड़ गीतों का चलन बढ़ रहा है, जो भोजपुरी की पहचान को विकृत कर रहे हैं. हालांकि,अब भी कुछ गांवों में बड़े बुजुर्ग इस परंपरा को बरकरार रखने की कवायद में लगे हुए हैं.
भाईचारे के साथ मनायी जाती थी होली
सिर्फ एक-डेढ़ दशक पूर्व तक होली के अवसर पर परदेस में रहनेवाले लोग अपने घर पहुंच जाते थे और अपने परिवार के साथ मिलकर होली पर्व मनाते थे. होली पर्व के दिन लगभग सभी घरों में पकवान समेत विभिन्न व्यंजन बनाये जाते थे और पूरे परिवार के लोग एक जगह बैठकर भोजन ग्रहण करते थे. इस दिन लोग एक-दूसरे के घर पहुंच कर बड़े बुजुर्ग के पैर पर अबीर लगाकर आशीर्वाद लेते थे. अपनी हमउम्र के लोगों को अबीर-गुलाल लगाकर पर्व की बधाई भी देते थे. उस वक्त लोगों के बीच आपसी भाईचारा दिखता था. लेकिन, मौजूदा दौर में होली पर्व पर लोग आपसी दुश्मनी का बदला लेने में जुटे रहते हैं. इसके कारण सभ्य लोगों ने होली के दिन अब घर से बाहर निकलना लगभग बंद कर दिया है.डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है

