एकमा. अपने कुल खानदान के पितरों की मुक्ति और तृप्ति के लिए प्रतिपक्ष में श्राद्ध तर्पण पिंडदान करना अत्यंत आवश्यक है. भलुआ पंचायत के भलुआ बुजुर्ग गांव निवासी पंडित अनिल दुबे ने यह जानकारी दी. उन्होंने कहा कि पितृपक्ष में तर्पण, श्राद्ध और पिंडदान करने से हमारे स्वर्गवासी पितृ गणों को तृप्ति मिलती है और वे हमें आशीर्वाद देते हैं. ऐसा माना जाता है कि पितृपक्ष में सभी पितृ पृथ्वी लोक में निवास करते हैं और उम्मीद करते हैं कि उनके वंशज उनके नाम पर श्राद्ध कर्म और पिंडदान करें. इससे पितृ तृप्त होते हैं और वंश की वृद्धि होती है. पंडित अनिल दुबे ने बताया कि इस वर्ष पितृपक्ष आठ सितंबर से प्रारंभ होकर 21 सितंबर रविवार को समाप्त होगी. पितृ तर्पण पद्धति के अनुसार तिथि वार तर्पण करना शुभ माना जाता है. यदि वंश या तिथि का ज्ञान न हो तो अमावस्या तिथि को तर्पण करना चाहिए. पिंडदान और तर्पण से जुड़ा एक महत्वपूर्ण प्रसंग महाभारत के 13वें अध्याय में आता है, जिसमें जतकारू ऋषि की कथा वर्णित है. जतकारू ऋषि ब्रह्मचर्य जीवन बिताते हुए जंगल में तपस्या कर रहे थे. एक दिन संध्या काल में उन्होंने पितृ गणों को उल्टा टंगे देखा. जब उन्होंने कारण पूछा, तो पितरों ने बताया कि उनके कुल खानदान में वंश समाप्त हो गया है, इसलिए कोई नहीं बचा जो तर्पण और श्राद्ध कर सके, जिससे उनकी मुक्ति हो सके. पितरों ने जतकारू ऋषि से कहा कि उनके कुल में एक व्यक्ति है, जिसका नाम जतकारू है, जो ब्रह्मचर्य हो गया है. यह सुनकर जतकारू ऋषि दुखी हो गये और बताया कि वह स्वयं हैं. पितरों ने इसे सौभाग्य माना और उनसे आग्रह किया कि वे शीघ्र विवाह करके वंश वृद्धि करें और पितृपक्ष में श्राद्ध तर्पण पिंडदान कर पितरों को मुक्ति दिलाएं. इस प्रकार, श्राद्ध तर्पण से पित दोष से मुक्ति मिलती है और वंश में वृद्धि होती है. यह धार्मिक परंपरा परिवार और समाज दोनों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है. इस अवसर पर पितरों को याद कर उनकी तृप्ति हेतु श्राद्ध कर्म अवश्य करना चाहिए.
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